Friday, April 30, 2021

कवि पर व्यंग्यकार होने का आरोप हैं !

 कवि पर व्यंग्यकार होने का आरोप हैं !


कवि कुछ वर्षों पहले तक के समय में सिर्फ़ कविता ही लिखता-पढ़ता था। अपने अच्छे दिनों को प्रेम व श्रृंगार रस के माध्यम से काव्य में पिरोया करता रहता था। कवि जैसे जैसे दुनिया जहान के झंझटों में उतरता गया, उसके कवि ने उससे मुख मोड़ लिया ! कहाँ वह प्रकृति कुमार जैसी बातें करता था और अब उसकी बातों में विकार आने लगे हैं। कवि अब न जाने कौन-सी ऊलटी-सीधी, उलजलूल, उलझी, तिखी-तिरछी-तेड़ी नजर, उलटबांसी, कटाक्ष, हास्यरंजनी, नश्तर-पस्तर, अधबीच वाली बातें करने लगा है ! कवि के साथियों का उसपर आरोप है कि वह व्यंग्यकार हो गया है ! कवि जब कभी कवि था ! तो क्या गजब की मन की बातें करता था ! अपनी काव्य रचनाओं से मंच सजा-मचा देता था। ओर अब देखों ! अपने मन की बात से हटकर जन-जन की बात करता है !



लेकिन कवि को स्वंय पता नहीं है कि वह क्या कर रहा है। वह तो अब भी अपने अच्छे दिनों को ही याद करके दिन काट रहा है। कॉलेज के दिनों में कवि बैक-बेंचर था। अब वह मतदाता के तौर पर मतदान केंद्र की पंक्ति में वोट बैंक की तौर पर खड़ा है। कहीं रेलवे स्टेशन की लाईन में खड़ा है। तो कहीं सरकारी कार्यालय के बाबूजी की कुर्सी के सामने मुँह लटकाए खड़ा है। देखो, “कवि बैक-बेंचर से आगे बढ़कर मतदाता पंक्ति में खड़ा आम आदमी बन गया है।” वह अब कविता नहीं लिखता है। लिखे भी कैसे, उसके पीछे घर के खर्चों के तमाम बिल जो पड़े हैं। कवि से उसके साथी कहते हैं कि वह सरकार की आलोचना क्यों करता है ? कवि का कहना है कि उसने किसी सरकार के बारे में कुछ नहीं कहा है। वह तो अधिकांश दिन घर पर बैठकर पकोड़े तल रहा है। और अपनी ही सरकार अपनी ही पत्नी का हाथ बटा रहा है।

कवि पर आरोप है कि वह सरकारी कर्मचारियों की कथनी और करनी की चिकनी-चुपड़ी बातें करता है। कवि कविता को छोड़कर व्यंग्य की पगडण्डी पकड़ लिया है ! प्रकृति का वर्णन करते करते, वह सामाजिक-राजनीतिक विकृति की चर्चा कर रहा है। उसे किसने अपना क्षेत्र बदलने की आज्ञा दी ? उसपर आरोप है कि उसके ही कारण कविता के रसिक कम होते जा रहे हैं। वह अब अपनी कविताएँ सिर्फ़ अपनी ही प्रेमिका बिकम् पत्नी को ही सुनाता है ! जिससे उसके पड़ोसी परेशान हैं। कहाँ कवि बहारों की बातें करता था। और अब देखों अंधे-बेहरौ को समझाने में लगा है।

