Saturday, October 22, 2022

भौंकने की कला व भूख सूचकांक....!!

 भौंकने की कला व भूख सूचकांक....!!


              



वे भौंकने में निपुण है। उनकी बिरादरी का काम ही यही है। भौंकने में वे बड़े कलाकार हैं। उन्हें इसके लिए कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं। उन्हें जब भी भौंकने का मौका मिलता है वह किसी भी विषय में भौंक लेते हैं। वैसे तो भौंकने व भूख में कोई ज्यादा समानता नहीं है लेकिन उनके भौंकने के पीछे किसी ना किसी तरह की भूख ही काम करती हैं। कभी पुरस्कारों की भूख, तो कभी किसी पद की भूख, वहीं अंध विरोध भौंकने का प्रमुख कारण बनता है ! उनके समय-समय पर भौंकने का चिंतन कुछ तथाकथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्र व सोशल मीडिया मंच भी करते हैं। भले उनकी भौंकने की कला से उनके सगे मालिक तक प्रभावित ना हो। लेकिन वे अपनी विचारधारा की भूख के लिए भौंकना पसंद करते हैं। उन्हें सिर्फ़ भौंकने वाला श्वान कहना, श्वान संगठन व समाज का अपमान माना जाऐगा। वे इससे भी बड़े सम्मान के अधिकारी है।

वे जब भी भौंकने लगते हैं जनता को चोर-चोर सुनाई देता है। लेकिन उनके भौंकने के पीछे उनके ही बनाये मापदंड वालें वैश्विक भूख सूचकांक काम करते हैं। इधर उनके भौंकने पर जनता चोर व चोरी की चर्चा में लग जाती हैं और वे अपनी इस कला से जेब भर लेते हैं। जनता को कितने ही मंचों से उनके भौंकने की आवाज तो सुनाई देती है लेकिन वे कब भौंकने की आड़ में आंकड़ों की हेराफेरी कर देते है, बड़े-बड़े बुद्धि-प्रसादों को इसकी भनक तक नहीं लगती !

हर समय भौंकने की प्रतिभा के दम पर उनके कितने ही संगठन विश्व के कितने ही मंचों पर दमखम दिखाते रहते हैं। उनका पेट भरा हो या फिर खाली, वे हर हाल में हर विषय पर भौंकते हैं। विगत दिनों वे फिर दुनियाभर में अपने ही बनाये “ वैश्विक भूख सूचकांक” के आधार पर भौंके। उनके भौंकने से एक बार फिर सिद्ध हुआ कि उन्होंने आगे लंबे समय के लिए अपने पेट भरने के लिए तगड़ा माल लपक लिया है। भौंकने से जारी हुए आंकड़े बता रहे हैं कि एक बार फिर किसी ओर के इशारे पर भौंका जा रहा है।

वैसे उनके भौंकने की यह कला नई नहीं है। वे सदियों से भ्रामक प्रचार-प्रसार भरे तथ्यों के आधार पर संगठित रूप से भौंकते आये हैं। वे अपने पेट खाली होने पर नहीं भौंकते, “दूसरों के भरे हुए पेट पर भौंकने लगते हैं ! और उस भौंकने को नाम देते हैं- गरीबी, भूखमरी, शोषण, असहिष्णुता, अत्याचार आदि।" यह कला ही उनकी काबिलियत है। इसके ही आधार पर उनका हर एक सूचकांक आता है। वे दिनभर भौंकते हैं गरीबों के लिए और रातें गुजारते है अमीरों के साथ ! गरीबों की गरीबी के साथ फोटोशूट करवाते हैं और भौंकते हैं अपनी अमीरी बढ़ाने के लिए।

