Sunday, June 26, 2022

‛मेंगो डेमोक्रेसी’ में कटहल-वाद....!!

 ‛मेंगो डेमोक्रेसी’ में कटहल-वाद....!!

       



आम का मौसम शिखर पर है। कोई सुबह उठते ही चार आम दबा रहा है तो कोई दो आम चूसकर दो-चार हो रहा है। कुछ नौसिखियें शाम का समापन आम के जूस से कर रहे हैं। वहीं कुछ बुद्धिजीवी आम को चूस-चूसकर स्वाद लेने का आनंद ले रहे हैं। इधर देखने में आया है कि डूड पीढ़ी आम को काटकर खाने में ही अपनी शान समझ रही हैं ! इस बीच इसी मौसम में कटहल भी कोई कम तेवर नहीं दिखा रही हैं। उसका तेल अलग ही चढ़ा हुआ है। उसके नाम से मेंगो डेमोक्रेसी में एक नया वाद ही चल निकला है, “जिसे कई आरामपसंद बुद्धिजीवी कटहल-वाद कहने लगे हैं।”
एक तरफ आम आदमी आम मचकाने में मगन है। कटहल प्रेमी कटहल-वाद चलाने में पूरा जोर लगा रहे हैं। वहीं मेंगो डेमोक्रेसी में कुछ कट रहा है तो बहुत कुछ मेंगोमय हो रहा है।

हम सब जानते है कि लोकतंत्र में आम आदमी मेंगो की तरह होता हैं। जिसे डेमोक्रेसी के सैनिक कभी भी चुस कर फेंक सकते हैं। जिस तरह से कटहल को काटने के लिए चाकू पर हल्का-सा तेल लगाया जाता है, डेमोक्रेसी के सैनिक भी इसी तरह से आम आदमी के वोट आम व खास चुनाव में काटते हैं। आम आदमी अपने को आम लोकतंत्र का सिपाही समझता है लेकिन वह हर आम व सामान्य चुनाव में शिकार हो जाता है। मेंगो डेमोक्रेसी में माननीयों का लोकतांत्रिक मिक्सर आये दिन ‛मेंगो मेन’ नाम का जूस बनाते रहते है। कभी पांच सितारा होटलों में कटकर, तो कभी अंतरात्मा की आवाज़ के कारण डाक बंगलों व सर्किट हाउस में मेंगो मेन का “सर्वे भवन्तु सुखिनः” करके...!

इधर विद्वानों के मत अनुसार जब से मेंगो डेमोक्रेसी में कटहल-वाद आया है बाकि सारे वाद इस वाद के सामने बेबुनियाद होते जा रहे हैं। कटहल-वाद में राजनीतिक महत्वकांक्षाओं का ऐसा तगड़ा बघार लगाया जा रहा है कि उसके सामने बाकि सारें वादों की सांसें फुल रही हैं। एक राज्य में जबतक मेंगो मेन सरकार बनाता है, “तबतक दूसरे राज्य में मेंगो डेमोक्रेसी करवट बदल लेती है। वहीं तीसरे राज्य से खबर आती है कि कोई कच्ची-पक्की डेमोक्रेसी को ही तोड़ कर किसी रिसॉर्ट में ले गया है।" बेचारी मेंगो डेमोक्रेसी के पांच साल होटल-होटल व एक राज्य से दूसरे राज्य में कटहल-वाद से छुपने में ही निकल जाते हैं।

इधर आमों का मौसम चलता रहता है और आम आदमी आम चूसते-चूसते टीवी पर यह मेंगो डेमोक्रेसी का मेगा ड्रामा देखने का आनंद भी उठाता रहता है। कटहल-वाद के जनक लगे हैं डेमोक्रेसी को काटने-पीटने-जलाने में ! कुछ पत्थर-वीर पत्थर फेंककर मेंगो डेमोक्रेसी पकने ही नहीं देना चाहते हैं। कोई अपनी मेंगो मांगों के लिए रेलगाड़ियों को जला रहा है, तो कोई आम आदमी बने मेंगो ट्वीट कर रहा है। मौसम विभाग हर बार की तरह इस बार भी आम से कुछ खास बारिश के संकेत बता रहा है। इधर बाजार में अब सभी तरह के आम आसानी से खरीदें जा सकते हैं। बस आपकी जेब में कुछ खास लोगों का फोटो लगा कागज पर्याप्त मात्रा में होना चाहिए। फिर आप बाजार से निकलते हुए कुछ भी व कैसे भी आमोखास को खरीद सकते हो !