कवि से सवाल पुछे जा रहे हैं कि उसे क्या पड़ी है ? जो हर दिन वह सोशल मीडिया पर नेताओं से प्रश्न कर रहा है। उसे क्या मतलब, जो वह शिक्षा व स्वास्थ्य की स्थिति पर कलम घसीटता है। “वह अपनी कविता क्यों नहीं लिखता है ?” क्या है जो उसे बात बात पर उकसाता है, जो वह इतना सब कुछ लिखता है ! अब तो उसके मित्र भी कहने लगे हैं कि वह पहाड़ो पर चढ़ जाये। वहाँ उसे कविता लिखने का सुहाना मौसम व सुंदर नजारें मिलेंगे। कवि कहां यहां अपना कवित्व बर्बाद कर रहा है। पर कवि ढीढ हो गया है ! कविता जैसे दिव्य मार्ग को छोड़कर कवि ऊबड़ खाबड़ व्यंग्य पगडंडी पर चल निकला है ! यह अब आरोप ही नहीं, धीरे धीरे सिद्ध भी हो रहा है कि वह जो कवि था ! वह अब कुछ भी उलजलूल, परदे के पीछे की छीपी बातों को लिखकर व्यंग्यकार जैसा कुछ हो गया है ! ऐसे ही बेचारे कवि पर कभी दुष्यंत कुमार जी ने कहा था:-
मेरे दिल पे हाथ रक्खो, मेरी बेबसी को समझो,
मैं इधर से बन रहा हूँ, मैं इधर से ढह रहा हूँ।




©भूपेन्द्र भारतीय
हरिभूमि समाचार पत्र में प्रकाशित।

Friday, April 23, 2021

कवि की फोटोजेनिक जनसेवा....!!


   कवि जनसेवा में ही अपने जीवन को सार्थक समझता है। ‛कविता भले कैसी हो, कवि का अखबार में फोटो अच्छा छपता रहे।’ कवि जब भी समाज को कुछ देता हैं तो फोटो खेंचने वालें को पहले आगे करता है। कवि का फोटोग्राफर आधी रात को भी तैयार रहता है। इधर कवि ने हाथ ऊंचा करके “अपनी जनवादी-कविता” की पंक्ति श्रोताओं की ओर फेकी उधर फोटोग्राफर फोटो के लिए लपका। वर्तमान में जनता को जनसेवा के नाम पर कुछ दान में दो ओर फोटोशूट न हो फिर कैसा दान ! ओर फिर अगले दिन अखबार में यह सब न छपे तो दान करना मानों व्यर्थ सा लगता है !


जब जब देश दुनिया में संकट की घंटी बजतीं हैं कवि अपने फोटोग्राफर को साथ लेकर दीन दुखियों के बीच पहुंच जाता हैं। ‛कवि से दुख देखा नहीं जाता हैं !’ शायद इसलिए ही बिरहा व करुण रस कवि के प्रिय रस है। अब देखो न कोरोना काल में कवि ही तो हर जगह बढ़ चढ़कर मदद कर रहा है। किसी को फिरि का मास्क पहना रहा है, तो किसी को दो किलों अनाज दे रहा है। वहीं हर दिन फेसबुक के माध्यम से अपनी जनवादी कविताओं द्वारा जनता को क्वारेंटाईन कर रहा है। कभी कभी ट्वीट करके आम आदमी की पीड़ा को सेनेटाईज कर रहा है ! लोगों की मदद करते हुए कैसी-कैसी मनोहर फोटो कवि की अखबार, फेसबुक, टीवी, ट्विटर पर आ रही है। कवि इस महामारी में मास्क, दवाईयां, आक्सीजन सिलेंडर आदि बांटकर डॉक्टर व सरकार से भी बड़ा काम कर रहा है। कवि ने कोरोना टीका लगाया तो फोटोशूट करवाया, ओर क्या ही गजब फोटो आया ! ऐसा फोटोशूट तो कवि का अपनी शादी में भी नहीं हुआ था। “ऐसा लगता है कि कवि ने अपनी फोटो से सबकुछ लाकडाउनमय् कर दिया है।”

जब भी कवि चौराहे पर खड़ा होकर बगैर मास्क वालों का चालान काटता है तो फोटो में चालान दिखे या न दिखे पर कवि का फोटो मुस्कुराते हुए आ जाता है। कवि को जनसेवा में कोरोना का खतरा दिखता है पर व्यापार-धंधा करते समय कोरोना-वोरोना कोई संक्रमण का डर नहीं लगता है। कवि राजनीतिक रैलियों में फोटोशूट करवाये बगैर नहीं रह सकता है। कवि को पूरा विश्वास है कि अपनी कविताओं के माध्यम से की गई राजनीतिक भीड़ से कोरोना समाप्त हो जायेगा। कवि को लगता है कि हर चौराहे पर उसके फोटो का बड़ा सा कटआऊट होना चाहिए। जिससे जनता में उसके सक्रिय होने का भ्रम बना रहे व कोरोना का कहर अपने आप कम हो जाए। ‛कवि आपदा में ही अपने फोटोस् से अपनी सफलता का अवसर खोज रहा है।’

