Friday, January 8, 2021

वे राजनीति में थे, हैं और बने रहेंगे....!!

 

             नईदुनिया ‛अधबीच’ स्तंभ  में ....


उन्हें ऐसा लगता है कि इस देश की राजनीति में उनका होना बहुत जरुरी है। वे सोचते हैं कि जिस दिन उन्होंने राजनीति से संन्यास लिया, वैसे ही इधर देश का लोकतंत्र पंगु हुआ ! ऐसा उन्हें क्यों लगता है ? जब यह पूछा गया तो वे कहने लगे, “जब जब हम विपक्ष में आते हैं तो लोकतंत्र खतरे में आ जाता हैं !” सत्ताधारी दल लोकतंत्र का गला घोंट रहे हैं। ऐसा उन्हें लगता है ! वे राजनीति के माध्यम से समाज में विकास की नदियाँ बहाने के सपने बेचते रहे हैं। ओर उसी विकास की छद्म नदी में वे अपने कुकर्मो का परिवाहन करते रहे है !


वे जब भी अपने गाँव से राजधानी की ओर जाते हैं तो उन्हें लगता है कि “वे विकास की यात्रा कर रहे हैं।” उन्हें अब भी ऐसा लगता है कि विकास गाँवों से शहरों की ओर जाने से ही होगा। इस आने जाने की भागदौड़ में उन्होंने लोकतंत्र को छका दिया है! वे थकते नहीं है ! उनके कार्यकर्ता हांफते रहते हैं। जनता उनकी विकास मैराथन दौड़ देखकर दंग है ! ओर उनके दल के मूल्य दिनोंदिन इस यात्रा में सिकुड़ते जा रहे है। वहीं लोकतंत्र के मंदिर उनकी प्रतिदिन की कदमताल से हतप्रभ हो रहे हैं।
        

                  अमर उजाला में प्रकाशित....


वो तो अच्छा रहा कि उन्हें चुनाव के चक्कर में राजधानियों से नीचे उतरकर जनता के दरबार में आना-जाना होता है। नहीं तो वे कबके लोकतंत्र को राजतंत्र कर देते। वे जब भी चुनाव के चक्कर में क्षेत्र का दौरा करते हैं तो उन्हें कई दौरें पड़ते हैं। इन क्षेत्रीय दौरों के कारण उन्हें दयनीयता की “बेड फिलिंग” आती है। पर वे बेचारे करें तो क्या करें ? वोटबैंक का भी तो दमखम रहता है लोकतंत्र में। इन्हीं वोट की रेवड़ीयों को बटोरने की जद्दोजहद में वे हरदम चुनावी क्षेत्र में दम-फक्क होते रहते हैं।


वे अब भी सोचते हैं कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र का झंडा उनके ही दल ने तौक रखा है ! भले ही उनकी राजनीति अब तक दल के बड़ो को तौकते-तौकते चल रही हो। वे लोकतंत्र के मामले में “अमेरिका को अपना अभिभावक मानते हैं, भले ही उन्हें उधर से पाकेट मनी मिलना बंद हो गई हो !” वे जब भी लोकतंत्र की बात करते हैं मानो “वाईट हाऊस” के चबूतरे पर खड़े हो ! वो तो क्षेत्र की जनता इस राजनीतिक स्वप्न के बीच आ जाती है, नहीं तो वे कबके “प्रेसिडेंट ऑफ अमेरिका” सपनों में ही बन जाते। उनका लोक-चरित्र राष्ट्रीय मिडिया का कई बार ज्वंलत विषय बना है। फिर भी वे अपने चाल--चलन के दम पर ही अपने क्षेत्र की जनता से जनमत मांगते हैं ! उनका राजनीतिक सफर इतने सफेद-काले कारनामों से भरा पड़ा है कि उनके क्षेत्र का विकास हर बार इन रंगों में धूमिल हो जाता हैं !


खैर, उनके आत्मविश्वास का लेवल उनके दल के अच्छे दिनों जैसा ही अबतक बना हुआ है। वे अब भी जहाँ बैठे हैं, वहीं उनका सदन है ! ओर जिस दिन उस जगह से खड़े हो गए, तो खड़े होते ही अपने राजनीतिक कद को ओर अपने दल को फिर खड़ा कर लेगे ! लोकतंत्र के प्रति उनका समर्पण अब भी इतना है कि वे अब भी अपने दल के अध्यक्ष है ! “वे अपने दल के अध्यक्ष थे, हैं ओर बने रहेंगे !” क्योंकि उनका मानना है कि इससे लोकतंत्र व उनकी राजनीतिक जागीरी सुरक्षित है।



©भूपेंद्र भारतीय

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