Sunday, March 21, 2021

पद जो देखन मैं चला, पद न मिलिया कोय....!!

      

अमर उजाला समाचार पत्र में...


पद जो देखन मैं चला, पद न मिलिया कोय !


मैं जब भी किसी सरकारी पद के विषय में सोचता हूँ, तो मन पद की लालसा में गदगद हो जाता हैं ! काश मेरे भी पास कोई सरकारी पद होता ! मैं भी सरकारी गाड़ी से क्षेत्र का ‛भ्रमण’ करता। मेरी भी गाड़ी में लाल बत्ती की जगह बड़े-बड़े ‛हूटर’ लगे होते। सपने तो अब भी आते हैं, कि मैं पद पा चुका हूँ और सरकारी बंगले के बगीचें में सुबह सुबह पौधों को पानी दे रहा हूँ, पर पत्नी स्वप्न में से एकदम से जगा देती हैं और कहती हैं ‛उठो प्राणनाथ, “सरकारी नल में जल आ गया है!” पानी भर लो, आज फिर मेरी कमर में दर्द है !’

जब जब पद के बारे में सोचता हूँ तो मन कहता है, काश संविधान में सबके लिए एक ‛सरकारी पद’ होता। लोकतांत्रिक व्यवस्था में “पद जो देखन मैं चला” पद की महिमा अपरम्पार देखी। चपड़ासी से लेकर पंतप्रधान तक पदों के असंख्य प्रकार है। और हर पद के लिए पंक्तियों में खड़े लाखों-करोड़ों बूढ़े-महिला-नौजवान है। पर मुझे तो एक ही पद चाहिए था। काश कैसे भी मिल जाता। कभी-कभी तो अपनी जाति को ही कोसता हूँ कि भला ये भी कोई जाति है ! आरक्षण तक न मिलता इसमें तो, न ही “इसमें कोई भी सरकारी लाभ !” आखिर कब तक सामान्य होने के चक्कर में असमानता का बोझ ढोता रहूंगा ?

अब पद की इस पद-लोलुपता में पागल हुए जा रहा हूँ। कहीं किसी काम में मन नहीं लगता। सरकार भले मुझे सरकारी पद पर वेतन ‛एक रूपया’ दे, पर किसी निगम-मंडल में ही सही पद का कोई छोटा-मोटा प्रभार दे दे ! क्योंकि मैंने सुना है कि सरकारी पद प्रभारी एक रुपया वेतन में भी भत्तों से ही जीवनयापन कर लेता है। और फिर पदासीन होने पर टेबल के नीचें से मिलने वाले आभारों का कोई मोलभाव हो सकता है ? पद की इस सरकारी महिमा का चमत्कार लोकतंत्र के तीनों खंभों के ईर्दगिर्द रहता है। यह भी मैंने लोकतंत्र में अनुभव किया है। बस सबसे बड़ी चुनौती पद प्राप्त करना है। इस चुनौती के चक्कर में अब तक प्रतियोगिता परीक्षाओं के सैकड़ों फार्म भर चुका हूँ ! और मुझे पूरा विश्वास है कि इन सरकारी परीक्षाओं के आवेदनों से ही मैंने व मेरी चीर युवा पीढ़ी ने अबतक सरकार का अच्छा खासा राजस्व बढ़ा दिया होगा।

मेरे कुछ साथियों ने पद पाने के लिए अपनी रीढ़ की हड्डी तक निकलवा ली और अच्छा खासे पद प्राप्त कर लिये। एक मैं ही मूर्ख हूँ जो अबतक स्वाभिमान के चक्कर में ’आत्मनिर्भर’ नहीं बन पा रहा हूँ। मैंने देखा है सरकारी पद्जीवी बहुत जल्दी आत्मनिर्भर बन जाता है। किसी से पूछा यह चमत्कार कैसे होता है तो बोले, “आपकी आय के स्त्रोतों में दोतरफ़ा वृद्धि हो जाती हैं ! “डबल इंजन की सरकार की तरह”। एक सीधे खाते में, एक टेबल के नीचें से !” कुछ पद तो इतने औजस्वी होते हैं कि उनकी धाक से ही घर में राशन, सब्जी, बच्चों की फीस आसानी से आ जाती हैं।
काश, मेरे भी भाग्य में कोई सरकारी पद होता ! मेरे भी पीछे पीछे गरज करने वाले दुम हिलाते फिरते रहते। मैं भी पद के नशे में चुर रहता, जिससे मुझे अन्य कोई नशा करने पर रुपया खर्च नहीं करना पड़ता। नेता मेरे चुनावी कौशल पर मुग्ध रहते। आस-पड़ोस में धाक रहती। रिश्तों की भरमार रहती। रिटायरमेंट के बाद कोई चिंता न होती। सेवानिवृत्ति के उपरांत किसी आयोग, प्राधिकरण, समिति, जाँच दल का सदस्य तो बन ही जाता !
पर लगता है इस जन्म में पद नहीं मिलने वाला है। आज यदि कबीर साहब होते तो पद के लिए मेरी इस लालसा व दुखड़े पर इतना ही कहते.....
“पद जो देखन मैं चला, पद न मिलिया कोय !
जो कद खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय !!”



