Thursday, January 27, 2022

शब्दों की दुनिया से आगे....

 शब्दों की दुनिया से आगे....


                
                        अमर उजाला में....


अक्सर हमारे साथ ऐसी स्थितियां आती हैं जब हम प्राकृतिक दृश्य या फिर मानव भावनाओं को शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं कर सकते। ऐसे पल मुझे बहुत बार प्रिय व मन को सुखद लगते हैं। क्योंकि कभी-कभी किसी बात को हम शब्दों के माध्यम से व्यक्त करके उस बात या भावना को सीमित कर देते हैं। शब्द बहुत सी अभिव्यक्तियों में छोटे लगते हैं। शब्दों से उस पल या दृश्य को पूर्णता नहीं मिल पाती है। उसे हमे सिर्फ़ महसूस करना चाहिए। उस पल को देखकर सिर्फ़ आनंद ही लेना चाहिए। हम बहुत बार बुद्धि का ज्यादा उपयोग करते है, जबकि अधिकांश मामलों में हृदय से ही काम चल जाता है। जहां मौन से काम चल रहा है वहां शब्द शक्ति क्यों खर्च करें ।

उदाहरण के लिए बात करें तो, बहुत बार हम एकदम से प्रकृति का कोई सुंदर दृश्य देखते हैं और भावविभोर हो जाते हैं। लेकिन उस दृश्य को शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं कर पाते। कभी कभी ऐसा नहीं भी करना चाहिए। क्योंकि उस दृश्य के सौंदर्य का वास्तविक आनंद उसे धैर्यपूर्वक देखने में ही निहित है। वहीं उस समय जब हमें दिल से काम लेना होता है वहां हम दिमाग(बुद्धि) को दौड़ाने की कोशिश करते है और उस सुंदर व सुखद पल के असली आनंद लेने से हम वंचित हो जाते है। हमारा मन-मस्तिष्क हमसे तर्क करने लगता है, जो कि हर परिस्थिति में सही नहीं होता है।

एक बच्चे की मधुर मुस्कान को परिभाषित करने के लिए शब्दों में ढ़ुंढ़ना मुश्किल है, उसी तरह कोई सुंदर फूल बगिया में खिला है तो उसे देखकर ही ज्यादा आनंद लिया जा सकता है, न की बुद्धि बल का उपयोग कर उसे शब्दों की सीमाओं में बांधने से। कोई अच्छी कविता, कहानी, पुस्तक, अच्छे व्यंजन का स्वाद, अपने गाँव बहुत दिन बाद जाना, दादा-दादी की बातें सुनना, अपने खेत की मेढ़ पर धीमे-धीमे टहलना, अपनी प्रिय स्मृतियों में खो जाना आदि स्तिथियों को बताने के लिए जरुरी नहीं है कि शब्द मिले ही, इन्हें अनुभव करके ही इनका महत्व समझा जाता है। वहीं जहां सहजता में शब्दों के माध्यम से बात कहीं जा सके, वहां कहना भी चाहिए। लेकिन जहां शब्द की सीमा व क्षमता समाप्त हो जाए, वहां से मौन व मधुर मुस्कान के माध्यम से ही अपनी बात अच्छे से अभिव्यक्त की जा सकती है।

यह निर्विवाद है कि शब्द की शक्ति बहुत बड़ी व अद्भुत है। पर फिर भी जब यह शक्ति हमारे पास पर्याप्त मात्रा में नहीं है या फिर इस शक्ति की आवश्यकता हर स्थिति में नहीं है तो फिर हम हर पल व बात को शब्दों के माध्यम से ही परिभाषित व कहने की क्यों कोशिश करें ? हम उसे सिर्फ़ दिल से समझ भी सकते है। आंखों व चहरे के आव-भाव से भी व्यक्त कर सकते है। शांत व धैर्यपूर्वक भी बात को समझा व समझ सकते है। क्योंकि प्रकृति व जीवन के हर दृश्य व भाव को शब्दों के माध्यम से समझना व समझाना मानव शक्ति के बहुत बार बाहर होता है। और जब हम यह कोशिश हर एक भावना व पल को व्यक्त करने में लगाते हैं तो उस भाव के वास्तविक सौंदर्य से छेड़छाड़ ही करते हैं। उसमें सफल होना मुश्किल ही होता है। ध्यान व योग के माध्यम से इस विषय में हमारे शास्त्रों में बहुत विस्तार से बताया गया है।

