Sunday, October 25, 2020

किसान व लेखक की फसल.... !!

 

                   25/10/2020 के दैनिक जागरण समाचार पत्र में


अन्न व शब्द का काल आदि-अनंत रहा हैं । ओर मेरा तो यहां तक मानना है कि पहले अन्न ही आया होगा। क्योंकि “बिना भोजन के भजन नहीं हो सकता,” भले ही शब्दों में ब्रह्म जैसी शक्ति हो। “ओर यह भी साश्वत सत्य है कि न तो किसान व न ही लेखक खाली पेट हल चला सकता है, न ही कलम।” 


वैसे अन्न व शब्द के सजृनकर्ता किसान व लेखक का इतिहास गौरवशाली रहा है, पर विगत कुछ दशकों से जितना शोषण इन दोनों का हुआ है, इस पृथ्वी पर शायद ही किसी वर्ग का हुआ होगा ! “कौन उगाएं--कौन काटे ओर जाने कौन इनकी फसल से लाभ कमाएं ?” इन दोनों पीड़ितों को अक्सर कानों-कान तक इस सामाजिक षड्यंत्र की खबर नहीं लगती है। अब बेचारे इनके कोई सूत्र भी तो नहीं कि इन्हें सूत्रों से खबर मिल जाए।


अक्सर देखने में आया है कि हमारे यहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनेताओं द्वारा अन्नदाता को सिर्फ़ मतदाता ही समझा गया है ! वही लेखक बिरादरी को विपक्ष का स्थाई सहयोगी समझा जाता रहा है। जिसके कारण हमेशा से इनके साथ देश की सौतेली सनतान की तरह व्यवहार किया गया है। क्योंकि यदि ऐसा नहीं होता, तो स्वंतत्रता के बाद से अब तक किसानों की आत्महत्याएं जारी नहीं रहती। वही कितने ही महान लेखक गुमनामी व फ़ाक़ाकशी में नहीं मरते !

अक्सर पढ़-लिखकर बैरोजगारी की हवा खाने वाला ही युवा अधिकांशतः कविता व शेरों-शायरी के माध्यम से अपने भविष्य के सपने देखता है ओर इसी फुर्सत में वह कलम घसीटना शुरू कर देता। नया-नया लेखक शब्दों की फसलों में फँस तो जाता है, लेकिन इन्हें उगाने के बाद बेचें कहाँ ? उसे पता नहीं रहता है ! किताबों को छपाने व बेचने की मंडियों तक उसके लिए कोई खुली बाजार व्यवस्था नहीं है। जिस तरह से किसान की फसल कितनी ही बार खेत में अति वर्षा से सड़ जाती है, उसी तरह से लेखक का जैसा-तैसा लिखा उसकी डायरीयों, फेसबुक पर या फिर संपादक महोदय के ईमेल-जिमेल खाते में ही पड़ा-पड़ा बहुत बार शब्दहीन हो जाता हैं। कितनी ही कालजयी रचनाएं काल की अंधी खाई में समा जाती है। “आखिर दोनों अपने माल की खपत अपने घर-बार के लोगों के बीच करे भी तो कितना करें.?

भारत की अर्थव्यवस्था में उदारीकरण तो तीन दशक पहले आया लेकिन किसानों के लिए पूर्व की सरकारें उतना उदार नहीं हुई ! लेकिन जब वर्तमान सरकार किसानों के लिए कुछ उदार हुई तो विपक्ष संसद में बगैर चर्चा के ही नाराज़ हो गया, कि हमारा काम इनने क्यों कर दिया ! उसी तरह जैसे लेखकों के लिए सरकारें उदार कभी रही ही नहीं है। क्योंकि लेखक वर्ग को तो सरकारें आदिकाल से विपक्ष का ही स्थाई स्तंभ मानती आई है ! इसी दौरान कितने ही लेखक अपने ही साहित्य में तैरकर कर भवसागर को पार हो गए ओर कितने की नैया अपने ही शब्द-भँवर में फँस कर रह गई। पर किसी सरकार व संस्था ने इन दोनों की उपज का आज तक उचित मूल्य नहीं दिया। क्योंकि इनके लिए पूँजीवादी बाजार व्यवस्था में उचित मूल्य की दुकान आजतक बनी ही नहीं !


हर वर्ष दो-तीन बार दोनों की फसलें बहार पर रहती तो है। लेकिन कोई न कोई आपदा इनकी फसलों को बर्बाद कर देती है। किसानों की आत्महत्या पर विपक्ष व सरकारें अलग-अलग राग अलापती रहती है, लेकिन लेखक जब किसानों की आवाज़ उठाता है तो उसकी आवाज़ को कोई भाव नहीं दिया जाता है, सिर्फ़ साहित्यिक रचना कह कर विश्वविद्यालयों के पाठ्यपुस्तकों की सामग्री में समाहित कर दिया जाता है।

खैर, ये दोनों अब तक इस व्यवस्था के इतने आदी हो चुके हैं कि ये अपनी-अपनी फसल उगाते रहेगें। भले ही इन्हें उसका उचित मूल्य मिले या न मिले। किसान व लेखक अपनी-अपनी फसल जनता के बीच लाते रहेगें। अब जनता को सोचना है कि राजनीति-सामाजिक उपेक्षा से इन दोनों की फसल बचाना है या एक बार फिर लोकतंत्र की चुनावी मंडियों में दोनों पर आयी “आपदा को अवसर में परिवर्तित कर लिया जाएगा ?”




©भूपेन्द्र भारतीय

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