वे भौंकने के आदि हो चुके हैं। वे किसी दिन ना भौंके तो उनकी पाचन क्रिया खराब हो जाये। उनके भारी-भरकम आंकड़े उनसे ही पचाना मुश्किल हो जाए। उनका भूख सूचकांक उन्हें ही “गरीबी की रेखा” से नीचें गिरा दें। आखिर वे क्या करें ? वैश्विक स्तर पर भौंकने से ही उनकी दुकानें जो चलती हैं। अब क्या अच्छे-प्यारे पप्पी-टामी जैसा बनकर एक कोनें में पड़े रहे ? लोकतंत्र में उन्हें भौंकने का भी अधिकार नहीं है ? अभिव्यक्ति के अधिकार के तहत क्या वे अब भौंक भी नहीं सकते। भौंकना उनकी कला है। अब वे भ्रामक भूख सूचकांक के दम पर भौंके भी नहीं ? उनका इस कहावत से भी कोई लेना-देना नहीं है कि ‛हाथी चले बाजार, श्वान भौंके...!’ आखिर हमें अब यह मान लेना चाहिए कि “वे भौंकते थे, भौंकते हैं और भौंकते ही रहेंगे....!!”


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

Saturday, October 1, 2022

बापू की बकरी फिर खो गई....!!

 बापू की बकरी फिर खो गई....!!


अधबीच-नईदुनिया


एक बार फिर बापू की बकरी कहीं खो गई है। सारे समाज व देश में चर्चा चल पड़ी की अब क्या होगा ? बापू सुबह की प्रार्थना के समय से परेशान हैं। मीडिया में बड़ी खबर की भूमिका बन गई है। सूचना मंत्रालय में खलबली मच गई है। बापूवादी चिंतक चिंतित हो रहे हैं कि आखिर यह किसने किया होगा। कहीं किसी ने बापू के साथ मजाक तो नहीं किया ! वह बकरी बापूजी की सबसे प्रिय बकरियों मे से एक बकरी है। कल रात ही उस बकरी के दूध से बापू ने भोजन किया था। कल सांध्य प्रार्थना में वह बकरी बापू जी के साथ प्रार्थना सभा में बैठी थी।
इधर विपक्ष के नेताओं ने आरोप लगाना शुरू कर दिया है कि यह सरकार का ही कोई षड्यंत्र लगता है। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति फिर शुरू हो गई है।

बापू की बकरी को ढ़ूँढने के लिए एक खोजी दल का गठन किया गया। बापू के न्यास से इस दल के लिए धन आबंटित किया गया। दल के सदस्यों को चारों दिशाओं में भेजा गया। ये सदस्य हर किसी से पूछने लगे, “आपने बापू की बकरी को देखा है।” कोई कहता मैंने तो ना पहले देखा था- ना ही अब उनकी बकरी को देखा। एक गाँव वाले ने कहा कि कल सहकारिता भवन में घुसते देखा था। उसके बाद से पता नहीं किधर गई। कोई कहता, “दो पुलिस वालें एक बकरी को थाने ले गए थे। हो सकता है वह बापू की ही बकरी हो। मैं ठीक से नहीं बता सकता कि वह बापू की ही बकरी थी ! मामला पुलिस का है। ओर आप जानते है कि पुलिस के मामले में कौन हाथ डाले।"

इधर उत्तर भारत से खबर आ रही है कि कहीं बाढ़ में तो बापू की बकरी नहीं खो गई ? “बाढ़ व भ्रष्टाचार के कारण इधर प्रति वर्ष हजारों जानवरों व मनुष्य खो जाते हैं।” भला एक बकरी ऐसे में कैसे बच सकती है ! दल के एक सदस्य के पास चाँदनी चौंक से फोन आया कि कल रात को उसने अपनी गली में एक काली बकरी को घुमते देखा था। कुछ बच्चें उसे पत्थर मारकर बार बार परेशान कर रहे थे। देखने से लग रहा था, बड़ी गऊ बकरी थी। वहीं ‛बकरी खोजों दल’ के एक वरिष्ठ बापू चिंतक को वाट्सएप आया। उस वाट्सएप संदेश में भूरे रंग की एक बकरी का फोटो भी था और साथ में लिखा था, ‛क्या यही बापू की बकरी है ?’ उस बापू चिंतक ने वाट्सएप रिपलाय किया कि बापू की बकरी आगे से थोड़ी सफेद व पीछे से लाल रंग की है। वह तो बड़ी ही शांति प्रिय व समाजवादी स्वभाव की है। आपके इस फोटो वाली खुंखार जैसी बकरी नहीं है।