कवि के इस फोटोजेनिक कर्मकांड व जनसेवा का असर हर ओर हो रहा है ! कभी वह कोविड सेंटर में दवाई व आक्सीजन सिलेंडर दान करते हुए फोटो खींचा रहा है तो कभी मुक्तिधाम में मुर्दों के साथ विडियों बना रहा है। कवि अपने मीडिया साथियों के साथ चप्पे चप्पे पर डटा है। कवि के फोटो में बस कोरोना विषाणु ही नहीं आ रहे है नहीं तो कवि उसे भी अपनी कविता से काल-कवलित कर दे। “कवि ने मानव संवेदना पर महाकाव्य लिख दिया है!”

कवि के घर वाले परेशान हैं, कही कवि जनसेवा में कोरोना संक्रमित न हो जाये। वैसे कवि के कवित्व की प्रतिरोधक क्षमता इतनी अच्छी है कि उसने बड़े-बड़े कविता मंच बैठा दीए है। ये छोटा मोटा संकट उसके कालजयी कवित्व का क्या बिगाड़ लेगा ! कवि के घर वालों से कहना चाहता हूँ कि वे कोई भी फिक्र न करें। कवि अपनी कविताओं के साथ फोटो खिंचवाते हुए जनसेवा में लगा हुआ है।

                           (ईमेज गूगल से साभार)

©भूपेन्द्र भारतीय
२०५, प्रगति नगर, सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(४५५११८)
मो. ९९२६४७६४१०

Tuesday, April 20, 2021

जन-जन के मर्यादा पुरुषोत्तम “श्रीराम”

 


“राम, तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है।
कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है।”
कवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कालजयी रचना ‛साकेत’ के शुरुआत में ही ऊपर लिखी पंक्तियों से मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के चरित(चरित्र) की महिमा को स्पष्ट कर दिया। और इसमें कोई अतिश्योक्ति भी नहीं कि श्रीराम ने मानव के तौर पर उच्च आदर्शों को बखुबी ऊँचा उठाया, जो आजतक जीवन जीने के श्रेष्ठ मूल्य है।


महाप्राण निराला की कालजयी कविता “राम की शक्ति पूजा” में श्रीराम के पुरूष से पुरूषोत्तम बनने का वर्णन हैं। इस लंबी कविता में निराला ने राम को उनकी परंपरागत दिव्यता के महाकाश से उतार कर एक साधारण मानव के धरातल पर खड़ा कर दिया हैं, जो थकता भी है, टूटता भी है और जिसके मन में जय एवं पराजय का भीषण द्वन्द्व भी चलता है। निराला ने ‛जिस तरह से "राम की शक्ति पूजा" में राम के मानवीय रूप को दिखाया है वो पहले कभी देखने को नहीं मिला था। वाल्मीकि, तुलसी, कम्बन आदि की रामायण से अलग यहां पर राम डरते भी हैं घबराते भी हैं और रोते भी हैं। राम की शक्ति पूजा राम के मानवीय रूप का दर्पण हैं।’
इसीलिए ही अंत में निराला जी इस नवीन व आदर्श व्यक्तित्व के लिए कहते हैं:-
"होगी जय, होगी जय, हे पुरूषोत्तम नवीन
कह महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन।''


