Thursday, May 20, 2021

हे मधुशाला वीरो, अब तुम्हारी बारी....!!


               चित्र गूगल से साभार...


दानवीर कर्ण ने सबकुछ लुटा दिया अपने दानवीर गुण के कारण, शायद उससे भी बड़ी वीरता मधुशाला वीरो ने दिखाई है कि उन्होने अबतक की दोनों कोरोना लहर में मधुरस जिसे सनातन काल से सोमरस के नाम से जाना जाता है ! जिसे वर्तमान में मानक भाषा के गिरते स्तर के कारण इसे कुछ पियक्कड़ लोग शराब या दारू जैसे हल्के नाम से जानते है। ऐसे पवित्र रस का एक बार भी रसरंजन नहीं किया ! यह कहना सरकारी व्यवस्था व गिरते-उठते सामाजिक चरित्र पर शंका करना होगा।

इन महान मदिरा-मर्दो ने मद्यपान इतिहास के क्षेत्र में खलबली मचा दी हैं, वहीं सरकार भी बेसब्री से इन वीरो की तृष्णा को देखकर अपनी दयालुता दिखाने में बड़ी देर से आई, ऐसा सरकार को अब भान हुआ है ! उचित मूल्य की दुकान, अंग्रेजी-देशी माध्यम की दुकान से प्रगति करते हुए, सरकार अब आनलाइन शराब बिक्री योजना पर पहुंच चुकी। इस महामारी में भी सरकार के गहन चिंतन वाले इस मास्टर स्ट्रोक से “अद्भुत सामाजिक उद्धार नीति निकल कर आई है ।” भले बड़ी दरों के साथ आई पर लगता है दुरस्त आई !

जहाँ दुनियाभर के आम आदमी एक अदृश्य विषाणु से बचकर घरों में बैठे हो ओर रूखी सूखी खाकर काम चला रहे हैं । वही इतिहास में यह भी स्वर्ण अक्षरों में दर्ज हो गया है कि मधुशाला वीर बगैर पीए जिये है ! जिस दिन से तालाबंदीयां हुई हैं, ‛सबसे ज्यादा चर्चा आम आदमी की जान की नहीं, अर्थव्यवस्था के प्राण की हो रही हैं।’ सरकार को अब कही जाकर अज्ञात सूत्रों से पता चला है कि अर्थव्यवस्था की चाल सिर्फ़ मधुशाला की ओर अग्रसर हो कर बढ़ सकती है ! “पीने-पीलाने से पनपेंगी अर्थव्यवस्था !” शायद यही है सरकार का मास्टर स्ट्रोक !

जबतक दुनिया की किसी भी गंभीर समस्या की चर्चा मधुशाला में बैठकर नहीं होती, तब तक उस समस्या का कोई समाधान और उसका कोई ओर-छोर नहीं मिल सकता हैं। इसलिए देर आए दुरूस्त आए कहावत पर अब खरा उतरते हुए, मधु-वीरो को नमन करना चाहिए। तथा ज्यादा पीने वालो को क्वारेंटाईन करके हर एक बैवड़े को अंग्रेज़ी-भाषा का एक-एक क्वाटर अतिरिक्त में मुफ्त में देना चाहिए। जिससे वे अपनी भाषा के माध्यम से विषाणु के विरुद्ध ऐंटीबॉडी बना सके। साथ में नामचीन साहित्यकारो की आनलाईन काव्य गोष्ठी का आयोजन हो। चुनौती पेश की जाए कि मधुशाला जैसे कविता संग्रह से भी बढ़-चढ़कर नये-नये काव्य संग्रह की रचनाओं का सजृन हो ! मधुशाला वारियर्स को काव्यांजलि अर्पित की जाए। इनके इस अभूतपूर्व योगदान के लिए सरकार “मद्दश्री जैसे पुरस्कार” की घोषणा भी सरकार शीघ्रता से करें।

सरकारी राजस्व की भी कुंजी मधुशाला के आबकारी कार्यालय से ही होकर खजाने की ओर जाती है, जिसे हम राजस्व कहते हैं वह वास्तव में मद्य पान करने वाले वीरो का ही आर्थिक बलिदान है। जिसे कोई भी अर्थव्यवस्था नकार नहीं सकती ! भले ही फिर वह पूँजीवाद, समाजवाद, मार्क्सवाद, गांधीवाद आदि कैसी भी व्यवस्था हो।

प्राचीन काल से लेकर कोराना काल तक ,स्वर्ग से लेकर पाताल तक अलग अलग रूपो-रंगों में वीर शिरोमणि मधु नरेश मद्य धारक रसरंजन कर्ता इतिहास ओर इस मानव जाति के सदा-सदा भाग्य निर्धारक व कल्याण करता रहे हैं !

