Thursday, July 29, 2021

आरक्षण, जाति और मैं....!!

 आरक्षण, जाति और मैं !!

      
इमेज गुगल से...



आरक्षण व जाति जब तक अलग-अलग रहे इन शब्दों से मुझे कभी कोई दिक्कत नहीं रही हैं, लेकिन जब से ये दोनों एकदूसरे के साथ आए हैं। मुझे इस ‛जोड़ी से नफ़रत’ है। इसलिए नहीं कि इनने मेरा कोई नुकसान किया हो। पर इनके साजिशन साथ आने से कितनों के ही साथ सामाजिक अन्याय हुआ है। वैसे मेरा तो इन दो शब्दों से इतना ही संबंध रहा है कि यदाकदा कोई नौकरी या शिक्षा से संबंधित फार्म भरा तो किसी कालम में जरूरी होने पर “जाति व आरक्षण की हाँ या नहीं में मौन स्वीकृति” दी है ! लेकिन मैंने कभी भी इन दोनों सामाजिक व राजनीतिक हथियारों का कोई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लाभ नहीं लिया। क्योंकि “मेरे जैसा निम्न मध्यवर्गीय “भारतीय” समय पर भारतीय रेलवे में सीट आरक्षित नहीं करा पाता है, तो आरक्षण से नौकरी क्या ओर कैसे सुरक्षित करता !”

जब भी हमारे देश या किसी राज्य में चुनाव होते हैं तो इन दो शब्दों को बहुत ऊछाला जाता है। आरक्षण व जाति रूपी दो हथियारों से हमारे देश के नेता अधिकांश समय राजनीतिक फसल काटते आये हैं। फिर वो बलात्कार जैसे जघन्य अपराध हो या आत्महत्या जैसे कृत्य, हमारी राजनीति कहीं न कहीं जाति या आरक्षण का राजनीतिक फार्मूला निकाल ही लेती है। मैं जब भी किसी नेता से हमारे देश के विकास की बात करता हूँ तो वह मुझे मेरी जाति की याद दिला देता है ओर जब नौकरी की बात करता हूँ तो आरक्षण का रोना रोते हैं। ओर अंत में “आत्मनिर्भर” बनने की सलाह देकर मेरा वोट ले जाते है !

मैंने कितनी ही बार माननीय सर्वोच्च न्यायालय व कई विधि के विद्वानों के माध्यम से इन दो शब्दों के गुढ़ अर्थ व रहस्य को समझना चाहा है। लेकिन ‛हर तीन-चार महीनों में इनकी परिभाषाएं बदलती रहती है !’ “कभी मायलार्ड के पावरफुल माईंड की वजह से, तो कभी पोलिटिक्स के पावरफुल प्लान के कारण !” वहीं जिसके लिए वास्तविकता में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। वे लोग आजतक इन दो राजनीतिक-सामाजिक सांडों की आपसी लड़ाई में बागर(बाड़) की तरह नुकसान उठाते आए हैं। ओर स्वतंत्रता के दिनों से लेकर अबतक वहीं के वहीं हैं।
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में मुझे आज तक समझ नहीं आया कि कोई तथाकथित दलित नेता चुनाव में आरक्षित सीट का फार्म भरता है लेकिन उसी फार्म में उसकी सम्पत्ति का विवरण करोड़ों में रहता है ! सात बार के सांसद-विधायक आठवीं बार भी चुनाव में उम्मीदवारी आरक्षित वर्ग की सीट से रहेगें, ऐसा सुनता हूँ तो लगता है “आरक्षण की प्रणाली के पीछे कौन-से सामाजिक न्याय का सिद्धांत काम करता है ?” इस दुविधा पर सामाजिक न्याय मंत्रालय को कितने ही पत्र लिखें, लेकिन आजतक उधर से जवाब नहीं आया। अब बेचारे मंत्रीजी जवाब दे भी तो कैसे ? वे स्वयं दलित उद्धार के नाम पर राजनीति करते-करते यहां तक पहुंचे हैं !