हम सहजता में जीवन को देखने की दृष्टि उत्पन्न करें। यह जरूरी नहीं है कि हर स्थिति के लिए शब्द जाल में उलझते रहे। अपनी बात को मौन भावों व कला के माध्यम से भी प्रेषित किया जा सकता है। वर्तमान में जिस तरह से सोशल मीडिया पर होड़ मची है कि हर बात को दुनिया को सोशल मीडिया पर उढेल कर दिखाना व फोटो-विडियों के द्वारा परोसा जा रहा है, उससे उस पल व स्थिति के सौंदर्य में कमी ही आती है। इससे उस बात में वजन भी कम ही होता है। अच्छा है कि जो भी हम सुखद व सुंदर अनुभव कर रहे है, उसे आभासी दुनिया के कचरें में हल्के व निर्थक शब्दों के माध्यम से डालने से बचें। क्योंकि कुछ ऐसा भी बचा रहना चाहिए जिसे हम उसे अपने हृदय की अंतरंग गहराई से ही महसूस कर सकें। जिससे उस पल शब्द मौन धारण करें व हृदय सबकुछ धीमे धीमे समझता रहे।



भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

Friday, January 21, 2022

बड़े लोगों का लोगत्व....!!

 बड़े लोगों का लोगत्व....!!

    

                                हरिभूमि में....

बड़े लोग ‛बड़े महान होते है।’ यहां मुझसे जो सिर्फ़ आयु में बड़े लोग हैं उनकी तो मैं बात नहीं कर रहा हूँ ना ही कद में जो बड़े हैं। यहां मैं उन ‛बड़े लोगों’ की चर्चा कर रहा हूँ जिनकी नजर में मैं हमेशा छोटा ही रहता हूँ। आपके साथ भी ऐसा हो सकता है या फिर हो रहा होगा। आप कितनी ही प्रगति व सफलता प्राप्त कर लें, कुछ बड़े लोगों की दृष्टि में आप छोटे ही रहेंगे। ओर न सिर्फ़ ये बड़े लोग आपको छोटा समझते हैं बल्कि वे आपको हर समय नजरअंदाज भी करेंगे।

गलती से आपने अपनी किसी उपलब्धि या खुशी को सोशल मीडिया पर साझा किया, तो बड़े लोग उस पोस्ट को नजरअंदाज करने के साथ ही, गलती से भी उसपर लाईक या कमेंट का बटन नहीं दबाएंगे। वहीं बाबू-शोना वाली पोस्ट पर दिनभर लाईक-कमेंट चलती रहती हैं। कभी गलती से बड़े लोगों के सामने चले जाओं तो वे आपको पहचानने से साफ मना कर देते हैं। भले आप उन्हें वर्षों से जानते हो और वे भी आपको जानते हो। पर जानबूझकर ऐसा व्यवहार करेंगे कि अरे, “तुम छोटे लोग, जाओ हम तुम्हें नहीं पहचानते।

‛बड़े लोग’ विभिन्न प्रकार के होते हैं। वह आपका चड्ढी मित्र भी हो सकता है ! जो अब सरकारी आदमी हो गया है। और बड़े शहर में रहने लग गया है। वहीं आपके पहले के कोई पड़ोसी भी बड़े लोग हो सकते हैं। वे अब अपने लड़के के बड़े अधिकारी बन जाने के कारण, बड़े लोगों की श्रेणी में आ गए हैं। और उन्होंने अपने लड़के की उच्च व गुप्त आय से बड़े से शहर में बड़ा सा मकान बना लिया है। इसलिए वे अपने आप को बड़ा मानते हैं। इसके अलावा भी बड़े लोग होने व “बड़ा लोगत्व” प्राप्त करने के विभिन्न प्रकार व ठीये है। बड़े लोग अक्सर आपको सरकारी कार्यालयों, अस्पतालों, राजनीतिक कार्यालयों, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों, विवाह कार्यक्रमों आदि सार्वजनिक स्थलों पर आसानी से मिल सकते हैं। यहां तक कि धार्मिक स्थल पर भी “विशेष पूजा के समय” बड़े लोगों के दर्शन आसानी से किये जा सकते हैं।

