Friday, April 15, 2022

कोयल के बिगड़ते बोल....!!

 कोयल के बिगड़ते बोल....!!

        

                        

गर्मी के तपन भरें दिनों में सुबह सुबह कोयल का कूकना सुनना बचपन से अच्छा लगता आ रहा है। बचपन में तो मैं कोयलों के कूक तान के साथ अपनी तान-ताल मिलाता था। किशोरावस्था तक कोयलों को कूकने के लिए उकसाता रहा। आपने भी कई बार किसी कोयल के मधुर स्वर के साथ तान मिलाई होगी। याद करें। अच्छा लगेगा। पहले कोयलों को सुनना बहुत अच्छा लगता था। उनके कू के साथ कू...ह...कू...ह...करना ओर भी बहुत अच्छा लगता था। भले ही वे कितनी ही काली हो। उनकी ब्लैक ब्यूटी देखकर भी मन के मयूर उछाले मारते थे। पहले गर्मियों में जब भी कोयल गाती थी, मन शीतल हो जाता था। हर कोई कहता था, तुमने सुना “कोयल कितना अच्छा बोल रही है।” उनके कूकने तक को हमारे समाज ने मीठी बोली कहा है। पहले कोई ऐसा नहीं कहता था कि कोयल कूक रही है, सब यही बोलते आ रहे हैं कि कोयल बोलती है। लेकिन इन दिनों कोयल का बोलना- बोलना ना रहा, कूकना ही होता जा रहा है। इस कूकने से मुझे क्या पता क्या हो जाता है ! आजकल जैसे ही किसी कोयल ने कूकना शुरू किया कि मेरे कान अब उस अजीब आवाज को सुनना ही नहीं चाहते। वे कर्णप्रिय ध्वनियां अब कानफोड़ू सी लगती हैं। ऐसा लगता है जैसे फिर कोई महाभारत होने ही वाली है !

ऐसा लगता है इन दिनों कोयलों ने भी अपना प्राकृतिक स्वभाव छोड़कर हर किसी की देखा देखी करना शुरू कर दिया है। उन्होंने अपने स्वरों को छोड़कर दूसरों के बेसुरे सुरों में सुर मिलाना शुरू कर दिया है। आधुनिक कोयलों ने कौओं के साथ कांव-कांव करना शुरू कर दिया है। भला कौआं कभी कोयल हो सकता है। लेकिन ना जाने क्यों कोयलें कौओं के जैसा बनना चाहती हैं ! दुनिया के बाहरी रंग को देखकर ही कोयलें उसे अपना सबकुछ मान बैठीं है। लगता है इन दिनों कोयलों को अपनी मधुर बोली व नैसर्गिक सौंदर्य से प्रेम नहीं रहा है। वे दूसरों के रंग में रंगना चाहती हैं। वे भी आभासी दुनिया के मोह में अपना रंग व स्वर बदल रही हैं।
         
                                हरिभूमि...।

उन्हें किसी ने यह भड़ दे दी है कि काला रंग तो खराब व अशुभ होता है ! जो कि उन्हें यह पता होना चाहिए कि श्याम रंग तो सबसे सुंदर व अद्भुत माना गया है। उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि प्रकृति ने उन्हें श्याम रंग में ढाला है। मधुर कंठ दिया है। फिर भी वे बेसुरों के सुर में सुर मिलाती है ! यह कौनसी मजबूरी है ? पहले उनकी मीठी बोली से आसपड़ोस का वातावरण शांतिप्रिय रहता था। अब तो सिवाय बर्तन बजने के, कोई अन्य आवाज आ ही नहीं रही हैं। टीवी-मोबाईल के माध्यम से दूसरों की नकल में उन्होंने अपनी मधुर कू...ह...कू...ह बोली को कांव-कांव में तब्दील कर लिया है! कहाँ पहले कोयल के बोलने पर बड़े बुजुर्ग उनके रोचक व सौंदर्यमय किस्से कहानियां सुनाते थे। और अब देखों तो हर कोई फट से कहने लगता है, “चुप रहो, तुम भी कहाँ उसकी बात कर रहे हो। फोकट में हंगामा हो जाऐगा।”
देखा जा रहा है बात बात में आजकल कोयलें झगड़ लेती हैं। उनकी कूकने की अतिश्योक्ति ने संगीत प्रेमियों के मन में द्वंद्व पैदा कर दिया है। कहाँ तो हर कोई कोयल की एक आवाज सुनकर उसकी बोली का आनंद लेते थे। और अब देखों तो अधिकांश के मन में यह द्वंद्व है कि यह कोई कोयल बोल रही है ! या फिर कोई कौआं कांव-कांव कर रहा है....!!