जाति का वर्गीकरण जिस गति से हमारे देश में होता आया है, कोई आश्चर्य नहीं कि अगले दस बीस सालों में हर दूसरा व्यक्ति अपनी अलग जाति की तख़्ती लेकर आरक्षण की भीख मांगता मिले ! ऊंच-नीच इन दोनों शब्दों में इतनी व्यापक स्तर पर है कि इनके चक्कर में कितने ही दलों की सत्ता कितनी ही बार ऊँची-नीची हो गई। कितने ही नेताओं के कुर्तें-पयीजामो का रंग बदल गया। कितने ही नौकरशाहों के बंगले बदल गए, कितने ही सरकारी कार्य जातिगत समीकरण देखकर फाईलों में रोके गए। हमारे नेताओं ने देश को चलाने के लिए नीतियां पश्चिमी देशों से आयात की ओर सत्ता में आने के लिए जाति व आरक्षण का सहारा लिया ! ओर इसी कारण यह कहने में भी कोई अतिशयोक्ति नहीं कि “जाति और आरक्षण का चश्मा, हम भारतीयों को कभी एक नहीं होने देगा ! जिसके कारण नेता अपनी-अपनी रोटी सेकते रहेंगे और आम आदमी गरीबी की आँच में जलता रहेगा !”

मैं तो ईमानदारी से कहता हूँ कि मुझे आज तक आरक्षण व जाति से कोई शिकायत नहीं रही। क्योंकि मैं न तो आरक्षण के दायरें में आता हूँ, न ही मुझे जाति शब्द से कोई गिला-शिकवा है। मुझे तो खुशी है कि चलो इन दोनों से कुछ लोगों की राजनीतिक-सामाजिक दुकानें तो चलती हैं। हाँ इन दोनों के साथ आने से मुझे साजिश की बू आती है। जिस तरह से हर चुनाव में आरक्षण को यथावत कायम रखने के किसी साश्वत नियम की तरह वादें कीए जाते हैं ! मैं तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि हमारे देश से कोई “माई-का-लाल” आरक्षण व जाति के वर्तमान स्वरूप में रत्तीभर भी परिवर्तन नहीं कर सकता है। क्योंकि यदि ऐसा कुछ भी गलती से हो गया तो कितनों की ही राजनीतिक दुकाने बंद हो जाएगी।



भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

Wednesday, July 21, 2021

जा रही है यह लहर भी....!!

 


जा रही है यह लहर भी....!!

         
                   दैनिक जनवाणी मेरठ में.... 

हमारे उत्सव प्रधान देश में हर बात पर उत्साह से उत्सव मनाना जरूरी है। यदि हम ऐसा न करें तो हमें किसी भी काम को करने में मज़ा नहीं आता है। भले किसी के बालक का मुंडन संस्कार हो या फिर हमारी गाय को बछड़ा हुआ हो या फिर पड़ोसी देश की क्रिकेट टीम, मैच में हमसे हारी हो। कुछ तो गाजा-बाजा बजना ही चाहिए ! हम तो आपदा में भी उत्सव का अवसर निकाल ही लेते है। हमें कोई न कोई आयोजन करना ही होता है। आखिर हम उत्सव प्रेमी जो ठहरे।
ऐसे ही उत्सव रूपी आयोजनों की ‛लहरें’ हमारे यहां सालभर आती जाती रहती हैं। कोरोना की लहरें तो पीछले दो साल से आ रही है लेकिन हमारे भारतवर्ष में हजारों सालों से जाने कितनी लहरें आती जाती रही है।

     
कभी ज्ञान की लहर आई थी, तो कभी-कभी अज्ञान की भी तगड़ी लहर आती रही है। कभी विदेशी यात्रियों की लहर आई और उनके पीछे बाहरी लूटरों का भी काफिला घुस आया। कभी धर्मनिरपेक्षता की लहर आती है ओर अर्धम का बवंडर खड़ा कर जाती है। सदियों पहले धर्म परिवर्तन की लहर आई जो अब तक भी देखी जा सकती है। लहरों के हम जनक है ! हमने ही आधुनिक युग को “भ्रष्टाचार लहर” से लाभान्वित किया है। कभी हमारे गाँवो में दूध-दही की धाराप्रवाह लहर रहती थी और आज है कि हर गांव में देशी शराब व रसायनिक दवाइयों की लहर से वर्तमान पीढ़ी पिलपिलाकर लपलपा रही है।  
             

          दैनिक ट्रिब्यूनल पंजाब में.....