इन सब झंझटों से दूरी बनाकर भी कुछ भलें आम आदमी चारों पहर तरह-तरह के आम दबा रहे हैं। कोई किसी फाईल को आगे बढ़ाने के नाम, तो कोई कम्प्यूटर के डाऊन होते सर्वर को गति देने के लिए आम(मेंगो डेमोक्रेसी) का सहारा ले रहा है। शाकाहारी आम आदमी कटहल पकाकर ही अपने वादें पूरा कर रहा हैं। इन दिनों मेंगो डेमोक्रेसी में चारों दिशाओं से हवा चल रही है। कहीं गर्मी कम हो रही है तो कहीं उमस बढ़ने लगी है। लगता है बरखा-रानी अपनी फुहारों की यात्रा पर निकल चुकीं है। देखते हैं आम आदमी आमरस का आनंद कबतक ले पाता है, वहीं कटहल-वाद के झंडाबरदार कहाँ तक अपनी साग पका पाते हैं व साख बचा पाते हैं....!!

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भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

Sunday, June 19, 2022

वे कहते हैं, “बेशर्म के फूल पर लिखो”....!!

 वे कहते हैं, “बेशर्म के फूल पर लिखो”....!!




वे कहते हैं कि कवि महोदय ‛बेशर्म के फूल’ पर कविता लिखो ! हाँ वहीं ‛बेहया’ का फूल ! उन्हें हर लेखक कवि ही लगता है। मैंने अपने आप को कभी कवि नहीं माना। वे ना जाने क्यों मुझे कवि मानते हैं। मैंने उन्हें कई बार कहा कि मैं तो सिर्फ़ थोड़ा बहुत व्यंग्य व समसामयिक विषयों पर ही किबोर्ड चलाता हूँ। मुझसे कवि कर्म का निर्वाह करना मुश्किल होता है। पर वे इसी बात पर अड़े रहते हैं कि मैं तो कविता ही लिखूं और वह भी बेशर्म, अमलतास, गुलमोहर, गेंदा, चमेली, मोंगरा आदि जैसे फूलों पर लिखूं।

पिछले दिनों वे मेरे एक व्यंग्य पर ही भड़क गए। मुझे अपने ओटले पर बुलाकर कहने लगे ;-
‛यह क्या है ?’
मैंने कहा- व्यंग्य है !
यह सुनकर व मेरे व्यंग्य को बगैर पढ़े ही वे कहने लगे कि ‛हमें व्यंग्य-फंग समझ नहीं आता। आपसे कितनी बार कहा कि आप सिर्फ़ फूलों, पहाड़ों, चाँद-सूरज, चंपा-चमेली पर ही कविता लिखा करों।’ ओर अपने ओटले के आसपास वाले बेशर्म, अमलतास, गुलमोहर आदि के फूलों को बतातें हुए कहने लगे कि इन फूलों पर काव्य करों।
आगे कहने लगे ;- “राजनीति, पंथ, मजहब, ईश्वर, दीन-पीन, संविधान, पंथनिरपेक्षता आदि पर आपको कुछ भी लिखनी की कोई जरूरत नहीं है। इनके लिए हमारा सुपारी का डंडा ही ठीक है। इस डंडे की आवाज बहुत बुलंद है। इस डंडे जैसे गहरी आवाज आजकल आपकी कलम में कहाँ होती हैं।”

वे आगे अपनी बात कहते ही गए। इस प्रवाह में वे ऐसी बातें इसलिए कर पा रहे थे क्योंकि इन दिनों आचार संहिता चल रही है। जब भी हमारे देश में आचार संहिता होती है। बेशर्म जैसे फूलों के दिन भी अच्छे दिन की श्रेणी में आ जाते हैं। मेरे जैसा व्यक्ति अब जाए तो जाए कहाँ ? लिखें तो क्या लिखे ! घर में रहो तो आम के अचार के लिए अचार संहिता का पालन करों और घर के बाहर जाओ तो कभी आम व कभी किसी खास आचार संहिता का पालन करो। मुझे कविता लिखना आती नहीं। वे हर बार कविता लिखने को कहते हैं। और अपनी बात में वजन बढ़ाने के लिए सीधे निराला जी का उदाहरण देते है कि उन्होंने भी कुकुरमुत्ते पर कविता लिखी थी। उन्होंने गुलाब व अपने समय के गुलाबचंदो को कभी कोई भाव नहीं दिया। सिर्फ़ इसी ऐतिहासिक साहित्यिक घटना के कारण ही वे भी कह रहे हैं कि मैं भी बेशर्म जैसे फूलों पर कविता लिखूं। और मेरे समय के बेशर्मों को कोई भाव ना दूं।
अब आखिर उन्हें कौन समझाये कि मेरे कवि मन को मेरी पूर्व प्रेमिकाएँ कब का नई दिल्ली व विदेश उड़ा ले गई। अब उस कवि मन को नई दिल्ली व विदेश से वापस लाना मेरे जैसे मध्यवर्गीय लेखक के बस का नहीं रहा है।