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
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आंचलिक उपन्यासों में एक नया उपन्यास;- “चाँदपुर की चंदा”

 आंचलिक उपन्यासों में एक नया उपन्यास;- “चाँदपुर की चंदा”

             



लंबे अंतराल के बाद हिन्दी का कोई नया उपन्यास पढ़ा। वह भी युवा लेखक का पहला उपन्यास। अतुल कुमार राय को सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर पढ़ता रहा हूँ। उनके ब्लॉग भी पढ़े। इस उपन्यास में भी भाषा सोशल मीडिया वाली ही है। ज्यादा साहित्यिक हिन्दी जैसा कुछ नहीं है। पर अपनी लोकभाषा को इस उपन्यास के माध्यम सुंदर प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास में ग्रामीण परिवेश को जीवंत रखने के लिए भाषा भी गाँव समाज की ही है। आंचलिक उपन्यासों की कड़ी में यह वर्तमान में पठनीय उपन्यास बन गया है। इस उपन्यास के शुरुआत में कई जगह पर लेखक श्रीलाल शुक्ल के “राग दरबारी” उपन्यास से जरूर प्रभावित नजर आते हैं। पर “चाँदपुर की चंदा” उपन्यास 21वीं सदी के पहले दशक के भारतीय ग्रामीण समाज की झलक दिखाता है। वैसे यह उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र के ग्रामीण जनजीवन की कहानी कहता है। लेकिन भारत के अधिकांश गाँवो की आज से दस वर्ष पहले की कहानी कहने में माना जा सकता है।
इस उपन्यास में हर दूसरे-चौथे पृष्ठ पर बॉलीवुड के गीतों के बोल आये हैं। वैसे लेखक मूलतः मन मिजाज व उच्च शिक्षा से संगीतकार है तो स्वाभाविक है कि गीत-फिल्मों की चर्चा तो उपन्यास में होगी ही। पर उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है पूर्वांचल समाज की संस्कृति, लोकगीत, भोजपुरी सिनेमा, ग्रामीण जीवन, अपनी बोली आदि को लेखक ने उपन्यास में बहुत ही सहज व सरल तरीकें से उतारा है। इसे पढ़ते हुए आंखों के सामने ग्रामीण भारत की झलक स्पष्ट होती रहती हैं। पीछले 10-15 वर्षों में ग्रामीण भारत बहुत बदल गया है। टीवी व मोबाइल ने पीछले दस वर्षों में बहुत कुछ बदल दिया है। आधुनिकता ने गांव के लोगों का पलायन बहुत बड़ी मात्रा में बड़ा दिया है। आजकल गाँव पहले के गाँवों जैसे नहीं रहे। वर्तमान में भारत की बड़ी आबादी पीछले 20 वर्षों से गाँव-कस्बों व शहरों के बीच की खाई में ही संतुलन बनाने में अपना जीवन खपा रही है। उपन्यास में कई जगह पर व्यंग्य, कटाक्ष के माध्यम से ग्रामीण भारत की विसंगतियों पर भी करारा प्रहार किया गया है। लोकमानस की सहज व सरल प्रवृत्तियों को भी उपन्यास में सुंदर ढंग से बताया गया है।
       

  

प्रेम पत्र व प्रेम प्रसंग की खुबसूरती को भी उपन्यास में बहुत रोचक तरीक़े से बताया है। उपन्यास में कई बार सहज ही व्यंग्य व हास्य का सुंदर मेल कराने में लेखक सफल हुए है। वर्तमान भारतीय समाज की विसंगतियों को भी लेखक ने अपने इस उपन्यास के माध्यम से छुआ है और तीखे प्रश्न भी उठाये हैं। विकास अब भी भारत के अंतिम नागरिक के पास पहुंच नहीं पाया है।
इस उपन्यास का ताना बाना प्रेम कहानी के माध्यम से ही बुना गया है। सदा से भारत की आत्मा गाँवों में ही बसती रही हैं। लेखक ने अपने इस उपन्यास में उसी आत्मा का सुंदर चित्रण किया है व साथ ही उसे सहेजने के लिए यह उपन्यास लाया गया है। लोक गीत, गाँवों में विभिन्न आयोजनों में गाने जाने वाले गीत, कहावतें, अपनी भाषा-बोली का संरक्षण भी इस उपन्यास के माध्यम से करने का सुंदर व सफल कार्य लेखक ने किया है।
लेखक अपने उपन्यास में यह बताने में सफल हुए है कि गाँवों में भी बहुत से दुख है लेकिन ग्रामीण समाज व उसकी जीवनशैली इन दुखों को एक साथ रहकर कम कर देती हैं। ग्रामीण जीवन में अब भी भाईचारा, एकता व स्नेह बचा है, जो कि यह शहरों में दिनोदिन लुप्त हो रहा है।