जैसे ही आपने इन बड़े लोगों के ‛लोगत्व’ से कोई छेड़छाड़ की, ये आपको अपने बड़े लोगत्व का प्रभाव दिखाने लग जाते हैं। इनके समूह द्वारा आप अच्छे भले सामान्य व्यक्ति से “छोटे लोग” घोषित कर दिये जाओगें। पीठ पीछे कहेंगे, “छोटे लोग हैं इन्हें मुँह नहीं लगाना चाहिए।” कोई बड़ी बात नहीं कि बड़े लोगों का लोगत्व आपके सहज छोटत्व को बड़ा छत-विछत कर दे।

कोई व्यक्ति आपको यदि पांच मिनट के कार्य के लिए एक घंटा प्रतिक्षा करवाये तो समझ लिजिये, वह पक्का ‛बड़ा लोगत्व’ श्रेणी वाला व्यक्ति है। जो कभी किसी लाईन में नहीं लगें, वे भी स्वाभाविक बड़े लोग ही होते हैं। आखिर ‛वे बड़े लोग कैसे जो सामान्य इंसानों जैसे रहे !’ बड़े लोग विशिष्ट होते हैं। उनके लिए सरकार से लेकर सड़क तक सब जगह विशेष मार्ग बने-बनाये होते हैं। और नहीं होगें तो वे ‛ध्वनिमत’ से बना लेते हैं। यहां तक कि बड़े लोगों के लिए हर जगह पीछे का रास्ता ही होता है। वे सामान्य लोगों की तरह कभी सामने से किसी जगह पर नहीं जाते। “बड़े लोग बैकडोर का उपयोग कर किसी भी बड़े सदन में आसानी से पहुंच जाते हैं।”
आम आदमी अक्सर विंडो पर खड़ा रहकर अपनी टिकट का इंतज़ार करता रहता है, वहीं बड़े लोगों के लोगत्व प्रभाव में बेचारी विंडो ही उनके पास चलकर आ जाती है। इन दिनों ऐसा लोगत्व सर्वत्र देखा जा सकता है....!!


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

Tuesday, January 11, 2022

स्वामी विवेकानंद युवाओं के सच्चे आदर्श महानायक।

 स्वामी विवेकानंद युवाओं के सच्चे आदर्श महानायक।


    



“जो आपके पास मौलिक गुण है उससे ही जीवन में श्रेष्ठ सफलता प्राप्त की जा सकती है।” स्वामी विवेकानंद विश्व के सबसे बड़े धर्म सम्मेलन ११ सितम्बर १८९३ अमेरिका में अपने आध्यात्मिक ज्ञान के बलबूते पर ही गए थे। भारत के इस क्षत्रिय सन्देश वाहक की चिंतनधारा की अमेरिका पर गहरी छाप पड़ी। इस गुण के अलावा उनके पास उस समय कुछ नहीं था। लेकिन यह शक्ति कोई साधारण नहीं थी। उनके इस गुण में भारतवर्ष की हजारों वर्षों की आध्यात्मिक ऊर्जा सिंचित थी। वे भारतीय आध्यात्मिक ऊर्जा से ओतप्रोत थे। वे भारत के प्राचीन साहित्य व अपने समय के यथार्थ को भलीभांति जानते थे। स्वामी विवेकानंद जी भारतवर्ष के अपने समय के ज्ञान रूपी सूर्य से कम नहीं थे। वे वेदों व प्राचीन भारतीय शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी। उनके बतायें मार्ग व दर्शन से भारत में नवजागरण हुआ और आजतक वे युवाओं के लिए महानायक है।