बहुत बार ऐसा लगता है कि “जा रही है यह लहर भी” पर फिर कोई नई लहर जन्म लेती है। लगता है हमारे यहां लहरों के लिए सबसे ज्यादा ऊपजाऊ भूमि है। “भले नई लहरों के बीज देश के बाहर से आये, पर हम इन लहरों को सिंचित-पोषित-पुष्पित करने में बड़े जुगाड़ी है।” और क्यों न हो ! जुगाड़ी होने की विश्वख्याति से हमें ही मनोनीत किया गया है। हम जिस ओर चल दे, लहरें अपने-आप बनने लगती है।

“लहरों पर सवार होना”, हमें बचपन से सिखाया जाता है। कभी होनहार बालक बनने की लहर पर, तो कभी कामयाब युवा होने के लिए लहरों में धकेल दिया जाता है। पीछले दिनों ऐसी लहर आई कि उसके कारण अबतक शौक संवेदनाओं की लहर चल रही है। वहीं शौक संवेदनाओं की लहर को माननीयों ने ऐसा लपका की उसके कारण गांव-कस्बों में अबतक राजनीतिक बवंडर चल रहे हैं। वहीं स्वतंत्रता के बाद से आजतक ‛विकास’ की लहर चलाने के भी वादें होते आए हैं ! लेकिन विकास की लहर का हम अबतक इंतज़ार कर रहे है।
विगत दिनों दूसरी लहर में लॉकडाउन के कारण अपने ही घर में घीर गई जनता अब घर से ऐसे निकल रही है ! मानों पर्यटन और सेर-सपाटे के लिए जैसे कोई सरकारी आदेश निकला हो और यहीं भोली जनता उस आदेश का ईमानदारी से पालन कर रही हो ! हमारे देश की सड़कों, चौराहों, सरकारी भवनों के आसपास प्रतिदिन ऐसी कोई न कोई “जन-गण-मन की लहर” बैठती-उठती-दौड़ती ही रहती है। प्रतिदिन समाचार पत्रों व सूत्रों के हवाले से आई खबरों में नीत-नई लहरों की तूफानी जानकारी रहती हैं। इन दिनों इन्हीं आती-जाती लहरों के घटाटोप से मन बौराया जा रहा है....!!



भूपेन्द्र भारतीय 

Tuesday, July 6, 2021

व्यस्त लोगों की दुनिया....!!

 

नईदुनिया अधबीच में प्रकाशित....


 व्यस्त लोगों की दुनिया....!!


व्यस्त लोगों की दुनिया भी विचित्र घटनाओं से भरी चलती है। आप वर्तमान समय में व्यस्त भले न हो पर लोगों की नज़र में दिखना जरूर चाहिए। आपका कोई मित्र आपसे घर मिलने आये और आप उसको सीधे फोकटिया टाईप टीवी देखते मिल जाओ ! आपकी कोई इज्ज़त नहीं करेगा। लेकिन आप बाथरूम में हो ओर आपकी पत्नी आपके मित्र से कहें कि ‛भय्या वे तो अभी पुजा कर रहे है’ ! “यहीं बात आपके सम्मान में चार चाँद लगा देगी।" मित्र भी सोचने लगेंगा !, “ये आजकल भक्ति-भाव में कितना व्यस्त रहता है।”