बापू की बकरी को खोजने के लिए ‘बकरी खोजों दल’ के कुछ सदस्यों को सुदूर दक्षिण भारत की ओर भी भेजा गया। उन्हें बापू ने पहले दक्षिण की एक-दो भाषाओं का प्रारंभिक ज्ञान भी दिया। “बापू के इस देश में अब भी, दक्षिण वालों को उत्तर वालों की-उत्तर वालों को दक्षिण की भाषा नहीं आती व पूरब वालों को पश्चिम वालों की भाषा नहीं आती। अधिकांश पढ़ें-लिखें भारतीय अब भी अंग्रेजी से ही चिपके हैं।” वहीं बकरी खोजों दल में बापू ने भाषाई प्रतिनिधित्व का पूरा ध्यान रखा है। पूरे देश के लिए बापू की बकरी चिंता का विषय बन गया है लेकिन अब भी भाषा के विषय पर हमारा एकमत होना बाकी है !

दक्षिण से खबर आई कि बापू की बकरी को कुछ मछवारों द्वारा श्रीलंका की ओर जाते देखा गया है। प्रार्थना सभा में बैठे एक भूदानी ने कहा कि बापू की बकरी को तो तैरना आता ही नहीं है। यह खबर गलत लग रही है। यह खबर जरूर किसी सूत्र के हवाले से आईं होगी। भला बापू की बकरी कभी विदेश भी जा सकती है ? जितना प्रेम बापू को अपने इस देश से है उनकी बकरी को भी अपनी मिट्टी से उतना ही प्रेम है।

कई दिनों तक बापू की बकरी को खोजा गया। चारों दिशाओं में खोजी दल बकरी की पूछताछ करता रहा। सरकार के द्वारा सीबीआई, एनआईए, ईडी, सीआईडी आदि बड़ी-बड़ी जाँच ऐजेंसियों को बकरी खोजने में लगा दिया गया। लेकिन बापू की गऊ बकरी कहीं नहीं मिली। इस चिंता में बापू का स्वास्थ्य खराब होने लगा। बापू इस स्थिति में भी नहीं रहे कि वह सरकार के खिलाफ उपवास या अनशन करे ! “विपक्ष का कहना है कि देश में बढ़ती हिंसा व फांसीवादी सरकार के कारण ही बापू की बकरी नहीं मिल रही है। इस कारण ही विपक्ष संसद को चलने नहीं दे रहा है !” इधर नियमित प्रार्थना में भी बापू ने आना बंद कर दिया। बापूवादीयों की दिनोंदिन परेशानी बढ़ती जा रही हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि आखिर बापू की बकरी कहाँ खो गई....?



भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
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क्रांतिदूतों के क्रांतिदूत वीर सावरकर की क्रांतिमय गाथा:- #मित्रमेला

 क्रांतिदूतों के क्रांतिदूत वीर सावरकर की क्रांतिमय गाथा:- मित्रमेला

     



स्वर्गीय श्री अटल जी ने अपनी एक कविता में वीर सावरकर के व्यक्तित्व पर कहा था कि “सावरकर माने तेज, त्याग, तप, तत्व, तर्क, तारुण्य, तीर, तलवार..।" आप जब इस पुस्तक को पढ़ेंगे तो वीर सावरकर के इन सभी विशेष गुणों को आसानी से समझ जाऐंगे।
क्रांतिदूत का यह भाग-०३ मित्रमेला मुख्यतः वीर सावरकर जी पर ही केन्द्रित है। इसमें वीर सावरकर के शुरुआती जीवन से लेकर उनके विदेश में जाकर शिक्षा प्राप्त करना व उनके द्वारा लिखी गई कालजयी पुस्तक “१८५७ का स्वातंत्र्य समर" की प्रेरणा सावरकर जी को कैसे मिली, इस भाग में संक्षिप्त रूप से कथात्मक उपन्यास शैली में लिखा गया है।