इस उपन्यास में 21वी सदी के पहले दशक के भारतीय ग्रामीण जीवन का संपूर्ण चित्रण करने में लेखक सफल हुए। आजादी के इतने वर्षों बाद भी गाँव मूलभूत सुविधाओं व विकास से दूर है। स्वास्थ्य की सेवाएं नगण्य है, गांव में ठेकेदारों ने सभी विभागों से सांठगांठ करके भवन तो बना दिये हैं लेकिन उनमें काम करने वाले कर्मचारी बहुत कम ही समय नजर आते हैं। राष्ट्रीय भाव की कमी अब भी है। इस उपन्यास के चाँदपुर में आई बाढ़ के बाद का नजारा भारत के ऐसे कितने ही गाँवों की बहुत कुछ सही स्थिति बताता है। बेटी होना ओर उसके बाद उसकी शिक्षा, घर से बाहर निकलना, विवाह, दहेज, आत्महत्या बहुत सी परेशानियां व कुरीतियां अब भी बहुत से गाँवों में यथावत बनी हुई है।
बच्चों के विवाह में अब भी उनकी पसंद नापसंद पर जरूरी प्रश्न उठाये गए हैं। लेखक ने यहां अपने पहले ही उपन्यास बहुत ही बेबाकी से सामाजिक-जातिगत बुराईयों पर प्रश्न उठाये हैं। वहीं बड़े बड़े लेखक जो 25-50 पुस्तकें लिखने का दावा करते हैं लेकिन उनकी कृतियों में अब भी आम आदमी की आवाज़ कहीं नहीं सुनाई देती। वे सिर्फ़ धरातल से कटी हुई कृतियां ही रही हैं ! उपन्यास चाँदपुर की चंदा गाँव के जीवन के माध्यम से ग्रामीण भारत की समस्याओं को पाठक के सामने रखने में बहुत हद तक सफल रहा है।

           


मंटू व चंदा का प्रेम व उनका प्रेम पत्र के माध्यम से संवाद पाठक को यह उपन्यास पढ़ने के लिए लालायित करता है। मेरे जैसा पाठक इस उपन्यास में बहुत बार हँसता, मंद-मंद मुस्कुराता, भावुक होता व चौंकता भी है। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि यह आंचलिक उपन्यासों में एक मसाला उपन्यास है। जिसमें आपको भारत की बड़ी आबादी के जीवन संघर्षों से संबंधित सबकुछ पढ़ने को मिलेगा। कुछ जगह लगता है कि थोड़ी जल्दबाज़ी में लिखा गया है, पर यह मेरा अपना मत हो सकता है।

आज की सोशल मीडिया पीढ़ी पत्रों की दुनिया के सौंदर्य को नहीं जानती हैं। और उसमें भी प्रेम पत्र का संसार तो बहुत ही निराला व सुंदर रहा है, उसकी यह पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती है। अतुल जी ने इस उपन्यास में प्रेम पत्र के माध्यम से इस उपन्यास को बहुत ही रोमांचकारी व पठनीय बना दिया है। आज मोबाइल युग ने प्रेम पत्रों की सुंदरता को हमसे छीन लिया है। शायद इसलिए ही आजकल प्रेम भी लंबे समय तक कहाँ टिकता है। रिचार्ज खत्म, प्रेम एक्पायर...!