स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय बताता है कि उन्तालीस वर्ष के संक्षिप्त जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द जो काम कर गये वे आने वाली अनेक शताब्दियों तक पीढ़ियों का मार्गदर्शन करते रहेंगे। आज जब हम स्वामी विवेकानंद के जन्म दिवस १२ जनवरी को युवा दिवस के रूप में मनाते हैं तो यह हमारे लिए गर्व का विषय है। एक ऐसा युवा जिसने अपने छोटे से जीवन में न सिर्फ़ भारतवर्ष को छान दिया, बल्कि विश्व में भारतवर्ष के अद्भुत धर्म शास्त्रों का परचम लहराया। सनातन हिंदू धर्म की ध्वजा को उन्होंने बड़ी ही कुशलता व श्रेष्ठता के साथ विश्व के सामने लहराया। यह सब करना इतना भी आसान नहीं था, जबकि भारत में ही उनके अनेकों दुश्मन हो गए थे। पर स्वामी विवेकानंद ने भारतीय आध्यात्मिक ज्ञान के बल पर अंततः विश्व की बड़ी संख्या का दिल जीत लिया।


यह सब इसलिए हुआ कि वे भारतवर्ष में बहुत घूमे साथ ही दुनिया के कितने ही देशों में लोगों के बीच जाकर अपने सच्चे सनातन धर्म की बात कहीं। वे सिर्फ़ हिमालय की कंदराओं में बैठकर ध्यान करने वाले योगी नहीं थे, वे जनमानस के बीच रहकर आध्यात्म की लौ जगाने वाले योगी थे। उन्हें पता था कि खाली पेट भजन नहीं हो सकता है।

उन्होंने अपने गुरू रामकृष्ण परमहंस जी से सच्ची शिक्षा प्राप्त कर सबसे पहले भारत को जाना। शुरुआत में अपने गुरू की कितनी ही बातों का वे विरोध करते थे। वे इतनी आसानी से अपने गुरू की बातें भी स्वीकार नहीं करते थे। वे हर बात व तथ्य को कसौटी पर कसते हुए उसकी गहराई तक जाते थे। इसलिए ही बाद में उन्होंने कहा कि “स्वयं पर विश्वास करो।” वे हमेशा कहते थे किसी भी बात पर आंख मूंदकर भरोसा मत करो, उसे स्वयं से जानों। वे भारतीय प्राचीन ज्ञान की शक्ति की क्षमता को जान गए थे। जिसके लिए वे भारत को जानने के लिए वे भारत के कौने-कौने मे गए। आम लोगों के बीच रहे। उनके दुख दर्द को जाना। भारत की वास्तविक शक्ति व गुण को पहचाना। सैकड़ों वर्षों की दासता के बाद उन्होंने भारतीयों को जागृत किया कि अपनी मूल शक्ति आध्यात्म की ओर लौटो। वेद व प्राचीन आध्यात्मिक शक्ति को पहचानों। आत्मनिर्भर बनो। उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए।



स्वामी विवेकानंद के बारे में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था-"यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानन्द को पढ़िये। उनमें आप सब कुछ सकारात्मक ही पायेंगे, नकारात्मक कुछ भी नहीं।" रोमां रोलां ने उनके बारे में कहा था-"उनके द्वितीय होने की कल्पना करना भी असम्भव है, वे जहाँ भी गये, सर्वप्रथम ही रहे। हर कोई उनमें अपने नेता का दिग्दर्शन करता था। वे ईश्वर के प्रतिनिधि थे और सब पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेना ही उनकी विशिष्टता थी। हिमालय प्रदेश में एक बार एक अनजान यात्री उन्हें देख ठिठक कर रुक गया और आश्चर्यपूर्वक चिल्ला उठा-‘शिव!’ यह ऐसा हुआ मानो उस व्यक्ति के आराध्य देव ने अपना नाम उनके माथे पर लिख दिया हो।"