अब जब कि सरकार ने बगैर कोरोना से डरे ओर मानवता को दाव पर लगाते हुए, अपने इन मद्य वारियर्स का उचित समय पर सम्मान ओर मधुशाला को पुनः खोलने का मन बना लिया है ! तो आम आदमी की जिम्मेदारी बन जाती हैं कि अपने-अपने राशन व प्राणवायु में से कटौती करते हुए, इन मधुशाला प्रेमियों के लिए अपनी-अपनी छत और बालकनी से चखना व खार-मंजन भी बरसाना चाहिए तथा देश की प्रगति में इनके इस महा-त्याग को देखकर बरसाना की होली में बरसाते रंगों की तरह अपने अपने घरों से नीर बरसाना चाहिए। जिससे ये मद्य नरेश हम सब के लिए कोरोना विषाणुओं की कोई अन्य लहर आने से पहले उसे अपनी पवित्र व ओजस्वी वाणी से आसानी से घर के बाहर ही सदा सदा के लिए सेनेटाईज कर दे। “तो हे मधुशाला वीरो ! अब एंटीबॉडी बनाने की तुम्हारी बारी....!!”


©भूपेन्द्र भारतीय

Tuesday, May 18, 2021

वे अब भी “निःशब्द” है....!!

हरिभूमि समाचार पत्र में...

वे सुबह से निःशब्द है। भले ही उन्होंने सुबह से आधी रात तक फेसबुक, वाट्सएप, ट्विटर पर पच्चीस पचास स्वर्गीयों के लिए शोक संदेश लिख दीए हो। नयी नयी इमोजी को बौना कर दिया हो। अपनी एक निःशब्दता में “तील का ताड़ बना” दिया हो। उनके साथ पीछले कई सालों से यही समस्या है कि “वे बात-बात में निःशब्द हो जाते हैं !” उनकी इस मौन अभिव्यक्ति में कितने ही तूफान उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं।

इस निःशब्दता की उलझन में उन्हें कितनी ही बार अपनी मतलबी चुप्पी को तोड़ना पड़ता हैं। वे जब भी अपने से ज्यादा किसी को मुखर होते देखते हैं। तो वे फिर निःशब्द हो जाते है। कई बार उनकी इस निःशब्दता को सोशल मीडिया भी नहीं समझ पाता है। बड़ी बड़ी सभाओं में मुखर रहने वाले, वे अक्सर अपनी ही पत्नी के सामने निःशब्द हो जाते है। शोकाकुल वातावरण में भी वे आधा घंटे के भाषण के बाद निःशब्द बोलकर बैठ जाते है। वे अक्सर अपनी वाणी पर पूर्णविराम तब ही लगाते है, जब वे अल्पविराम के चक्कर में निःशब्द हो जाते है। वह सुख की घड़ी हो या फिर दुःख के पल, वे कैसी भी परिस्थिति में निःशब्दता का सुर साध सकते हैं। वे अद्भुत व्यक्ति है जो अपनी अभिव्यक्ति को भी निःशब्दता से व्यक्त करते है !

उनके पास गजब की शब्दावली है ! जहां विराम लगाना हो, वे अल्पविराम लगा जाते हैं। और जहां निःशब्द होना हो, वहां बात-बात में वाचाल हो जाते है। अपने लंबे लंबे लेखों में अक्सर वे अंत में निःशब्द हो जाते हैं। बात एक लाईन की होती हैं और वह उसकों अच्छा खासा कहानी नुमा लिख जाते हैं। ऐसा कोई अवसर नहीं जब उन्हें निःशब्द ही लिखा हो और बाद में उसे विस्तार से अपने मित्रों को न समझाया हो।

वे अक्सर पड़ोसी के लड़के लड़कियों पर बड़ी बड़ी आदर्शवादी बातें बघारते है, पर अपनी औलाद के कर्मों पर पूर्णतः निःशब्द हो जाते है। कार्यालय में बाबूजी को भ्रष्टाचार का पाठ सुनाते रहते हैं और स्वंय की टेबल पर आने वाले लिफाफों पर निःशब्द हो जाते हैं। दूसरों की पत्नी का सौंदर्य बखान बड़े रस ले-लेकर करते हैं। और जैसे ही किसी ने इनकी धर्मपत्नी के रूप लावण्य पर चर्चा छेड़ी की, ये साईलेंट मोड में आ जाते है। जब भी निःशब्दता इन्हें बहुत बार बीच चौराहे पर घेर लेती है। तो ये वहीं पर मंचीय कवि बन जाते है।

वैसे इनकी निःशब्दता जब भी टूटती है। ये अक्सर यह कहते है कि भूकंप आने वाला है। एक निःशब्द प्रेमी ने तो संसद में भूकंप आने की चेतावनी दे दी थी। वो तो गनीमत रही कि ट्विटर था, उसपर ही सारी निःशब्दता उड़ेल दी ! ऐसे लोग जब जब सत्ता पक्ष की ओर होते हैं तो विपक्ष के सवालों पर निःशब्द हो जाते हैं। जनता इनसे जब भी विकास पर सवाल करती हैं, ये अपनी निःशब्द मुद्रा में ही विज्ञापनों से मुखर मुस्कान बिखेरते रहते हैं। वैसे अच्छा ही है कुछ लोग निःशब्द ही रहें। “क्योंकि वे जब जब कुछ बोलते हैं शब्द निःशब्द हो जाते है।”


भूपेंद्र भारतीय

 

लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....

 लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....         शहडोल चुनावी दौरे पर कहाँ राहुल गांधी ने थोड़ा सा महुआ का फूल चख लिखा, उसका नशा भाजपा नेताओं की...