अंत से पहले उपन्यास में आई आत्महत्याओं की घटनाओं ने जरूर कुछ चौंकाया और साथ ही उपन्यास को एक रोचक व हृदय स्पर्शी मोड़ पर जाकर इस प्रेम कहानी को जीवन रूपी नदियां से पार कराया। यहां उपन्यास के सार को ज्यादा विस्तार से बताना पाठकों के लिए रूची कम कर सकता है। हो सकता है उपन्यास का सारा रोमांच ही मेरी इस समीक्षा में खुल जाये, इसलिए अंत में एक बार फिर इतना ही कह सकता हूँ कि उपन्यास आंचलिक कथाशिल्प की दृष्टि से रोचक व पठनीय है। उपन्यासकार अपनी बात कहने में सफल हुए है। शुरुआत में जरूर कथा धीरे धीरे ओर इधर उधर हुई पर अंत भला तो सब भला। अपने पहले उपन्यास में ग्रामीण भारत की सच्चाई इतनी ईमानदारी व बेबाकी से रखना प्रशंसनीय है।
आखिर में इसी उपन्यास की पंक्तियां-“ देश के हर चाँदपुर में एक आप जैसा बाबा हो तो देश की चंदाएँ कभी रो नहीं सकती हैं। आपने जो मुझे दिया है, मैं उसका कई गुना चाँदपुर को लौटाने का वादा करती हूँ।” ये ही पंक्तियां इस उपन्यास का सार है और यहीं संदेश...
इससे इतना ही कहा जा सकता है कि उपन्यास में ग्रामीण लड़कियों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण बातें कही गई है और उनके अधिकारों के लिए एक बेहद सुंदर व आवश्यक उपन्यास को रचा गया है। उसके लिए उपन्यास के लेखक बधाई के पात्र है। साथ ही इस उपन्यास “चाँदपुर की चंदा” के लेखक अतुल कुमार राय से यह आशा की जाती है कि वे फिल्मी दुनिया की चकाचौंध से सामांजस्य स्थापित करते हुए व इसके तिलस्मी आकर्षण से बचते हुए, इससे भी अच्छा लेखन भविष्य में करते रहेंगे। ऐसी आशा व शुभकामनाएं दोनों....
इससे ज्यादा अभी इस उपन्यास पर कुछ कहना जल्दबाजी होगी, क्योंकि इस उपन्यास के एक ही पाठ में सारी बातें कहना अतिश्योक्ति होगी। आगे इस उपन्यास का पुनर्पाठ किया तो जरूर ओर भी इस पर लिखने की कोशिश करूँगा। यह सब एक पाठक के तौर पर ही लिख रहा हूँ, समीक्षा या आलोचना की दृष्टि से नहीं।


पुस्तक : चाँदपुर की चंदा
उपन्यासकार: अतुल कुमार राय
प्रकाशक : हिंद युग्म
मूल्य : 199



पाठक--- भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

Friday, April 8, 2022

जातिवाद के ताल में प्रश्न के कंकर....!!

 जातिवाद के ताल में प्रश्न के कंकर....!!

   

          इंदौर समाचार में....!!

देखो, मैं तुम्हें अपनी रिक्श पर जाति की मिटिंग में ले चल रहा हूँ। जाति के बाकि सदस्यों ने तो मना कर दिया था। कह रहे थे, यार उसे मत बुलाना। वह प्रश्न करता है ! जाति के भवन के लिए मांगे गए चंदे के हिसाब-किताब से संबंधित प्रश्न करता है ! मेरा मित्र लचकराम, फिर मुझसे कहने लगा देखो, तुम वहां अपनी जाति की मिटिंग में किसी तरह का प्रश्न मत करना। तुमने पिछली बार भी परिवारवाद से संबंधित प्रश्न पूछ लिया था। बड़े पटेल साहब को बुरा लग गया था। बाद में मुझे बुलाकर पटेल साहब के खास ठाकुर साहब ने कहा था कि अब से इस ‛विवादित’(शिकायती) व्यक्ति को मत बुलाना।