देश की उन्नति–फिर चाहे वह आर्थिक हो या आध्यात्मिक–में स्वामी विवेकानंद शिक्षा की भूमिका केन्द्रिय मानते थे। भारत तथा पश्चिम के बीच के अन्तर को वे इसी दृष्टि से वर्णित करते हुए कहते हैं, "केवल शिक्षा! शिक्षा! शिक्षा! यूरोप के बहुतेरे नगरों में घूमकर और वहाँ के ग़रीबों के भी अमन-चैन और विद्या को देखकर हमारे ग़रीबों की बात याद आती थी और मैं आँसू बहाता था। यह अन्तर क्यों हुआ ? जवाब पाया – शिक्षा!" स्वामी विवेकानंद का विचार था कि उपयुक्त शिक्षा के माध्यम से व्यक्तित्व विकसित होना चाहिए और चरित्र की उन्नति होनी चाहिए। सन् १९०० में लॉस एंजिल्स, कैलिफ़ोर्निया में दिए गए एक व्याख्यान में स्वामी यही बात सामने रखते हैं, "हमारी सभी प्रकार की शिक्षाओं का उद्देश्य तो मनुष्य के इसी व्यक्तित्व का निर्माण होना चाहिये। परन्तु इसके विपरीत हम केवल बाहर से पालिश करने का ही प्रयत्न करते हैं। यदि भीतर कुछ सार न हो तो बाहरी रंग चढ़ाने से क्या लाभ ? शिक्षा का लक्ष्य अथवा उद्देश्य तो मनुष्य का विकास ही है।"



स्वामी विवेकानन्द की वाणी में गजब का आकर्षण रहता था। वे जो भी बात कहते उसमें व्यवहारिक ज्ञान होता था। उनका कहना था:- “तुमको कार्य के सभी क्षेत्रों में व्यावहारिक बनना पड़ेगा। सिद्धान्तों के ढेरों ने सम्पूर्ण देश का विनाश कर दिया है।” यह बात भले साधारण लग रही हो। लेकिन इस एक बात से उन्होंने भारत में वर्षों से पनप रहे पाखंड व अनेक कुरीतियों पर आक्रमण किया था। शायद इसके ही कारण कितनी ही तथाकथित धार्मिक संस्थाएं व धर्म गुरू उनका विरोध करते रहे थे।


जीवन के अन्तिम दिनों में उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा-"एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।" इस बात में बहुत गहराई थी, वे जैसा कि कहते थे एक विवेकानंद से कुछ नहीं होगा। वे अपने जैसे विचारों वाले युवाओं का एक बड़ा दल संगठित करना चाहते थे। जो भारत की गरीबी को मिटाने में पूर्ण रूप से समर्पित हो। भारत की अपनी यात्राओं में उन्होंने गरीबी को देखा था। जिससे वे बहुत दुखी भी रहे। पश्चिम का वैभवशाली भौतिक वातावरण उन्हें कभी आकर्षित नहीं कर पाया, क्योंकि वे भारत भूमि के सच्चे राष्ट्र भक्त थे। इसलिए ही वर्षों से निद्रा में पड़े भारतीयों को वे जगाना चाहते थे। वे अच्छे से जानते थे कि यदि यह भारतीय जाग गया तो विश्व का कल्याण ही होगा। वे हमेशा युवाओं के लिए आदर्श रहे।


आज जब विश्व के युवाओं के सामने महामारीयों व नस्लीय हिंसाओं का मकडज़ाल फैला हुआ है तब इस स्थिति में स्वामी विवेकानंद के ही विचार युवाओं के लिए आदर्श होगें। क्योंकि जैसा स्वामी जी मानते थे, युवाओं के द्वारा ही वर्तमान व भविष्य का कल्याण होता है। युवा ही हमारे समाज की रीढ़ है। इसलिए युवाओं को स्वामी विवेकानंद के विचारों को आत्मसात करके वर्तमान व भविष्य का निर्माण करना चाहिए। जिस तरह स्वामी विवेकानंद ने भारत की जनता में खोये हुए आत्मविश्वास को जगाया। उसी तरह आज के युवाओं को भारत के खोये गौरव को वापस प्राप्त करने के लिए भारत में ही रहकर काम करना होगा। सभी क्षेत्रों में आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए हमारे युवा भाईयों बहनों को स्वामी विवेकानंद जी के विचारों व मार्ग पर चलकर इस लक्ष्य को प्राप्त करना चाहिए। तब कहीं स्वामी विवेकानंद के जन्म दिवस को युवा दिवस मनाना सार्थक माना जाऐगा।



भूपेन्द्र भारतीय
पूरा नाम:- भूपेन्द्रसिंह परिहार
मो. ९९२६४७६४१०
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Monday, January 10, 2022

“कड़ी निन्दा रस का सुख....!!"