भूपेन्द्र भारतीय

Tuesday, March 2, 2021

भारतवर्ष के हृदय में बहती सुंदर सरिता:- माँ नर्मदा

 

एक ऐसी नदी जिसको जितना देखो मन नहीं भरता। इसका जल मानों अमृत। घाटों की बात करो तो शब्दों से इनके सौंदर्य का वर्णन न हो पाए। इस कवितामय सरिता का वर्णन करने में अच्छे-अच्छे कवि व लेखक निःशब्द हो जाए। नर्मदा जी को जब भी देखो यह काव्यात्मक सरिता सी लगती है जिसमे सभी छंद समय-समय पर अपने रंग बिखेरते रहते हैं।


भारत की प्रमुख नदियों में नर्मदा नदी का स्थान है। नदी न कहते हुए अधिकांश लोग माँ नर्मदा जी ही कहते है। नर्मदा जी के किनारे बसे गाँवों के लोग “नर्मदे हर” अभिवादन से ही अपनी बात शुरू करते हैं। नर्मदा नदी का हर घाट अद्भुत सौंदर्य से भरा है। नदी के बहते पानी से संगीतमय ध्वनि आती है। जब भी नदी पर जाओं हर बार स्नान करने का मन होता हैं। मैं सबसे पहले २० वर्ष पहले नर्मदा जी के धारा जी घाट पर अपने दादाजी के साथ गया था। तब से लेकर आज तक बहुत बार इस सौंदर्य की नदी के दर्शन प्राप्त करने का फल प्राप्त हुआ है। बाँधों ने इसके कई घाटों को जलमग्न कर दिया जिससे इसके सौंदर्य को बहुत क्षति पहुंची है।


नर्मदा नदी के तट पर मोहन जोदड़ो जैसी नागर संस्कृति नहीं रही, लेकिन एक आरण्यक संस्कृति अवश्य रही। भारतीय संस्कृति मूलत:आरण्यक संस्कृति है। नर्मदा तटवर्ती वनों में मार्कण्डेय, भृगु, कपिल, जमदग्नि आदि अनेक ऋषियों के आश्रम रहे। यहाँ की यज्ञवेदियों का धुआँ आकाश में मँडराता रहता था। ऋषियों का कहना था कि तपस्या तो बस नर्मदा-तट पर ही करनी चाहिए।
इन्हीं ऋषियों में से एक ने नर्मदा का नाम रेवा भी रखा। रेव यानी कूदना। उन्होंने इस नदी को जब चट्टानों में कूदते-फाँदते देखा, तो इसका नाम रेवा रखा। एक अन्य ऋषि ने इस नदी का नाम नर्मदा रखा। नर्म यानी आनन्द। उनके विचार से यह सरिता सुख या आनन्द देने वाली नदी हैं, इसलिए उन्हें नर्मदा नाम ठीक जान पड़ा।
हजारों वर्षों से नर्मदा नदी पौराणिक गाथाओं में स्थान पाती रही। पुराणों में इस पर जितना लिखा गया उतना और किसी नदी पर नहीं। स्कन्दपुराण का रेवा-खंड तो पूरा का पूरा सौंदर्य की नदी नर्मदा जी पर ही है।


नर्मदा, जिसे रेवा के नाम से भी जाना जाता है, मध्य भारत की एक नदी और भारतीय उपमहाद्वीप की पांचवीं सबसे लंबी नदी है। यह गोदावरी नदी और कृष्णा नदी के बाद भारत के अंदर बहने वाली तीसरी सबसे लंबी नदी है। विंध्याचल पर्वत माला व सतपुड़ा के पहाड़ों को चिरती जब यह नदी बहती है मानों कोई क्षत्राणी शत्रु की सेना को तहस-नहस करते सघन वनों में से शर्प की तरह चल रही है। मध्य प्रदेश राज्य में इसके विशाल योगदान के कारण इसे "मध्य प्रदेश की जीवन रेखा" भी कहा जाता है। यह उत्तर और दक्षिण भारत के बीच एक पारंपरिक सीमा की तरह कार्य करती है। यह अपने उद्गम अमरकंटक से पश्चिम की ओर 1,312 किमी चल(बहकर) कर खंभात की खाड़ी, अरब सागर में जा मिलती है।


नर्मदा हमारे देश की नदियों के बड़े परिवार की एक सदस्या है। लम्बाई के लिहाज से ही इसका नम्बर सातवाँ है। लेकिन इसकी विशेषता इसके जल की मात्रा में नहीं, इसके चट्टानी स्वभाव में है। इसके उन्मत्त प्रपातों में है। इसके प्रपाती दर्रों में है। इसकी सँकरी घाटियों में है, इसके वनों में है, इसके तट पर निवास करती जनजातियों में है और इसके पहाड़ी परिवेश में है। साहस और शौर्य का इतिहास नदियों ने रचा है, वैसा प्रकृति के और किसी घटक ने नहीं रचा। नदियाँ मानो हमसे कहती हैं--राही ! राह कहीं नहीं होती। राह बनाने से बनती है। ऐसे ही साहस का नाम नर्मदा है।


