कोयल के बिगड़ते बोल....!!
गर्मी के तपन भरें दिनों में सुबह सुबह कोयल का कूकना सुनना बचपन से अच्छा लगता आ रहा है। बचपन में तो मैं कोयलों के कूक तान के साथ अपनी तान-ताल मिलाता था। किशोरावस्था तक कोयलों को कूकने के लिए उकसाता रहा। आपने भी कई बार किसी कोयल के मधुर स्वर के साथ तान मिलाई होगी। याद करें। अच्छा लगेगा। पहले कोयलों को सुनना बहुत अच्छा लगता था। उनके कू के साथ कू...ह...कू...ह...करना ओर भी बहुत अच्छा लगता था। भले ही वे कितनी ही काली हो। उनकी ब्लैक ब्यूटी देखकर भी मन के मयूर उछाले मारते थे। पहले गर्मियों में जब भी कोयल गाती थी, मन शीतल हो जाता था। हर कोई कहता था, तुमने सुना “कोयल कितना अच्छा बोल रही है।” उनके कूकने तक को हमारे समाज ने मीठी बोली कहा है। पहले कोई ऐसा नहीं कहता था कि कोयल कूक रही है, सब यही बोलते आ रहे हैं कि कोयल बोलती है। लेकिन इन दिनों कोयल का बोलना- बोलना ना रहा, कूकना ही होता जा रहा है। इस कूकने से मुझे क्या पता क्या हो जाता है ! आजकल जैसे ही किसी कोयल ने कूकना शुरू किया कि मेरे कान अब उस अजीब आवाज को सुनना ही नहीं चाहते। वे कर्णप्रिय ध्वनियां अब कानफोड़ू सी लगती हैं। ऐसा लगता है जैसे फिर कोई महाभारत होने ही वाली है !
ऐसा लगता है इन दिनों कोयलों ने भी अपना प्राकृतिक स्वभाव छोड़कर हर किसी की देखा देखी करना शुरू कर दिया है। उन्होंने अपने स्वरों को छोड़कर दूसरों के बेसुरे सुरों में सुर मिलाना शुरू कर दिया है। आधुनिक कोयलों ने कौओं के साथ कांव-कांव करना शुरू कर दिया है। भला कौआं कभी कोयल हो सकता है। लेकिन ना जाने क्यों कोयलें कौओं के जैसा बनना चाहती हैं ! दुनिया के बाहरी रंग को देखकर ही कोयलें उसे अपना सबकुछ मान बैठीं है। लगता है इन दिनों कोयलों को अपनी मधुर बोली व नैसर्गिक सौंदर्य से प्रेम नहीं रहा है। वे दूसरों के रंग में रंगना चाहती हैं। वे भी आभासी दुनिया के मोह में अपना रंग व स्वर बदल रही हैं।
हरिभूमि...।
उन्हें किसी ने यह भड़ दे दी है कि काला रंग तो खराब व अशुभ होता है ! जो कि उन्हें यह पता होना चाहिए कि श्याम रंग तो सबसे सुंदर व अद्भुत माना गया है। उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति ने उन्हें श्याम रंग में ढाला है। मधुर कंठ दिया है। फिर भी वे बेसुरों के सुर में सुर मिलाती है ! यह कौनसी मजबूरी है ? पहले उनकी मीठी बोली से आसपड़ोस का वातावरण शांतिप्रिय रहता था। अब तो सिवाय बर्तन बजने के, कोई अन्य आवाज आ ही नहीं रही हैं। टीवी-मोबाईल के माध्यम से दूसरों की नकल में उन्होंने अपनी मधुर कू...ह...कू...ह बोली को कांव-कांव में तब्दील कर लिया है! कहाँ पहले कोयल के बोलने पर बड़े बुजुर्ग उनके रोचक व सौंदर्यमय किस्से कहानियां सुनाते थे। और अब देखों तो हर कोई फट से कहने लगता है, “चुप रहो, तुम भी कहाँ उसकी बात कर रहे हो। फोकट में हंगामा हो जाऐगा।”
देखा जा रहा है बात बात में आजकल कोयलें झगड़ लेती हैं। उनकी कूकने की अतिश्योक्ति ने संगीत प्रेमियों के मन में द्वंद्व पैदा कर दिया है। कहाँ तो हर कोई कोयल की एक आवाज सुनकर उसकी बोली का आनंद लेते थे। और अब देखों तो अधिकांश के मन में यह द्वंद्व है कि यह कोई कोयल बोल रही है ! या फिर कोई कौआं कांव-कांव कर रहा है....!!
भूपेन्द्र भारतीय
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