खैर, जब तक यह अचार व आचार संहिता का मौसम चलेगा, तब तक बेशर्म के फूलों की कविताओं की मांग आती रहेंगी और जैसे ही फिर मौसम सामान्य होगा, साहित्य की अन्य विधाओं की बहार आना शुरू हो जाऐगी। मुझे पक्का पता है जैसे ही यह मौसम विदा हुआ कि हर बार की तरह वे मुझे अगले पांच साल तक फिर कुछ भी लिखने से कोई टोकाटाकी नहीं करेंगे। वे अगले पांच वर्षों तक अपने अपने ठीये व ओटलों पर निश्चिंत होकर गहरी नींद में लोकतंत्र के मनोहारी काव्य का आनंद लेते रहेंगे....!!



भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
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Friday, June 17, 2022

धर्मशाला-खज्जियार-डलहौज़ी(हिमाचल) यात्रा....!!

 धर्मशाला-खज्जियार-डलहौज़ी(हिमाचल) यात्रा....!!

       

                            वार मैमोरियल धर्मशाला

आज 30 मई को हम चार मित्र(अजय सिंह, सचिन सिंह, भागवेन्द्र सिंह) व मैं करीब 3 बजे सोनकच्छ से एक अचानक बनी व अनिश्चित यात्रा के लिए निकले। कहा जाना है यह पक्का नहीं था। बस कहीं ठंडी जगह चलना है। खासकर के ऊपर हिमालय की ओर। सबसे पहले इकलेरा(टोंकखुर्द) माता जी के यहां हमने माधा टेका ओर आशीर्वाद लेते हुए आगे बढ़ गए। शाजापुर से होते हुए रात शिवपुरी मे रूके।
सुबह शिवपुरी से आठ बजे चलते हुए आगरा दिल्ली होते हुए, चंडीगढ़ के पास पंजाब के खन्ना में आज शाम 31 मई 2022 को हम में से एक मित्र के मित्र के घर रायपुर गाँव में रात रुके। आज दिनभर हमारी कार सरपट चलती रही। भारत में सड़कें अब पहले से बहुत अच्छी हो गई है।
वर्तमान में आज हम जिन नगरों से होते हुए आये, इस मार्ग में अच्छी सड़कों का लंबा चौड़ा जाल बन गया है। जिसमें यमुना द्रुतगामी मार्ग (एक्सप्रेस) एक अच्छा उदाहरण है। वर्तमान में भारत में चारों ओर चतुर्दिक गति से शहरीकरण अपना विस्तार ले रहा है। गाँव गौर से देखने पर भी कम ही दिखते हैं। और जो भी गाँव इस मार्ग पर मिलता है वह अपना नेसर्गिक आकार व सुंदरता खोता जा रहा है।
                  

                 डलहौज़ी 
1 जून की सुबह हम पंजाब के रायपुर पिंड(गाँव) में थे। पंजाब के गाँव बेहद आधुनिक है। साथ ही आत्मनिर्भर भी। वहां से चंडीगढ़ पहुंचे। इस बीच पंजाब की नहरें भी दिखती रही। बड़ी बड़ी नहरें, पानी से लबालब भरी बहती हुई।
चंडीगढ़ एक सुनियोजित नगर है। इतने सेक्टरों में विभाजित है कि नया व्यक्ति आसानी से भ्रमित हो सकता है। एकदम साफ सुथरा नगर। चंडीगढ़ में आधा दिन घुमने के बाद हम धर्मशाला हिमाचल प्रदेश की ओर बढ़ गए। हिमाचल में नहरें, बांध व पहाड़ों के सुंदर दृश्य नये पर्यटक को स्वतः ही आकर्षित करते हैं। भाखड़ा-नांगल बांध देखने पर नेहरू जी के आधुनिक मंदिरों का ख्याल आता है। साथ ही इन्हें देखने पर मैं तो मानव मस्तिष्क के कौशल व श्रम को प्रणाम करता रह गया। शाम तक धर्मशाला की ओर बढ़ते हुए पहाड़ों पर चढ़ते हुए सुंदर व मोहक सुर्यास्त का दृश्य मन को कितनी ही कल्पनाओं व सौंदर्य से भर देता है...!

