दैनिक जनवाणी |
लो जी आ गए हम....!!
हाँ जी हम आ ही जाते है, जैसे किसी भी विवाह में फुफा-मौसा जी बीन बात पर बिगड़कर आते है ! वैसे ही हम हर बड़े आयोजन-उत्सव-त्यौहार पर आ ही जाते है। कभी किसी की जात पूछने या फिर किसी का धर्म पूछने, हम आ ही जाते है। किसको किस उत्सव या त्यौहार पर फटाके फोड़ना है और किसे नहीं फोड़ना है, किस तरह के कपड़े पहनना है आदि पर रायचंद बनकर हम आ ही जाते है। अच्छी भली दौड़ रही ज़िंदगी में हम खलल डालने आ ही जाते है। हमें आना ही पड़ता है क्योंकि हमें बगैर बुलाये आने की आदत है।
हमें सड़क पर बेवजह आना अच्छा लगता है क्योंकि यह हमारा संवैधानिक अधिकार है ! हम ही तो वो जागरूक नागरिक हैं जो अपने संवैधानिक मौलिक अधिकारों को पूरी निष्ठा से उपयोग करते है। हमें ही सड़क जाम करके लोकतंत्र की रक्षा करते हैं। संसद में सभापति की ओर कागजों की गेंद बनाकर फेंकने वाले, वो भी हम ही होते है। क्योंकि हमें जनता संसद व विधानसभा में फेंका-फांकी करने ही तो चुनाव में चुनकर पहुंचाती है ! जनता हमें अपनी इसी सर्वकालिक प्रतिभा के कारण तो संसद में चुनकर भेजती है। हम ही है वो जो अपने क्षेत्र में जाने पर भी कहतें है कि “लो जी आ गए हम....!!” ‛हमारा स्वागत नहीं करोगें ?’ हमें सबसे ज्यादा राजनीतिक क्षेत्र में बगैर बुलाएं घुसना अच्छा लगता है।
हम ही है वे आदर्श मेहमान होते है जो किसी की भी रसोई में घुसकर अपनी चतुर बुद्धि से हर भोजन में मीनमेख निकाल सकते है। हमें यह बताना भी अच्छा लगता है कि किसे क्या खाना चाहिए और किसे क्या नहीं ! हमारे ही कारण कहीं पर भी पहुंच जाने से वहां के माहौल में खलबली मच जाती है। हमनें ही अपने राष्ट्र में संसद से सड़क तक वादों की झड़ी लगा रखी है। हम जहां भी पहुंच जाते है “लाईन वहीं से शुरू हो जाती हैं।” हम ही हर सभा में सबपर भारी पड़ते है ! सरकारी संस्थाओं व कार्यालयों में हम ही सबसे पहले पहुंचते हैं। सरकारी योजनाओं पर सर्वप्रथम हमारा ही अधिकार होता है !
अपना पड़ोसी हो या फिर हमारे देश का पड़ोसी, हमारे आने-जाने से ही तो आपसी संबंधों में ‛गर्माहट’ बनी रहती है। लेकिन जब हम अपने ही घर पहुंकर कहते है कि ‛लो जी आ गए हम !’ तो घर वाले कहते है ‛कोई अहसान नहीं किया है !’ “पहले अपने जूते बाहर उतारों व हाथ-पांव साफकर अंदर आना !” कहाँ तो हमारे आने-जाने से दुनियाभर में मान-सम्मान है लेकिन अपने ही घर में हमें “घुसपैठिये” कहा जाता है। इसी पीड़ा के कारण हम बहुत बार रूठकर विदेश चले जाते है। आखिर हमें वहां भी तो अपनी “लो जी आ गए हम” वाली प्रतिभा दिखाना होती है।
आजकल हम सोशल मीडिया पर भी छाती चौड़ी करके कहते है, “लो जी आ गए हम !" हमने वाट्सएप विश्वविद्यालय के माध्यम से इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया है कि हम हर विषय पर धाराप्रवाह बोल सकते है। हमने कॉपी-पेस्ट करना इतना अच्छे से सीख लिया है कि हम घर बैठे-बैठे ही चार-पांच पीएचडी वालों जितना ज्ञान बांट सकते है। वे हम ही है जो हर सोशल मीडिया मंच की बहस में लाईक-कमेंट से ही अपनी विद्वता सिद्ध करते है। हमारे ही मार्गदर्शन में हर क्षेत्र में पुरस्कार बांटे जाते है। और फिर हम ही होते है जो पुरस्कार वापसी अभियान चलाते हैं। हम जब लंबा कुर्ता पहनकर कला के मंच पर चढ़ते है तो अच्छे-अच्छे कलाकार रास्ता नाप लेते है। कला व साहित्य के मंचों पर भी हमारी ही जागीरी चलती है। कुल मिलाकर हम कहीं भी जाए हमें कभी नहीं कहना पड़ता है कि “लो जी आ गए हम....!!" हमें सब जानते-पहचानते हैं।
भूपेन्द्र भारतीय
९९२६४७६४१०