पुस्तक पहले पृष्ठ से लेकर आखिरी तक पाठक को बांधकर रखने में सफल है। क्रांतिदूतों व उनके गुरूओं के आपस में संवादमय तरीकें से यहां वीर सावरकर जी के क्रांतिकारी जीवन पर प्रकाश डाला गया है। वे कौन कौन से प्रेरणास्रोत व कारण थे, जिसके कारण विनायक दामोदर सावरकर से “वीर सावरकर” बने। इन सब ऐतिहासिक संघर्षों भरें पलों को लेखक ने बेहद खूबसूरत तरीक़े से मित्रमेला भाग में लिखा है। यहां हर क्रांतिकारी घटना का स्पष्ट संदर्भ भी दिया गया है और उसे छोटे छोटे अध्यायों के माध्यम से पाठकों के सामने रखा है। ये अध्याय स्वतंत्रत रूप में भी पूर्ण है। पुस्तक को किसी भी अध्याय से पढ़ा जा सकता है। मुश्किल से 120 पृष्ठ की क्रांतिदूत शृंखला का यह भाग धैर्य से सिर्फ़ तीन घंटे में पढ़ा जा सकता है।

२१ छोटे छोटे अध्यायों में इस भाग को लिखा गया है। हर अध्याय के बाद पाठक की रूची क्रांतिकारियों की जीवन गाथा को पढ़ने के लिए ओर बढ़ती जाती है। यह भाग सामान्य पाठक का इतिहास विषय में रूची पैदा करता है। वीर सावरकर को इस भाग में पढ़कर उनके जीवन के बारे में ओर जानने व पढ़ने का मन होता है। साथ ही स्वतंत्रता संग्राम के ऐतिहासिक संघर्षों से पाठक यहां रूबरू होता है। कैसे महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव से लंदन तक वीर सावरकर क्रांतिदूतों की एक महान सेना खड़ी कर देते हैं। और इस सबके के पीछे उनके व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों को सुंदरता व रोचकता के साथ इस भाग में लेखक ने रचा है।

इस भाग को पढ़ते हुए पाठक वीर सावरकर के विशाल व्यक्तित्व के निर्माण के बारे में समझ पाऐगा। वीर सावरकर की जीवन गाथा वर्तमान युवा पीढ़ी के लिए जानना व समझना बहुत जरुरी है, यह कार्य इस भाग को पढ़ने से आसानी से हो सकता है। वीर सावरकर के साथ ही इस भाग में श्याम जी वर्मा, चापेकर बंधु, लोकमान्य तिलक, मदनलाल ढींगरा, लाला हरदयाल, वासुदेव, रानाडे, साठे, महादेव, बालकृष्ण आदि महान क्रांतिदूतों के जीवन पर भी प्रकाश डाला गया है। कैसे वीर सावरकर की सहायता कई क्रांतिदूतों ने की व उन्हें भारत की स्वतंत्रता के लक्ष्य पर आगे बढ़ने के लिए कौन कौन से संघर्ष व त्याग करने पड़े, यह सब आप इस भाग में संक्षिप्त रूप में पढ़ सकते हैं।

#मित्रमेला वीर सावरकर के द्वारा बनाया गया संगठन था। जो कि विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक व देशभक्ति से संबंधित आयोजन करता था। इसी के द्वारा सर्वप्रथम वीर सावरकर ने राष्ट्रवाद की अलख जगाई थी। आगे चलकर इस संगठन से कई महान क्रांतिदूत जुड़ते गए। इस भाग में यह सब रोचकता से कहा गया है। इस भाग में “अभिनय भारत संगठन" पर भी चर्चा की गई है।इसकी प्रेरणा व इसके ऐतिहासिक महत्व पर भी प्रकाश डाला गया है। इस भाग में मुख्यतः १९०० से १९२० के स्वतंत्रता संग्राम पर चर्चा की गई है व साथ ही उस समय में अंग्रेजों की नीति व शासन पर तीखी आलोचना के माध्यम से पाठकों के सामने बहुत सी बातें यहां रखी गई है। गांधी व नेहरू की कथनी व करनी पर भी क्रांतिदूतों को उनके शिक्षक इस भाग में बहुत सी बातें स्पष्टता से बताते हैं। पर इस भाग में मुख्य नायक वीर सावरकर ही है व उनके चमत्कारी व्यक्तित्व पर बहुत ही पठनीय भाषा व भाव के साथ लिखा गया है। यहां एक अध्याय विशेष तौर पर श्याम जी वर्मा के जीवन पर व उनके क्रांतिकारी कार्यों पर प्रकाश डालता है। यहां लेखक ने श्याम जी के जीवन पर विशेष प्रकाश इसलिए भी डाला है कि वीर सावरकर के कृतित्व व व्यक्तित्व निर्माण में उनका बड़ा योगदान रहा था। लंदन में स्थिति उस समय के दो महत्वपूर्ण स्थान इंडिया हाऊस व इंडिया आफिस पर भी लेखक ने यहां रोचक बातें रखी है। और कैसे ये स्थान क्रांतिदूतों के लिए महत्वपूर्ण बने। यह सब पढ़ना सामान्य पाठक के लिए रूचिकर, स्वतंत्रता संग्राम के लिए जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला व प्रेरणादायक है।