 “कड़ी निन्दा रस का सुख....!!"

 

              सुबह सवेरे में .....

गांव के पेले पार रहने वाले मेरे मित्र लचकरामजी को जब भी किसी से असहमति रहती है, तो वे उस व्यक्ति की ‛कड़ी निन्दा’ करना ही सर्वोत्तम प्रतिक्रिया मानते है। लचकरामजी का कहना है कि जो सुख निंदा रस में है भला बाकी नौ रसों में से किसी एक में भी हो सकता है ? और उस पर भी कड़ी निंदा तो उनका प्रिय तीर है। बुद्धिजीवी व विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं के लंबे चौड़े बौद्धिक लेखों व भाषणों के सामने लचकरामजी के ये दो शब्द अक्सर भारी पड़ते हैं। ऐसा लचकरामजी का मानना है। और उनका कड़ी निन्दा में न सिर्फ़ दृढ़ विश्वास है, पर यह उनका प्रमुख हथियार है।

इधर जब से अधिकांश लेखक आलोचना के लिए व्यंग्य की नदी में दिनरात गोते लगा रहे हैं ! और सोशल मीडिया पर अपने अपने खेमे में साहित्य साधना कर रहे हैं...! लचकरामजी का कहना है कि कोई भी बात हो उसके उत्तर में अपन तो बुराई, आलोचना, विरोध, करारा जवाब, व्यंग्य, प्रतिक्रिया, अभिव्यंजना जैसा कुछ करना नहीं जानते है। “बस उनका काम कड़ी निन्दा करना ही है।” लचकरामजी का मानना है कि आधुनिक समय में लोकतांत्रिक ढंग से वक्रोक्ति का सबसे बड़ा हथियार “कड़ी निन्दा” ही है।

सरकारें बात-बात में हर मामले में जाँच, आयोग व समिति बनाना शुरू कर देती है, जब कि कड़ी निन्दा से भी समस्या का समाधान हो सकता है। कड़ी निन्दा में वो बल है जो किसी भी विपक्षी की जमीन हिला सकती है। और कड़ी निन्दा से न सिर्फ़ विपक्षी दलों की खटिया खड़ी हो सकती है, बल्कि पड़ोसी देशों को भी कड़ी निन्दा से चारों खाने चित किया जा सकता है। आगे लचकरामजी अपने इस तीर की विशेषता पर कहने लगे, एक बार रात के समय चोर उनकी भैंस चुरा ले गये। उन्होंने चहु दिशाओं को चुनौती देते हुए इस चोरी पर चोरों की “कड़ी निन्दा” की, अगले दिन उनकी भैंस उनके ग्वाड़े में आकर अपने आप खूंटे के पास आकर खड़ी हो गई और जैसे ही लचकरामजी दूध दोहने भैंस के पास बैठे, भैंस ने फट से दो समय का दूध एक बार में ही दे दिया। उनका कहना है, इसलिए वे “कड़ी निन्दा को ही सर्वोत्तम” हथियार मानते है। “भैंस तक इस तरह की प्रतिक्रिया को समझती है।”