भारत में बड़े-बड़े महापुरुष तथा ऋषि-मुनि हुए हैं किंतु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के प्रति आस्था रखने वाले लोगों की संख्या इतने युगों के बीत जाने के बाद भी कम नहीं हुई और न ही उनकी मान्यता में कोई कमी आई है। यदि इसके कारणों पर विचार करें तो यह पता चलता हैं कि श्रीराम का जीवन कुछ इस तरह भारत के जन-जन के हृदय पटल पर अंकित हो गया हैं, जिसे काल की कोई अवधि मिटा नहीं सकती। इस लिए देश के लोग श्रीराम को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहते हैं। अर्थात वह मनुष्य जो मर्यादा बना सकता है। भगवान राम उसकी अंतिम सीमा थे। वह पुरुष भी उत्तम थे और उनकी मर्यादाएं भी उत्तम थीं। उन्होंने मानव मात्र के लिए मर्यादा पालन का जो आदर्श प्रस्तुत किया वह संसार के इतिहास में कहीं ओर नहीं मिल सकता।

भगवान श्रीराम जन-जन के नायक हैं। उन्होंने पापियों के भय से त्रस्त जन समूह को एकत्रित कर ही बुराई का अंत किया और राम राज्य को स्थापित किया। श्रीराम सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे। केवट से लेकर शबरी, जामवंत, सुग्रीव, ऋषि-मुनि सभी के बीच रहे। सबके बीच रहकर मानव मूल्यों का निर्माण किया। जनमानस में कोई भेदभाव नहीं किया। सर्वप्रथम राज्य की प्रजा का ध्यान रखा।

दरअसल श्रीराम के लोकनायक चरित्र ने जाति, धर्म और संप्रदाय की संकीर्ण सीमाओं को लांघ कर जन-जन को अनुप्राणित किया। भारत में ही नहीं, दुनिया में श्रीराम अत्यंत पूज्यनीय हैं और आदर्श पुरुष हैं। थाईलैंड, इंडोनेशिया, श्रीलंका, नेपाल, बर्मा आदि कई देशों में भी श्रीराम आदर्श के रूप में पूजे जाते हैं। वे मानवीय आत्मा की विजय के प्रतीक महापुरुष हैं, जिन्होंने धर्म एवं सत्य की स्थापना करने के लिये अधर्म एवं अत्याचार को ललकारा। इस तरह वे अंधेरों में उजालों, असत्य पर सत्य, बुराई पर अच्छाई के प्रतीक बने। और इसलिए ही बाबा तुलसीदास ने ‛श्रीरामचरितमानस’ में बहुत सुंदर कहा हैं:-
“हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥”

ऐसे ही गुणों के सागर प्रभु श्रीराम की महिमा के संबंध में कबीरदासजी ने भी बहुत ही सुंदर पंक्तियां कही हैं ;-
“सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥”


सबसे बड़ी बात यह है कि वह एक आदर्श राजा थे। आज भी लोग रामराज्य की कामना करते हैं। राज्य तो था ही राजा के लिए किंतु श्रीराम ने राजा का जो आदर्श प्रस्तुत किया उसे आज तक कोई भुला नहीं सकता। आज समस्त संसार राम राज्य की कामना और अभिलाषा रखता है। महात्मा गांधी भी अपने देश में राम राज्य की स्थापना करना चाहते थे। 

श्रीराम ने मर्यादा के पालन के लिए राज्य, मित्र, माता-पिता, यहां तक कि पत्नी का भी साथ छोड़ा। इनका परिवार, आदर्श भारतीय परिवार का प्रतिनिधित्व करता है। श्रीराम रघुकुल में जन्मे थे, जिसकी परम्परा “प्रान जाहुँ परु बचनु न जाई” की थी। श्रीराम हमारी अनंत मर्यादाओं के प्रतीक पुरुष हैं इसलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम के नाम से पुकारा जाता है। हमारी संस्कृति में ऐसा कोई दूसरा चरित्र नहीं है जो श्रीराम के समान मर्यादित, धीर-वीर, न्यायप्रिय और प्रशांत हो। इस एक विराट चरित्र को गढ़ने में भारत की सहस्रों प्रतिभाओं ने कई सहस्राब्दियों तक अपनी मेधा का योगदान दिया। आदि कवि वाल्मीकि से लेकर महाकवि भास, कालिदास, भवभूति और तुलसीदास तक न जाने कितनों ने अपनी-अपनी लेखनी और प्रतिभा से इस चरित्र को संवारा। वाल्मीकि के श्रीराम लौकिक जीवन की मर्यादाओं का निर्वाह करने वाले वीर पुरुष है। उन्होंने लंका के अत्याचारी राजा रावण का वध किया और लोक धर्म की पुनः स्थापना की। लेकिन वे नील गगन में दैदीप्यमान सूर्य के समान दाहक शक्ति से संपन्न, महासमुद्र की तरह गंभीर तथा पृथ्वी की तरह क्षमाशील भी हैं।


