आरक्षण, जाति और मैं !!
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आरक्षण व जाति जब तक अलग-अलग रहे इन शब्दों से मुझे कभी कोई दिक्कत नहीं रही हैं, लेकिन जब से ये दोनों एकदूसरे के साथ आए हैं। मुझे इस ‛जोड़ी से नफ़रत’ है। इसलिए नहीं कि इनने मेरा कोई नुकसान किया हो। पर इनके साजिशन साथ आने से कितनों के ही साथ सामाजिक अन्याय हुआ है। वैसे मेरा तो इन दो शब्दों से इतना ही संबंध रहा है कि यदाकदा कोई नौकरी या शिक्षा से संबंधित फार्म भरा तो किसी कालम में जरूरी होने पर “जाति व आरक्षण की हाँ या नहीं में मौन स्वीकृति” दी है ! लेकिन मैंने कभी भी इन दोनों सामाजिक व राजनीतिक हथियारों का कोई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लाभ नहीं लिया। क्योंकि “मेरे जैसा निम्न मध्यवर्गीय “भारतीय” समय पर भारतीय रेलवे में सीट आरक्षित नहीं करा पाता है, तो आरक्षण से नौकरी क्या ओर कैसे सुरक्षित करता !”
जब भी हमारे देश या किसी राज्य में चुनाव होते हैं तो इन दो शब्दों को बहुत ऊछाला जाता है। आरक्षण व जाति रूपी दो हथियारों से हमारे देश के नेता अधिकांश समय राजनीतिक फसल काटते आये हैं। फिर वो बलात्कार जैसे जघन्य अपराध हो या आत्महत्या जैसे कृत्य, हमारी राजनीति कहीं न कहीं जाति या आरक्षण का राजनीतिक फार्मूला निकाल ही लेती है। मैं जब भी किसी नेता से हमारे देश के विकास की बात करता हूँ तो वह मुझे मेरी जाति की याद दिला देता है ओर जब नौकरी की बात करता हूँ तो आरक्षण का रोना रोते हैं। ओर अंत में “आत्मनिर्भर” बनने की सलाह देकर मेरा वोट ले जाते है !
मैंने कितनी ही बार माननीय सर्वोच्च न्यायालय व कई विधि के विद्वानों के माध्यम से इन दो शब्दों के गुढ़ अर्थ व रहस्य को समझना चाहा है। लेकिन ‛हर तीन-चार महीनों में इनकी परिभाषाएं बदलती रहती है !’ “कभी मायलार्ड के पावरफुल माईंड की वजह से, तो कभी पोलिटिक्स के पावरफुल प्लान के कारण !” वहीं जिसके लिए वास्तविकता में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। वे लोग आजतक इन दो राजनीतिक-सामाजिक सांडों की आपसी लड़ाई में बागर(बाड़) की तरह नुकसान उठाते आए हैं। ओर स्वतंत्रता के दिनों से लेकर अबतक वहीं के वहीं हैं।
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में मुझे आज तक समझ नहीं आया कि कोई तथाकथित दलित नेता चुनाव में आरक्षित सीट का फार्म भरता है लेकिन उसी फार्म में उसकी सम्पत्ति का विवरण करोड़ों में रहता है ! सात बार के सांसद-विधायक आठवीं बार भी चुनाव में उम्मीदवारी आरक्षित वर्ग की सीट से रहेगें, ऐसा सुनता हूँ तो लगता है “आरक्षण की प्रणाली के पीछे कौन-से सामाजिक न्याय का सिद्धांत काम करता है ?” इस दुविधा पर सामाजिक न्याय मंत्रालय को कितने ही पत्र लिखें, लेकिन आजतक उधर से जवाब नहीं आया। अब बेचारे मंत्रीजी जवाब दे भी तो कैसे ? वे स्वयं दलित उद्धार के नाम पर राजनीति करते-करते यहां तक पहुंचे हैं !
जाति का वर्गीकरण जिस गति से हमारे देश में होता आया है, कोई आश्चर्य नहीं कि अगले दस बीस सालों में हर दूसरा व्यक्ति अपनी अलग जाति की तख़्ती लेकर आरक्षण की भीख मांगता मिले ! ऊंच-नीच इन दोनों शब्दों में इतनी व्यापक स्तर पर है कि इनके चक्कर में कितने ही दलों की सत्ता कितनी ही बार ऊँची-नीची हो गई। कितने ही नेताओं के कुर्तें-पयीजामो का रंग बदल गया। कितने ही नौकरशाहों के बंगले बदल गए, कितने ही सरकारी कार्य जातिगत समीकरण देखकर फाईलों में रोके गए। हमारे नेताओं ने देश को चलाने के लिए नीतियां पश्चिमी देशों से आयात की ओर सत्ता में आने के लिए जाति व आरक्षण का सहारा लिया ! ओर इसी कारण यह कहने में भी कोई अतिशयोक्ति नहीं कि “जाति और आरक्षण का चश्मा, हम भारतीयों को कभी एक नहीं होने देगा ! जिसके कारण नेता अपनी-अपनी रोटी सेकते रहेंगे और आम आदमी गरीबी की आँच में जलता रहेगा !”
मैं तो ईमानदारी से कहता हूँ कि मुझे आज तक आरक्षण व जाति से कोई शिकायत नहीं रही। क्योंकि मैं न तो आरक्षण के दायरें में आता हूँ, न ही मुझे जाति शब्द से कोई गिला-शिकवा है। मुझे तो खुशी है कि चलो इन दोनों से कुछ लोगों की राजनीतिक-सामाजिक दुकानें तो चलती हैं। हाँ इन दोनों के साथ आने से मुझे साजिश की बू आती है। जिस तरह से हर चुनाव में आरक्षण को यथावत कायम रखने के किसी साश्वत नियम की तरह वादें कीए जाते हैं ! मैं तो इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि हमारे देश से कोई “माई-का-लाल” आरक्षण व जाति के वर्तमान स्वरूप में रत्तीभर भी परिवर्तन नहीं कर सकता है। क्योंकि यदि ऐसा कुछ भी गलती से हो गया तो कितनों की ही राजनीतिक दुकाने बंद हो जाएगी।
भूपेन्द्र भारतीय
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