2 जून की सुबह हम हिमालय के पहाड़ों की गोद में थे। 2 जून की रोटी भी हमने धर्मशाला के एक स्वादिष्ट व्यंजन बनाने वाले भोजनालय पर ही खाईं। यहां चारों ओर पहाड़ ही पहाड़ व प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर दृश्य हैं। दिन में धर्मशाला के वार मेमोरियल देखने गए। 1965 व 1971 के युद्ध में बलिदान हुए वीर जवानों की स्मृति में यहां युद्ध स्मारक व उद्यान बना है। बहुत ही अच्छे से इसका निर्माण किया गया है। उसके बाद हम भारत का सबसे ऊंचाई पर धर्मशाला में स्थित क्रिकेट स्टेडियम को देखने पहुंचे। यहां से पर्वत चोंटीयों का दृश्य बहुत ही आकर्षक व मनमोहक लग रहा था। वैसे खेल का मैदान बगैर खिलाड़ी के सुना-सुना ही लगता है। कुछ क्रिकेट प्रेमी आज यहां सिर्फ फोटो खिचाने के लिए ही आये हुए थे। उनमें से हम भी थे। आगे कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच जब यहां खेला जायेगा तो हम बड़े इतरा कर कहेंगे कि हम वहां जा चुकें हैं। वर्तमान में मोबाइल ने फोटोबाजी का नया ही चस्का व जूनून चढ़ा रखा है। इस चक्कर में हम किसी भी स्थान व पर्यटन स्थल को रूची से देखने को वंचित होते जा रहे हैं।
क्रिकेट स्टेडियम से फिर हम धर्मशाला के चाय बागान को देखने पहुंचे। ठंडी ताजा चाय पी। ऐसे बाग में मेरा ठंडी चाय पीने का यह पहला सुखद अनुभव रहा।
                   

                 धर्मशाला क्रिकेट मैदान 
वहां से फिर हम मैक्लॉडगंज नगर पहुंचे। यहां बौद्ध भिक्षुओं के धर्मगुरु दलाईलामा का निवास भी है। मैक्लॉडगंज, भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य के काँगड़ा ज़िले में स्थित धर्मशाला नगर का एक उपनगर है। इसमें चीन के तिब्बत पर कब्ज़े के बाद आए कई विस्थापित तिब्बतियों का निवास है, जिस कारणवश इसे कभी-कभी छोटा ल्हासा, या धर्मशाला और ल्हासा मिलाकर धासा भी पुकारा जाता है। यहाँ तिब्बत की निर्वासन सरकार का मुख्यालय भी है। यहाँ दलाई लामा भी विराजमान हैं। पर्यटकों के लिए यहां देखने को बहुत से स्थल है।
मैक्लॉडगंज में विदेशी सेलानी भी काफी मात्रा में घूमते हुए दिखे। यहां की गलियों में हम भी शाम तक घुमंतुओं की तरह इधर उधर डमते(घुमते) रहे...! मैं यह सब करते हुए सोच रहा था कि घुमंतुओं के पितामह राहुल सांकृत्यायन अपने जीवन में कितना घुमे होगें ! क्या वर्तमान में मेरा जैसा ऐसा कर सकता है। खैर राहुल जी से पहले भी इस धरती पर कितने ही घुमंतू आये और आगे भी आते ही रहेंगे। आज की रात हम मैक्लॉडगंज ही रूके। जिस होटल में रुके थे उसकी खिड़की से बर्फ के पहाड़ों का बहुत ही सुंदर नजारा दिख रहा था। रात में पहाड़ पर दूरी दूरी पर बने छोटे छोटे घरों की लाईट तारों जैसी लग रही थी। यह रात देरी तक बर्फ से पिघले पानी से झरनों के कल-कल नीर की तरह बहती व बहकती रही।
              