मैंने अपने जाति मित्र लचकराम से कहा;- मीटिंग है तो विधिवत सूचना तो होना चाहिए ना। मार्क जुकरबर्ग की किताब व उसके थोबड़ेनुमा वाट्सएप पर एक सार्वजनिक संदेश लिख देने से क्या सबको सूचित हो जाऐगा ? क्या सभी युवा, प्रौढ़, वरिष्ठ व जाति के सभी बुजुर्ग सदस्य सोशल मीडिया के ओटलों पर हमेशा बैठे रहते हैं ? जो सबको ही स्वतः सूचित हो जाये ! इस मँहगाई में इंटरनेट डाटा का भाव देखा, कितना बढ़ गया है। ऐसे जाति सुधार होता है ?
मित्र बोला, बस तुम्हारी इसी आदत के कारण मैं तुम्हें किसी मिटिंग व जाति की बैठक में नहीं ले जाता हूँ ! तुम कोई न कोई खल्बां(विवाद) रोप ही देते हो। तुमको क्या मतलब था, “यह प्रश्न पूछने से कि जाति के पुराने छात्रावास को बेचने पर आई भारी-भरकम रकम का क्या हुआ...!” ‛उस जगह का आड़े-छीपड़े(चोरीछिपे) सौदा हुआ हो या फिर सबके सामने..!’ तुम्हें क्या मतलब !
मेरा जाति मित्र आगे फिर चिढ़कर बोला;- वहां तथाकथित सम्माननीय बड़े जातिगत लोगों से पिछली बैठक में यह पूछने की क्या जरूरत थी, कि जाति के सामूहिक कार्यों के लिए नई ली गई जमीन पर निर्माण कार्य कब शुरू होगा...! “उस जमीन को इतने ऊंचे दामों में क्यों लिया गया ?” कितने ही लाखों की जमीन हो। तुम्हें उससे क्या मतलब ? तुम क्या पूरी जाति के ठेकेदार हो ? “सिलगा(जला) तुम देते हो आग मुझे बुझाना पड़ती है।” जबरन लड़ाई मोल लेते हो। तुम्हें पता है ! वे सब बड़े लोग हैं। सैकड़ों बिघा जमीन है उनके पास। उनके बड़े-बड़े धंधे चलते हैं। तुम्हारे घर में जितनी जगह है उतनी जगह में उनका पखाना होता है ! तुम्हारे दादा-परदादा के समय से उनकी जागीरी चलती आ रही है। दो मिनट में तुम्हें व तुम्हारे घर वालों को जमीन पर ला देगें। कल से तुम्हारे बच्चों की रिश्ते-नाते नहीं होगें। यार जबरन फटे में टांग मत अड़ाया करो।
मैं धीरे से बोला, “पर सार्वजनिक कार्यों में पारदर्शिता के सिद्धांत नाम की भी तो कोई बात होती है ?”
बस तुम्हारे ‛सिद्धांत’ ! इनसब झमेलों के चक्कर के कारण ही मैं तुम्हें जाति व सार्वजनिक कार्यों की किसी भी मिटींग में नहीं ले जाता। तुम्हें हर बात का स्पष्टीकरण चाहिए। हर बात में सिद्धांतों का झंडा मत तोका करो। अब हर बात में हिसाब-किताब मांगने के जमाने गए ! तुमसे बने तो तुम एक कट्टा छपा लो और जाति उद्धार-सुधार के नाम पर खुब काटों रशीद। तुम्हें किसी ने रोका है ? क्या अपनी इस जाति में तुम ही पढ़े लिखे व जागरूक हो ? बाकि लोगों की कोई जिम्मेदारी नहीं है ? बाकी सब गवांर हैं ? “बड़े आये जाति सुधार करने वाले...!”

     

    नईदुनिया अधबीच स्तंभ में...

लचकराम आगे फिर बकता गया; जो जाति का चंदा खा रहा है उसे खाने दो। कहाँ उसने सारा चंदा तुमसे ही लिया है...! तुमकों चंदा नहीं देना है अगली बार मत देना। लेकिन हाँ अब से यदि तुम मेरे साथ अपनी जाति की किसी मीटिंग या सभा में चलो तो भला करके तुम्हारी यह प्रश्नों की दुकान घर पर रखकर ही चलना। पिछली बार जब हम अपनी जाति की एक बैठक के लिए तुम्हारे घर से निकले थे, तो भाभीजी ने भी मुझसे सही ही कहा था, कि भय्या इनका ध्यान रखना, ‛इन्हें बीच-बीच में बड़बड़ाने की बड़ी बेकार आदत है।’ भाभीजी सही कहती है ! तुम समझते क्यों नहीं, “तुमको पता नहीं है तुम्हारे कारण मुझे जाति के बड़े लोगों को कितना समझाना पड़ता है। वह तो मेरे पिताजी भी हमारी जाति में बड़ा रसूख रखते हैं व उनका दबदबा है। इस कारण ये सब तथाकथित बड़े लोग मेरे सामने ज्यादा कुछ चूं-चपड़ नहीं कर पाते हैं व तुमको मेरा साथी समझकर तुम्हारे खिलाफ खुलकर बोल नहीं पाते हैं, नहीं तो ये लोग तुम्हारे टांगड़े(टांगें) कब के तोड़ देते।” इसलिए कहता हूँ अपने को क्या ! जाने दो सालों को भाड़ में..! जनता का चंदा हैं, वह कहां हमने अपनी जेब से दिया है..! जब जनता ही जागरूक होना नहीं चाहती है तो हम फोकट में क्यों किसी से बैर ले....!!