बातचीत ओर आगे बढ़ी तो लचकरामजी चाय पर चर्चा करते हुए कड़ी निन्दा के विषय में फूर्ति से कह रहे थे, कि बताओं निन्दा कौन नहीं करता ? सास बहू की कर रही है, पत्नी पड़ोसी की पत्नी से अपने पति की कड़ी निंदा करती है, विधायक मंत्रियों की, छोटे कार्यकर्ता बड़े नेताओं की, राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की, बच्चे बड़ों की, राजनीतिक मंचों से तो अक्सर कड़ी निन्दा सुनाई ही देती हैं। न्याय की मूर्तियां तक बहुत से गंभीर मामलों में कड़ी निन्दा करके पूर्ण न्याय कर कानूनी कलम तोड़ती रहती हैं...! भ्रष्टाचारी बाबू पर लगे आरोपों पर कार्यवाही के नाम पर उसके बड़े बाबू छोटे बाबू की कड़ी निंदा करते हुए कहते है, “बड़ा खऊ है यार, सारा माल अकेले ही गप कर जाता है !” बड़े साहब से इसकी कड़ी निन्दा करनी पड़ेगी। चाय पी लेने पर लचकरामजी अपने हाथों को अजीब मुद्रा में लाते हुए कहते है, आजकल तो इससे भी ज्यादा गजब हो रहा है ! जब से कोरोना आया है शिक्षक अपने छात्रों को कड़ी निन्दा करते हुए ही परीक्षा में उत्तीर्ण कर रहे हैं । बच्चे भी शिक्षा व्यवस्था की इस वैकल्पिक व्यवस्था “कड़ी निन्दा” से गदगद है।

अंत में लचकरामजी निन्दा रस से ओतप्रोत होते हुए कह रहे थे, अब बताओं जब सभी अपना-अपना काम कड़ी निन्दा करके ही चला रहे है तो हम क्यों नहीं “कड़ी निन्दा” करे ? एक दिन हमने अपने एक पुराने खटारा मित्र की आनलाईन कड़ी निन्दा कर दी तो वह बुरा मान गया। कहता फिर रहा है कि उसकी मानहानि हुई है ! अब बताओं हर घटना की इतिश्री “कड़ी निन्दा” से हो रही हैं, तो हमने क्या उसे कोई देवताओं की तरह कोई श्राप दे दिया है ?


भूपेन्द्र भारतीय 
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Wednesday, January 5, 2022

जिह्वा में फिर गुप्त रोग....!!

 जिह्वा में फिर गुप्त रोग....!!

      

                   इंदौर समाचार में.....

जैसे ही हमारे देश में चुनाव आते हैं नये-नये जुमलों, गालियों, फब्तियां, मुहावरों की बाढ़-सी आ जाती है । आम आदमी महामारी, आपदा या बाढ़ से इतना परेशान नहीं होता है, जितना इन जबानी संज्ञा-सर्वनाम-विशेषणों रूपी गाली से आहत होता है। अब नेता करे भी तो क्या करे ? “दिनोंदिन जागरूक होते मतदाता को कहीं न कहीं तो उलझाना पड़ता है।” यदि नेताजी सीधी बात व सभ्य भाषा में वोट मांगने जाए तो कोई क्यों नेताजी को विजय का आशीर्वाद दे ? हो सकता है वहीं मतदाता नेताजी को गाली देकर या दो चार जूते देकर भगा न दे ? इसलिए ही नेताओं की अपनी मर्ज़ी से या किसी गंभीर रोग के कारण ज़बान फिसल जाती हैं। अब उसमें किसी महिला को नेताजी ने आयटम, टंच माल, हरामखोर या बार बाला कह दिया तो क्या हुआ ? बेचारे नेताजी के यहां क्या पता माँ-बहन-बेटी-बहु है भी या नहीं ? हो सकता है नेताजी राजनीति में दुल्हा बनने के लिए सामाजिक जीवन में अबतक कुँवारे हो ! नेताजी तो भोले है ! उन्हें क्या पता नारी का सम्मान क्या होता है ! उन्हें तो “सत्ता सुंदरी ही चहुंओर दिखती हैं।”