मेरे एक मित्र ने व्यस्त दिखने के लिए अपने घर की छत पर एक छोटी-सी वाटिका तैयार कर ली। एक दिन उसी मित्र से मिलने गया। “भले ने मिलने के लिए एक घंटा प्रतिक्षा करवाई !” ओर ऊपर से कहता है क्षमा करना यार, आजकल व्यस्तता बढ़ गई है। इतने सारे काम हो गए हैं कि पता ही नहीं चलता दिन कैसे निकल जाता है। ऊपर से इन पौधों का भी ध्यान मुझे ही रखना पड़ता हैं ! ‛हमारे घर में सभी बहुत व्यस्त रहते हैं।’ जो कि सारे मोहल्ले को पता है, “भला पत्नी की नौकरी पर ही सारे मजे छान रहा है।” दिनभर घर के ही काम में व्यस्त रहकर आराम फरमाता है। शायद ऐसे ही लोगों के लिए कहा गया है कि “काम कोड़ी का नी और फुर्सत घड़ी भर की नहीं।”

ऐसे ही घरघुस्सू व्यस्त श्रीमानों के रखरखाव के लिए सरकारों को आगे चलकर “बिजी बंदों का रखरखाव” जैसी योजना बनाना पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं होना होगा। कुछ व्यस्त लोग गलती से कभी कहीं घर से बाहर निकल जाये, तो पुरी दुनिया इनकों आफत लगती है। हर चीज में ये नुक्स निकालेंगे। सड़क पर कचरा दिखा तो सरकार को कोसेंगे, गाय इनके रास्ते में आ गई तो गौ रक्षकों को गाली देगें, सड़क पर ट्राफिक है तो पूंजीवादियों को बुरा-बुरा कहेंगे, गतिरोधक आ गया तो पड़ोसी की माँ-बहन करेंगे, अचानक से बारिश होने लगे तो सीधे इन्द्र देव को ही दो चार गाली बक देते हैं ! न जाने क्यों इन व्यस्त जैसे दिखने वालें लोगों को हर एक बात से परेशानी होती है ? मौसम व प्रकृति तक को ये अपनी प्रतिक्रियाओं से नहीं छोड़ते हैं !

फिर भी समाज में इनकी बड़ी इज्ज़त रहती है ! इन्हें फोन करो तो फटाक से कहते है, “अभी बिजी हूँ थोड़ी देर से लगाता हूँ !” इनके जैसों के बारें में सोचकर लगता है कि कहीं ‛बिजी’ शब्द, “लेजी” का पर्यायवाची तो नहीं हो गया है ? किसी भी जगह या कार्यक्रम में देर से पहुंचना इनकी व्यस्तता का पैमाना है। इन्हें लगता है कि देर से पहुंचने पर लोग इज्ज़त करते हैं। “जैसे नेताओं के देर से आने की आदत के कारण उनका मान-सम्मान होता है ! और उन्हें बड़ा आदमी माना जाता है।”

“व्यस्त रहो और मस्त रहो”, नारें का असली आनंद यही ‛व्यस्त’ रहने वाले महामानव ले रहे हैं। ऐसे ही व्यस्त लोगों से हमारे देश के सरकारी भवन भरें पड़े। शिक्षा संस्थानों के आसपास घांस काटते ऐसे “व्यस्ततम्” नौजवान आसानी से देखें जा सकते है। इनकी व्यस्त दिनचर्या में सरकारी फाईलों को तकिया बनाकर व्यस्तता को जीवंत रखा जाता है।

आजकल तो व्यस्तता का पावर-पैक हर किसी ने अपने मोबाइल में डलवा लिया है। ऐसा लगता है जैसे दसों दिशाओं में कुकुरमुत्तों की तरह व्यस्त लोगों का खेला हो रहा है। इनकी व्यस्तता जंगल के उस सरपंच(बंदर) की तरह है जो एक डाल से दूसरी डाल पर दिनभर कूदा-फाँदी ही करता रहता है लेकिन उसकी नीयत सभी जानते है।
खैर, आजकल की इस “व्यस्त” दिनचर्या में मानव आखिर कितना व्यस्त रहे और कितना दिखें, यह शोध का विषय है ! पर शोध में भी बौद्धिक परिश्रम लगता है और ऐसे में व्यस्तता की मस्ती से फुर्सत मिले तो कुछ ओर सोचें....!!


भूपेन्द्र भारतीय 


लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....

 लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....         शहडोल चुनावी दौरे पर कहाँ राहुल गांधी ने थोड़ा सा महुआ का फूल चख लिखा, उसका नशा भाजपा नेताओं की...