भूपेन्द्र भारतीय 
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Tuesday, April 5, 2022

कश्मीर, बंगाल जैसे नरसंहार रोकने के लिए भारत में पुलिस सुधार बेहद जरूरी...!

 कश्मीर, बंगाल जैसे नरसंहार रोकने के लिए भारत में पुलिस सुधार बेहद जरूरी...!

               
          



भारत में आमजन के बीच पुलिस का चरित्र स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी भयाक्रांत बना रहता है। सरकारें पुलिस को अपने राजनीतिक हित साधने के लिए कठपुतली की तरह उपयोग करती रही है। 1977 में आपातकाल की स्थितियों को देखते हुए पुलिस सुधार पर चर्चा हुई व स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय पुलिस आयोग भारत में 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद पुलिस सुधार के लिये अनुशंसा करने के लिये 15 नवम्बर 1977 को गठित एक आयोग बना था। श्री धरमवीर इसके अध्यक्ष थे। इस आयोग ने रिपोर्ट देने की शुरुआत 1981 से की। फरवरी 1979 और मई 1981 के बीच इसने कुल आठ रपटें दीं। तब तक देश में पुनः कांग्रेस की सरकार बन चुकी थी। अतः पुलिस आयोग की इस रिपोर्ट को कांग्रेस सरकार ने रद्दी की टोकरी में डाल दिया या फिर कह सकते है कि रिपोर्ट सुस्त अवस्था में पड़ी रही। और ना ही किसी अन्य दल की सरकार ने इस रिपोर्ट को यथावत लागू करने की हिम्मत दिखाई।

इस आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हर प्रदेश में एक “स्टेट सिक्योरिटी कमीशन" का गठन होना चाहिए। उसके अन्वेषण संबंधी कार्य को शांति व्यवस्था संबंधी कार्य से अलग किया जाना चाहिए। पुलिस प्रमुख की नियुक्ति एक विशेष प्रक्रिया द्वारा होनी चाहिए ताकि केवल योग्य व्यक्ति का ही इस जिम्मेदार पद के लिए चयन हो सके। चयन होने के पश्चात उनका न्यूनतम सेवाकाल होना चाहिए तथा एक नये पुलिस अधिनियम को लागू किया जाना चाहिए।” लेकिन कांग्रेस के बाद भी आई किसी भी दल की सरकार ने इन अनुशंसाओं को लागू नहीं किया।

       


15 साल बाद सन् 1996 में सेवानिवृत्त डी.जी.पी. प्रकाश सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय में लोकहित याचिका दाखिल करके माँग की, कि पुलिस सुधार आयोग की इस रिपोर्ट को लागू करवाया जाए। 10 वर्षों के बाद, 2006 में सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिस आयोग की रिपोर्ट को लागू करने के आदेश देते हुए सभी सरकारों को दिशा निर्देशों के सात बिंदुओं का पालन करने का आदेश दिया। इसमें प्रमुखता से यह निर्देशित किया गया कि राज्य सुरक्षा आयोग का गठन, डी.जी.पी. की नियुक्ति गुण-दोष पर आधारित हो, पुलिस अधिकारी अपना कार्यकाल पूर्ण करें, अनुसंधान पुलिस का पृथक्करण, पुलिस स्थापना परिषद्( जो पुलिस विभाग के स्थानांतरण, नियुक्ति, प्रमोशन एवं सेवा मामले देखेगी), राज्य स्तर पर पुलिस शिकायत प्राधिकरण व केन्द्र स्तर पर राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग आदि। इनमें से कुछ ही निर्देशों का राज्य सरकारों ने पालन किया है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश को आये 16 वर्ष हो गया है ! पर अबतक पूर्ण रूप से प्रकाश सिंह केस के आदेश का पालन नहीं किया गया ।