भारतवर्ष में देहात हो या कस्बा,नगर हो अथवा महानगर लगभग हर किसी के मन में राम रचे,बसे हुए है। आज सामान्य रूप से मिलने पर भी अधिकांश लोग एक-दूसरे को ‘राम राम जी’ या ‘जय सियराम जी की’ रुपी अभिवादन करना नहीं भूलते हैं। गांवों में तो अब भी अक्सर यह कहा जाता है कि “जहां राम वहां गाम(गांव)”। भारत के हर गाँव में श्रीराम को आदर्श पुरूष माना जाता है, श्रीराम के सबसे प्रिय भक्त हनुमानजी का हर गाँव के खेड़ापति के रूप में सर्वोच्च स्थान है। जहां श्रीराम है वहीं दुख हरता हनुमान हैं। भारतीय लोकमानस में राम नाम व रामराज्य की जड़ें बहुत गहराई तक हैं। और अब जब ५०० वर्षों के बाद अयोध्या में श्रीराम का भव्य मंदिर बनने जा रहा है तो हर “राम भक्त” के लिए यह ऐतिहासिक क्षण कोरोना जैसी महामारी में भी सुखद संस्कृति व स्वास्थ्य की संजीवनी बूटी रूपी हैं।

‛राम नाम’ की महिमा ऐसे है कि इसे पत्थर पर भी लिख दिया जाए तो वह पत्थर तैरने लगता है और वही श्रीराम जी पत्थर को स्पर्श कर दे तो वह प्राणवान होकर अहिल्या हो जाए। इसलिए राम की महिमा अपरंपार है। लेकिन आधुनिक विज्ञानवादी व भौतिकवादीयों को राम चरित्र कम ही समझ आता है। समझ आये भी कैसे, इन तथाकथित नास्तिकों ने पाश्चात्य संस्कृति के चश्मे जो पहन रखे हैं। ऐसे लोगों के लिए इतना ही कह सकते हैं कि "जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।"

श्रीराम ने अपनी श्रेष्ठ मर्यादाओं को सर्वदा सर्वोच्च स्थान दिया। उनका पालन किया और उसी कारण से वे ‘मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम’ कहलाए। आज भी भारतवर्ष में जनमानस द्वारा अपने जीवन में उन श्रेष्ठ शिक्षाप्रद मर्यादाओं की यथासंभव अनुपालना की अपेक्षा की जाती हैं।




भूपेन्द्र भारतीय
२०५, प्रगति नगर, सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(४५५११८)
मो. ९९२६४७६४१०

संदर्भ:-
१. कविता कोश गूगल से
२. रामचरितमानस, तुलसीदास गीताप्रेस
३. साकेत, मैथिलीशरण गुप्त(काव्य )
४. राम की शक्ति पूजा, सूर्यकांत त्रिपाठी ‛निराला’(काव्य)
५. गूगल व विकिपीडिया के स्त्रोत से

टीका-उत्सव में टीका-टिप्पणी....!!