नर्मदा, समूचे विश्व में दिव्य व रहस्यमयी नदी है, इसकी महिमा का वर्णन चारों वेदों की व्याख्या में श्री विष्णु के अवतार वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण के रेवाखंड़ में किया है। विश्व में नर्मदा ही एक ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है और पुराणों के अनुसार जहाँ गंगा में स्नान से जो फल मिलता है नर्मदा के दर्शन मात्र से ही उस फल की प्राप्ति होती है। यहां तक कि मार्कांडेय परिक्रमा तो बारह बरस तक चलती हैं। नर्मदा नदी पुरे भारत की प्रमुख नदियों में से एक ही है जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है।


विगत दिनों जब मैंने अमृतलाल वेगड़ की किताब “तीरे-तीरे नर्मदा” पढ़ी, तो इस पुस्तक में नर्मदा नदी का अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य चित्रण पढ़ने को मिला। यह पुस्तक पढ़ते ऐसा लगता है जैसे लेखक के साथ पाठक भी नर्मदा जी की परिक्रमा कर रहा है। नर्मदा नदी इकलौती नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती हैं। अभी पीछले सप्ताह नर्मदा जी में स्नान करने गये तो परिक्रमावाशीयों का दर्शन करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन्हें देखकर मन ऊर्जा व आस्था से भर गया। वेगड़ जी अपनी पुस्तक में नदी के सौंदर्य का ऐसे चित्र खीचते है मानों जीवंत हो, एक जगह वे लिखते हैं कि:- “रात को नर्मदा की मर्मर ध्वनि बराबर सुनायी देती। प्रायः हर रात कल-कल बहती नर्मदा का रव सुनाई देता। दिन में वह भले ही नर्मदा हो, रात में रेवा है। दिन में वह दृश्य है तो रात में श्रव्य।” ऐसे ही वेगड़ जी इस नदी के अद्भुत सौंदर्य का जीवंत चित्रण अपनी पुस्तक में अपनी नर्मदा परिक्रमा के माध्यम से करते हैं।


सुदूर केरल से आकर एक बालक शंकर ने नर्मदा नदी के सबसे महत्वपूर्ण घाटों में एक ओंकारेश्वर पर गुरु गोविन्दपाद के आश्रम में रहकर विद्याभ्यास किया था। वह बालक ओर कोई नहीं आद्य शंकराचार्य थे, जो हमारे देश के सर्वश्रेष्ठ परिव्राजक रहे। भारत की भावनात्मक एकता के लिए उन्होंने जो किया, वह अनुपम है। ऐसे आद्य शंकराचार्य की पावन स्मृति ओंकारेश्वर से जुड़ी है। “त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवी नर्मदे!” ( चरणकमल मरण नमन तुम्हारे, स्वीकारो हे देवि नर्मदा), जैसी महान रचना आद्य शंकराचार्य द्वारा रचित नर्मदा स्तुति या कहें नर्मदा जी का काव्य के माध्यम से सौंदर्य का चित्रण है।


मध्यप्रदेश की जीवनदायिनी या कहें कि ऐसी नदी जिसका कंकर-कंकर शंकर है। जिसके हर घाट की अपनी विशेषता है। शायद ही किसी नदी में इतने मोड़, घुमाव, लचक, अल्हड़पन, नैसर्गिक सौंदर्य, कही शांति, तो कहीं पहाड़ों को चिरती हुई सतत बहती यह चिरकुँमारी किसी कविता की सरिता से कम नहीं है। लेकिन पीछले ३० वर्षों में जितना नर्मदा-तट का भूगोल बदला है, उतना इससे पहले २,५०० वर्षों में नहीं बदला होगा। कुछ कुछ यह बात मन को दुखी करती हैं। बाँधों व जंगलों की कटाई से इस नदी के सामने भी आज बहुत से संकट आ खड़े हैं। रेत माफियाओं ने इस सौंदर्य की सरिता का हृदय छलनी कर दिया हो। जिससे कि इसका प्रवाह तो बाधित हुआ ही है। लेकिन आज इसके साथ रहने वाले हजारों जीव जंतुओं पर भी गहरा संकट आ खड़ा हुआ है। लोकसंस्कृति व प्रकृति को साथ लेकर चलने वाली इस नदी का वास्तविक स्वरूप बना रहे, इसके लिए जनमानस को साथ आना होगा। जिस नदी ने हमेशा से भारतीय लोकजीवन को समृद्ध किया व जीवंत रखा। उस संस्कृति सरिता की ओर भी हमें ध्यान देना चाहिए।



भूपेन्द्र भारतीय

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