इस आदेश के पालन की निगरानी स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने की। अवमानना कार्यवाही भी सरकारों पर चलाई। पुलिस सुधार पर पुलिस आयोग की रिपोर्ट आए 40 वर्ष बीत गए, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आदेश पारित हुए 16 वर्ष बीत गए, अभी तक आदेश का पालन केंद्र व राज्य सरकारों ने क्यों नहीं किया गया है ? क्योंकि आयोग की रिपोर्ट एवं न्यायालय के आदेशानुसार पुलिस को, जो अधिकार एवं स्वायत्तता दी गई है, यदि सरकारों ने पुलिस को दे दी होती तो कई नेताओं व सरकारों के भ्रष्टाचार , आपराधिक कृत्यों व आर्थिक अपराधों का भंडाफोड़ हो जाता। इसी स्थिति से बचने के लिए सभी सरकारों ने पुलिस आयोग की रिपोर्ट को लागू न करके रद्दी में डाल दिया था। पुलिस सुधारों का गर्भपात करवा दिया गया था। यह देश की अपूर्णनीय क्षति थी। तीखे शब्दों में, “यह देश के विरुद्ध षड्यंत्र था।" जो भी राजनीतिक दल सत्ता में आया उसने अंग्रेजों के बनाये पुलिस कानून का ही सहारा लेकर पुलिस का अपने मनमाफिक उपयोग किया। जिससे भारत में अपराध का स्तर दिनोंदिन बढ़ता ही गया।

केन्द्र व कई राज्यों में पहले कांग्रेस व अन्य राजनीतिक दल सत्ता में रहे और अब भाजपा पीछले आठ से ज्यादा वर्षों से केन्द्रीय सत्ता में है। लेकिन सबसे बड़ा लोकतांत्रिक दल भाजपा भी पुलिस सुधार (प्रथम पुलिस आयोग की रिपोर्ट) को पूर्णरूप से लागू नहीं करवा पाया। अब जबकि संसद में दंड प्रक्रिया (पहचान) विधयेक 2022 व फॉरेंसिक जाँच बिल पर चर्चा हो रही है तो इसके साथ ही संसद में विस्तृत रूप से पुलिस सुधार व पुलिस अधिनियम 1861 पर भी व्यापक चर्चा होना चाहिए। तथा वर्तमान सरकार को पुलिस सुधारों को जल्दी से जल्दी लागू करना चाहिए।

पुलिस सुधारों के इतने दिनों तक लंबित रहने के कारण ही कश्मीर, बंगाल, केरल, गुजरात, झारखंड, असम, दिल्ली आदि राज्यों में राजनीतिक हिंसा, जघन्य अपराध, बलात्कार, आर्थिक अपराध, दंगे, नरसंहार आदि दिनोदिन बढ़ते गए व अबतक भी हो रहे हैं ! क्योंकि पुलिस के हाथ बंधे रहते हैं। उसे जब भी उचित व त्वरित कार्यवाही करना होती है वह ऊपर के आदेश की प्रतिक्षा में कुछ नहीं कर पाती है और तबतक अपराधी अपराध कर साक्ष्य मिटाकर लोकतांत्रिक समाज में हिंसा का नंगा नाच खेलकर फरार हो जाता है। ओर फिर आखिर में वहीं बॉलीवुड की फिल्मों में जैसा बताया जाता है कि पुलिस अपराध हो जाने के बाद आती है तबतक सब कुछ हो चुका होता है...!


भूपेन्द्र भारतीय (अधिवक्ता व लेखक)
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Saturday, April 2, 2022

लोकतंत्र की बारात में खानपान का ध्यान रखें....!!

 लोकतंत्र की बारात में खानपान का ध्यान रखें....!!


  




वे खाने के शौकीन थे। खाते-खाते इतना खाया कि खाने से अपच हो गया। अपच होने के बाद अपची जहां जाते है, वहीं ये खाने ही खाने वाले पहुंच गए। जनता का खाया ही इतना की जनता ने ऐसी जगह पहुंचा दिया, जहां जाना तो सबको पड़ता है लेकिन वहां जाना कोई पसंद नहीं करता। इनकी इस खाने-पीने की संस्कृति के कारण ये अबतक जनता की नजरों से उतरे हुए हैं। राजनीति में भी विपक्ष ऐसी ही जगह है जहां कोई राजनेता जाना पसंद नहीं करता। लेकिन जाना ही पड़ता है। उसके बगैर आगे का काम भी नहीं चल सकता। जैसे विपक्ष के बगैर लोकतंत्र का काम नहीं चल सकता। पर इस खाने-पीने की अति संस्कृति से अब समस्या तो ओर भी विकट हो गई है। विपक्ष का दर्जा भी “हाथ” से चला गया है ! ओर अब सामने वाले ‛हाथ पर हाथ धरकर' बैठे-बैठे सोच रहे हैं कि करें तो क्या करें...!