 मैं सामान्यतः टीका-टिप्पणी से बचता हूँ। ओर जब कोरोना का टीका लग रहा है तो किसी भी तरह की टिप्पणी नहीं करना चाहिए। चुपचाप टिका लगा लो और अपनी फटी बनियान के साथ टीका लगाते हुए फोटो खींचाकर घर बैठो ! वैसे भी मेरे जैसे घरघुस्सू टिप्णीकार की टीका टिप्पणी से क्या होने वाला है ! ज्यादा से ज्यादा संपादक की कृपा से स्वतंत्र टिप्णीकार मान लिया जाऊंगा। या फिर जबरन की टिप्पणी पर किसी तरह का साहित्यिक टूंटा भी खड़ा हो सकता है।


कोरोना कर्फ्यू में घर पर निवरे बैठे-बैठे फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर किसी मामलें में टिप्पणी करने से अपने आप को रोके रखा हूँ। लाकडाउन का कोई कितना ही विरोध करें मैं तो चूप बैठने में ही भला समझ रहा हूँ। कोई रैली-रैला-खेला कुछ भी करे मुझे तो अपने ही कमरे में टीका लगाकर बैठना है। टीवी चैनलों के उकसावे में नहीं आऊंगा। भले कितने ही मजदूरों का रैला घर के पास से निकल रहा हो। अपनी खिड़की में काढ़ा पीते हुए भी किसी भी तरह की टिप्पणी नहीं करना है।

किसी भी राज्य में चुनाव हो, कहीं भी कैसा भी महोत्सव हो, मुझे तो बस अपने घर पर टीका महोत्सव का आनंद लेना है ! कोई कैसा भी ट्वीट करें, किसी भी बुद्धिजीवी के झांसे में नहीं आना है। न ही कोई संपादकीय लिखना है न ही कोई व्यंग्य व न कोरोना-लाकडाउन पर कोई कविता-वविता लिखना है। न ही व्यंग्यकारों से सरकार व लालफीताशाही की कोरोना नीति पर बात करना है। नोट व वोट के चक्कर में कोई टीका टिप्पणी बिल्कुल नहीं करना है। सिर्फ़ नोटा की तरह निष्पक्ष रहना है।


भले ही कोई भला मानस कैसे भी व्यंजन बनाकर फेसबुक, ट्विटर पर डाले, मुझे कोई भी जवाबी टिप्पणी नहीं करना है। अपने कमरे में रूखी सूखी खाकर काम चलाना हैं। जरूरी काम से यदि घर से निकला भी तो सभ्य नागरिकों को मास्क के बारे में कोई ज्ञान नहीं देना है। किसी भी तरह का काढ़ा पत्नी बनाकर लाये तो सोशल मीडिया पर साझा नहीं करना है, बस चुपचाप बगैर किसी चूचपड़ के गटक जाना है। मेरी किसी भी पोस्ट पर कोई कैसी भी टीका टिप्पणी करें, मुझे साईलेंट मोड में रहना है।

सरकार कब तक कोरोना कर्फ्यू रखेगी, आगे बढ़ायेगी, रात का लाकडाउन है या सप्ताह में दो दिन जैसी छद्म टिप्पणियां नहीं करना है। टीका लगने पर क्या लक्षण आते हैं उसपर भी कोई लक्षणात्मक टिप्पणी नहीं करना है। प्रतिदिन कोरोना के कैसे भी और किस तरह के भी कोरोना पोजिटिव-नेगेटिव आकड़े आये, मुझे अपने आप को बगैर किसी टीका टिप्पणी के सकारात्मक रखना है ! ओर अंत में जब इतनी सब बातें अपने आप से ही कहने के लिए टंकित कर रहा हूँ तो फिर अन्य कोई टीका टिप्पणी नहीं करना चाहता हूँ।


भूपेन्द्र भारतीय

Friday, April 2, 2021

मन लगने लगा यार फकीरी में....!!

 दूसरी लहर में फकीरी महोत्सव••••!!


            दैनिक ट्रिब्यूनल समाचार पत्र में प्रकाशित


फकीरी बड़ी काम की चीज है। इसे कोई सरकार नहीं हिला सकती है। यदि जनता ने ठान लिया है कि हम तो ठहरे फकीर, हमको मजा है सबुरी में ! फिर सरकार बनाते रहे बड़े बड़े बजट ! कोई आर्थिक क्रांति नहीं होगी। ओर मैं तो कहता हूँ कि अब जनता को फकीरी के मार्ग पर अग्रसर हो ही जाना चाहिए। वोट मांगने की यात्रा के इस अमृत महोत्सव में जनता को एक फकीरी महोत्सव की भी शुरुआत कर ही देना चाहिए। क्या रखा है बजट की चर्चा में ! आप तो सदन का बहिर्गमन करते रहो। जनता फकीरी में जीना सीख लेगी। आपकी यात्रा का बजट कम नहीं होना चाहिए। वोट लेने के बाद आपकी मगरूरी में कोई कमी नहीं होना चाहिए !