एक बार फिर इस शृंखला के इस भाग को पढ़कर भी इन महान क्रांतिदूतों की जीवन गाथा जानने की जिज्ञासा बढ़ती जाती है। उस समय विदेश में पढ़ रहे भारतीय युवा कैसे वीर सावरकर के कहने पर अपना बना बनाया करियर छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं। यह सब वर्तमान भारतीय युवा पीढ़ी को जानना जरूरी है।

“अर्धसत्य” अध्याय में गांधी व नेहरू की कथनी व करनी पर तिखी आलोचना की गई है व पाठकों के सामने तथ्यों सहित इनके कृतित्व पर संक्षिप्त प्रकाश डाला गया है। उस समय श्याम जी वर्मा व वीर सावरकर का कद स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में गांधी व नेहरू से बड़ा था। बाद के इतिहासकारों ने कैसे आम जनमानस से इन महान क्रांतिदूतों को अलग कर दिया, यह समझना इस भाग को पढ़कर आसानी से समझा जा सकता है।

आखिरी के अध्यायों में वीर सावरकर को “१८५७ का स्वातंत्र्य समर" पुस्तक लिखने व समझने की प्रेरणा कैसे मिली यह पढ़ना रूचिकर व प्रेरणादायक है। साथ ही इस पुस्तक को लिखने के लिए उन्होंने तथ्यों की सत्यता के तह में जाकर कैसे एक कालजयी पुस्तक लिखी व भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महत्वपूर्ण व बड़े अध्याय को नष्ट होने से बचा लिया। और कितने ही क्रांतिदूतों को स्वतंत्रता के लिए एक बड़ा हथियार इस पुस्तक के माध्यम से दिया। इस पुस्तक को लिखने में लंदन के इंडिया आफिस में पदस्थ मुखर्जी साहब ने सावकार जी का विशेष सहयोग किया था। इंडिया आफिस में संग्रहित दस्तावेजों के आधार पर वीर सावरकर ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक चमत्कार सा कर दिया था। “इतिहास से नया इतिहास रचने की चमत्कारी कला में वीर सावरकर सबके गुरू बनकर विश्व पटल पर छा गए थे।” अंग्रेज उनके इस चमत्कारी व्यक्तित्व से अब चीढ़ने व सर पिटने लगे थे।

अंत में इतना ही कह सकता हूँ कि क्रांतिदूत की शृंखला इस भाग को पढ़ने पर वर्तमान युवा पीढ़ी जरूर भारतीय स्वतंत्रता समर के इतिहास को विस्तार से पढ़ने के लिए प्रेरित होगी व साथ ही राष्ट्रवाद की ओर प्रेरित होगी। भाग-०३ मित्रमेला में वीर सावरकर के जीवन पर ओर ज्यादा लिखा जाता तो ठीक रहता। आशा है अगले भाग में उनपर विस्तार से लिखा जाऐगा। यह भाग इतिहास को जानने के लिए एक नवीन दस्तावेज बन सकता है। इतिहास के नये लेखक व छात्रों के लिए यह शृंखला नया दृष्टिकोण व नवीन आयाम लेकर आई है। इन सभी कारणों के आधार पर भी शृंखला के इस भाग-०३ मित्रमेला को पढ़ना उचित रहेगा।

#समीक्षा 

पुस्तक : क्रांतिदूत (भाग-३) मित्रमेला
लेखक: डॉ. मनीष श्रीवास्तव
प्रकाशक : सर्व भाषा ट्रस्ट
मूल्य : 249


समीक्षक
भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
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मोब. 9926476410
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