                  खज्जियार जोत चोंटी 
पिछली रात सपनों के सागर की लहरों में चक्कर लगाती रही, पर 3 जून की सुबह मैक्लॉडगंज में ही हुई। यहां मौसम सामान्य था। जैसा हमारे मालवा में नवंबर दिसंबर में रहता है। यहां से तेल-पाटी(तैयार होकर) करके हम खज्जियार-डलहौजी के लिए निकले। खज्जियार भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य के चम्बा ज़िले में स्थित एक बड़ा गाँव है। यह पर्वतों से घिरा एक रमणीय पर्वतीय मर्ग या मैदान है जिसमें एक सुंदर झील स्थित है। प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण इसे भारत का "छोटा स्विटजरलैंड" ("मिनी स्विटजरलैंड") भी कहा जाता है। धर्मशाला से ये दोनों सुंदर स्थल ज्यादा दूर नहीं है, लेकिन ये पर्वतीय क्षेत्र समुद्र से करीब 2300 मीटर की ऊंचाई पर है। दिनभर गोल गोल घूमते हुए हमारी कार चलती ही रही। यहां कार सार्थी बड़ा ही कुशल व धैर्यवान होना चाहिए। इस उतार चढ़ाव मार्ग में बेहद सुंदर ऊंचे-ऊंचे पर्वतों के दृश्य मन को मोह रहे थे। इस मार्ग में हमें कई शिक्षक दिखे जो ऊंची चोटी पर स्थित गाँवों के विद्यालय में पढ़ाकर शाम होते अपने घर की ओर जाने के लिए इस मार्ग पर खड़े थे। वहीं छोटे छोटे बच्चें पाठशाला से अपने घर की ओर जा रहे थे। कोई किसी पाठशाला से नीचें उतर रहा था, तो कोई अपने नीचे गाँव में स्थित पाठशाला से छुट्टी होने पर उसके घर जो ऊंचाई पर स्थित था, पहाड़ चढ़ते हुए बड़ी ही मस्ति व निडरता से जा रहे थें। यह सब देखकर मुझे लगा कि ये पर्वत व ऊंची चोंटीयां पर्यटकों से तो कई खतरनाक खेल खेलती है, लेकिन प्रतिदिन इन पर्वतों व चोंटीयों से ये नन्हे नन्हे बच्चें खेलते हैं। लगा पर्वत इनके लिए खेल का मैदान है। साथ ही उनके मित्र भी। यहां मेरे जैसे लेखक के लिए इन दृश्यों को जीवंत करना मुश्किल हो रहा है, यहां भाषा व शब्द की क्षमता कम पड़ जाती हैं। पाठक को यदि इन दृश्यों का जीवंत आनंद लेना है तो उसे हिमाचल के इन सुंदर पहाड़ों, गाँवों व छोटे छोटे नगरों की यात्रा ही करना पड़ेगी।
                     


आगे शाम होते होते हम मिनी स्वीजरलैंड पहुंचे। उसके पहले इन्हीं पहाड़ों की एक चोंटी पर एक सुंदर “मनीजोत कैफे” पर कॉफी पीने रुके। इस कैफे के मालिक सुधीर शर्मा भारतीय सेना में अपनी सेवा दे चुके हैं। इस कैफे में कुछ पुस्तकें भी पढ़ने को रखी गई है। यह देखकर मुझे अच्छा लगा। एक लेखक को पुस्तकें दिख जाए और वह भी इतनी ऊंचाई पर तो उसकी यात्रा सफल है। इस कैफे से बहुत सुंदर प्राकृतिक नजारें दिखते हैं। शाम खज्जियार में बड़ा सुंदर वातावरण था। हरी हरी घांस का बड़ा सा मैदान। मैदान में हम चारों मित्र बैठकर प्रकृति का आनंद ले रहे थे। वहीं एक फेरी वाला हमारे पास आ गया और कहने लगा शिलाजीत ले लिजिये साहब...! हमने जैसे तैसे उसे समझाया कि बंधु अभी इसकी जरूरत नहीं है। मैदानी इलाकों में जाओं वहां शायद किसी को जरूरत हो। पहाड़ों पर युवा तरूणाई ही आती और रहती हैं, यहां क्यों अपनी बहुमूल्य ऊर्जा व समय खर्च कर रहे हो।
मिनी स्वीजरलैंड से रात को जल्दी ही डलहौज़ी पहुंचे। आज रात डलहौजी की सुंदरता व गुलाबी ठंड के नाम रही।
              