सामने वाले के लड़के ने लड़कर देख लिया-लड़कर हार गया। लड़की ने लड़ाकर देख लिया- सब के सब हार गए। अब चिंतन शिविर में यह चर्चा चल रही है कि किसके अधिक खाने से यह “खानागार" बिगड़ी है। इस ‛हाथ’ के माध्यम से कितनों ने ही वर्षों तक भरपेट खाया व खिलाया, पर अब आखिर क्या हो रहा है कि हमें हर चुनाव में “मुँह की खाना” पड़ रही है ! आखिर इस किचन कैबिनेट में कौन विभीषण निकल गया, जिसके कारण सारी लंका दिनोंदिन ढह रही है। अजेय किले को किसकी नजर लग गई है। इस वानर रूपी जनता को किसने जागरूक कर दिया है ! इसपर खाये-पीयें बैठकर चिंतन-मनन कर रहे हैं।

जैसा कि किसी विवाह में जिसकी खानागार बिगड़ जाती है उसके वैवाहिक कार्यक्रम के बिगड़ने की भी संभावना बढ़ ही जाती है। पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों में भी बहुत से दलों की खानागार बिगड़ गई। कई दूल्हे राजा घोड़ी पर बैठे के बैठे ही रह गए। कुछ तो घोड़ी पर चढ़ ही नहीं पाए। शपथग्रहण के लिए सिलवाये बहुतों के सूट धरे के धरे रह गए। बहुतों की जमानत ही ऐसे जब्त हो गई जैसे विवाह के एक दिन पहले ही दुल्हन किसी ओर के साथ रफूचक्कर हो जाती है। कुछ को बीच बारात में कई बाराती छोड़कर दूसरे की बारात में अच्छे गाजे-बाजे देखकर घुस गए। कहा तो बड़ी मुश्किल से लोकतंत्र में राजनीतिक विवाह का मुहूर्त निकलता है। लेकिन दल-बदल व पारिवारिक पृष्ठभूमि ने लोकत्रांतिक समाज में कईयो के विवाह बिगाड़ दिये। बेचारे न अपने दल के रहे ना ही अपने घर के। उनके घर व क्षेत्र वाले तक उन्हें पहचानने से मना कर रहे हैं।

इधर एक तो राजनीतिक प्रतिक्षा करते करते बुढापा आ गया है और ऊपर से कुछ युवा नेता मानने को ही तैयार नहीं है कि उनके अच्छे दिन कभी नहीं आने वाले हैं। जबरन का सेहरा बांधकर देश-विदेश घुमते रहते हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि विवाह करना व चुनाव लड़ने में उत्तरीय ध्रुव व दक्षिणी ध्रुव जैसा ही अंतर है। वहीं कुछ घोषणा वीरों ने अपनी दूसरी राजनीतिक बारात में भी साजो-शराब के माध्यम से एक विचित्र राज्य की सत्ता सुंदरी से फेरे लेकर घर जवाई बनना स्वीकार कर लिया है। इस विवाह का दूल्हा कब कौन हो सकता है ! कुछ नहीं कह सकते हैं। हो सकता है अंतिम समय में लोकतंत्र की घर ग्रहस्थी से सत्ताधारी दुल्हन घर छोड़कर ही भाग जाए !

        


खैर, हम खाने-पीने के हमेशा से शौकीन रहे हैं। कभी कभी हम खिला-पिला भी देते हैं। भले स्वयं के टापरे बिक जाए। लेकिन जैसे तैसे सत्ता सुंदरी मिल जाए तो आयोजन मानो सफल, नहीं तो फिर सिवा चिंतन शिविर के क्या कर सकते हैं ! क्योंकि आजकल बारातियों व सामने वाली पार्टी का कोई भरोसा नहीं। जैसे ही लड़के वालों ने थोड़ी बहुत खटपटर की, कि फूंका-मौसा समूह सक्रिय। बनी बनाई बारात कभी भी उखड़ सकती है। इसलिए अधिक खाने-पीने व बारात में ऊंचे बोल-वचन से बचना ही लोकतंत्र की बारात की आचार संहिता है....!!



भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
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