पाँच साल में एक बार तो क्षेत्र में वोट मांगने जाते हैं। ओर ऊपर से यदि “उपचुनाव” आ जाए तो गलती से जबान फिसल ही जाती है। पूर्व में इस पर एक नेताजी कह भी चुके हैं कि “जवान लड़कों से गलतियां हो जाती हैं!” वैसे ही नेताजी की सदाबहार जवान जिह्वा में चुनाव के समय हार-जीत के तनाव में गुप्त रोग हो जाता हैं। वैसे भी सत्ता पाने के बाद हमारे देश में नेता बिरादरी को कहाँ आम आदमी की तरह रहना है। वे तो जीतते ही माननीय, आदरणीय, हरदिल अजीज, मंत्रीजी, बड़े भाई साहब आदि हो जाते है। यदि कुछ थोड़ी बहुत जिबान भी फिसलती है, तो लोकतंत्र में नई गालीयों, मुहावरों, जुमलों, फब्तियों का ही अविष्कार होगा ! जो कि हमारे समाज को आदर्श समाज बनाने में नेताजी का भारी योगदान ही माना जाता रहा है।

इनकी इसी आदर्श वाणी से चुनाव आचार संहिता व उसको बनाने वाले आयोग का भी पता चलता है कि वह अभी अस्तित्व में है ! वे नेताजी ही है जो आम जनता को चुनावी समय में याद दिलाते हैं कि हमारे देश में अभी संवैधानिक मर्यादाएं बची है। नेताजी इसी समय में अपनी जबान निकाल निकाल कर बताते हैं कि “हम है संविधान के रक्षक !” भले चुनाव बाद वे ही संविधान के सबसे बड़े भक्षक निकलते हो ! लोकतंत्र के मंदिर में खड़े होकर शाप तक देते हो...!

जैसे इन दिनों हर क्षेत्र में गला काट प्रतियोगिता है, वैसे ही राजनीति में भी छोटे-बड़े-छुट भैय्या टाईप के नेताओं की बाढ़ आ गई है ओर इसी राजनीतिक तनाव में कभी-कभार जमे-ठमे नेता अपना आपा खो देते हैं। नवोदित नेताओं के दवाब में ओर कुर्सी के मोह में पुराने मठाधीशों की पहले जबान फिसलती है। वे लोकतंत्र के मंदिर संसद को अपना आश्रम समझने लगते हैं और ऋषि-मुनियों जैसे एक दूसरे को शाप दे रहे हो। वैसे भी उन्होंने जनता का धन क्षेत्र के विकास के लिए तो कभी खर्च किया ही नहीं। इसलिए इस तरह के नेता ऐसे में सिर्फ़ जबानी खर्च के ही भरोसे चुनावी मैदान में उतरते है ! ओर फिर यदि किसी नेता ने किसी नेता को कोई गाली-गलौज कर भी दी है तो उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। क्योंकि उन्हें तो गाली खाने की आदत पड़ गई है। वे तो अपने आप को भी “कुत्ता या गधा” कहते पाए गए हैं। “नेता शब्द ही गाली हो गया है।” ऐसा हमारे देश की एक बड़ी महिला नैत्री कह चुकी है। क्योंकि शायद उन्हें यह सब अनुभव लोकतांत्रिक मंदिर के स्पीकर रहते हुए बहुत बार हुआ होगा !

खैर, जबान की आदत ही फिसलने की रही है ! ओर यदि चुनाव हो तो कितने ही नेताओं की जबान में कई तरह के अलग-अलग गुप्त रोग होते रहते हैं। ओर फिर वो नेता ही क्या जिसकी जबान न चले या दौड़े, ऐसे जबानी दौड़-भाग में ही कभी कोई फिसल जाए तो किस बात की माफी ? ओर फिर हर किसी मंच पर ऐसे माफी मांगते रहें तो पांच साल तो माफी मांगने में ही निकल जाए। फिर सत्ता सुंदरी के सहारे सैर-सपाटे कौन करे ? जनता का क्या, जनता को तो ऐसे नेताओं की आदत पड़ गई है ! चुनाव में ही सही पांच साल में कम से कम नेताजी कुछ दिन तो क्षेत्र की जनता का मनोरंजन तो करते हैं। बाकि समय तो वहीं सत्ता सुंदरी के साथ....!!



भूपेन्द्र भारतीय 
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लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....

 लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....         शहडोल चुनावी दौरे पर कहाँ राहुल गांधी ने थोड़ा सा महुआ का फूल चख लिखा, उसका नशा भाजपा नेताओं की...