मेरे जैसे साधारण लेखक ने तो फकीरी में मन लगाना सीख लिया है। “मन लागो यार फकीरी में” भजन शुरू कर दिया है। कुछ ज्ञानी पेट पर प्रश्न करते हैं कि पेट कैसे भरेगें ? पेट का क्या है ! सोशल मीडिया है ही। भर लेगें लाईक-कमेंट के सहारे। वादों की ढकारें खाते रहो ! कम से कम फकीरी के माध्यम से हर माह की आर्थिक चिंता से तो बच ही जाऐंगे ! फकीरी से आशा तो है कि इससे ही व्यक्ति ‛आत्मनिर्भर’ बना जा सकता है! निकल चलों फकीरी की राह पर। वैसे भी आजकल आंदोलनजीवी है ही हर चौराहे पर ! खाने पीने का जुगाड़ तो धरने-आंदोलनजीवीयों के माध्यम से हो ही जाऐगा। और ज्यादा नहीं तो फकीर बनकर चुनावी राज्य में तो जाया ही जा सकता है। पेट व कोरोना की चिंता से चुनावी राज्य में फकीरी अच्छे से कट सकती हैं।

क्या रखा है अमीरी में, कबीर साहब खुद कह गये है। कुछ नी रखा है अमीरी में ! दिनरात आखिर कब तक हर चीज की फिक्र करो। फकीरी में मजा ही अलग है। फकीरी मोड में रहकर किसी को भी गरीया दो तो कोई बुरा नहीं मानते। वैसे आप सच को सच कहोगे तो हर मोर्चा आपके खिलाफ हो जाऐगा। फाईलों में आपके नाम के आगे “लाल निशान” लग जाऐगा। हो सकता है फकीरी अंदाज़ में आप सत्ता के शिखर तक पहुंच जाओ !बस इतना करना होगा कि निस्वार्थ भाव से राजनीति करते रहो !

ऐसा लगने लगा है कि फकीरी वह संजीवनी बूटी है जिससे रामराज्य प्राप्त किया जा सकता है ! कोरोना जैसी महामारी में हमने फकीरी के सिवाय किया ही क्या ! फाकामस्ती में पड़े रहे और रोटी तोड़ते रहे। बेचारी सरकार ने हमारी कितनी खिदमत की ! और अब देखो हमारा आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए वैक्सीन ले आई। इस दूसरी लहर के आगमन पर सरकार हमें एक ओर अवसर देना चाहती है फकीरी के लिए। वैक्सीन लगाओ ओर फकीरी बुस्ट करो !

क्या रखा है फोकट की होशियारी में ! भेले हो जाओ फकीरों की टोली में। आत्मनिर्भर तो बन ही जाओगे, साथ ही साथ आपका इम्यूनिटी अलग से बढ़ जाऐगा। फकीरों से कोई नेता ‛मत मांगने’ भी नहीं आता ! आप लोकतांत्रिक रूप से भी स्वतंत्र हो जाओगे। तो इतना सोच विचार क्यों कर रहे हैं? जल्दी से फकीरी के कपड़े सीला लो और निकल पड़ो तड़के ही फकीरी के पथ पर। भले ही कोई साथी मिले या न मिले “एकला चलो” के ध्येय मार्ग पर ही बढ़े चलो। क्योंकि फकीरी भी आजकल एकला चलों राजमार्ग पर चल पड़ी है।



भूपेन्द्र भारतीय

लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....

 लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....         शहडोल चुनावी दौरे पर कहाँ राहुल गांधी ने थोड़ा सा महुआ का फूल चख लिखा, उसका नशा भाजपा नेताओं की...