4 जून की सुबह डलहौज़ी की खूबसूरत वादियों में हुई। सुबह डलहौज़ी की सड़कों पर घुमने निकला तो वायु सेना का बेहद रोचक व आकर्षक विद्यालय दिखा। यह मार्ग व इसके आसपास का क्षेत्र वायुसेना के नियंत्रण में है। सेना के शौर्यपूर्ण इतिहास के साक्षी रहे हथियार व टेंक सड़क के किनारे रखें थे। यह जगह युवाओं के जाने के लिए बहुत ही अच्छी है। किशोरों को यहां जरूर ले जाना चाहिए।
नास्ता डलहौज़ी में ही किया ओर सबसे आश्चर्य का विषय यह रहा कि मालवा का स्वादिष्ट व्यंजन पोहा डलहौज़ी तक पहुंच गया है। पर उसमें सेंव नहीं थे, वह हमने अपने खारमंजन के खजाने में से निकालकर पोहे में मिलाई। इस पहाड़ी नगर में कुछ देर घुमने के बाद हम बसोली के बांध को देखने पहुंचे। वहां से हम रणजीत सागर बांध जो कि रावी नदी पर बना हुआ है। उसे देखते हुए वहां से हम कश्मीर के लिए निकले। लेकिन फिर समय की कमी, नेटवर्क की समस्या, घर वालों से परिमिशन भी नहीं होने के कारण व कश्मीर में हो रही घटनाओं के कारण उधर जाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। आगे यू टर्न लेते हुए व बहुत कुछ निराशा के साथ हम शाम तक अमृतसर के स्वर्ण मंदिर देखने पहुंचे। इस मार्ग में हमने फिर रंजीत सागर बांध भी देखा। जो कि रावी नदी पर बना है। इस यात्रा में पंजाब की पांचों नदियों को भी हम समय समय पर आधुनिक सेतुओं को पार करते हुए देखते रहे। इस यात्रा में नदियों का बड़ा सा जाल देखा। भारत में कितनी नदियां है लेकिन वर्तमान में हम 20 रुपये से ऊपर की बॉटल का पानी पी रहे हैं ! यह कैसा विकास हुआ है, इन सब वास्तविकताओं से सामना करते हुए दुख भी होता है और क्रोध भी आता है। हमने प्राकृतिक संसाधनों के साथ सबसे ज्यादा अन्याय किया है।
              


आज शाम को स्वर्ण मंदिर पर पहुंचकर वहां मथ्था टेका ओर मंदिर के भव्य प्रांगण में घुमते रहे। इस भव्य मंदिर में बड़ा ही अच्छा लगता है। रात अमृतसर के नजदीक ही रूके।
5 जून की सुबह हम सीधे अमृतसर से शाम तक दिल्ली पहुंचे। रात दिल्ली में ही रूके। रात को दिल्ली में भ्रमण करते रहे। कनॉट प्लेस पर मित्रों के साथ तफरी करते रहे।
अगले दिन घर के लिए दिल्ली से निकले। शाम को आगरा में ताजमहल के दीदार करने पहुंचे। गाईड महोदय ने अपने चमत्कारी इतिहास बोध से ताजमहल के इतिहास व निर्माण से संबंधित ज्ञान के माध्यम से हमे कई बार आश्चर्य में डाला। गाईड महोदय द्वारा बताये ताजमहल के कई तथ्यों व इतिहास पर ज्यादा ध्यान ना देते हुए व गाइड महोदय को सह-धनमय धन्यवाद देते हुए हम भी फोटोबाजी करके वहां से बाहर निकल लिये। लेकिन मन बार-बार उस रचनात्मक व उन महान श्रमिकों, कारीगरों व कलाकारों को नमन करता रहा जिन्होंने इस महान रचना को रचने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया।।      
अगले दिन रात को उसी मार्ग से होते हुए हम सकुशल घर आ गए। बाहर की यात्रा आंतरिक यात्रा को नये-नये मार्ग दिखाती है। अनंत की यात्रा के लिए कभी कभी बाहर की यात्रा भी जरूरी है। इस संसार की भौतिक यात्रा स्थायी नहीं है लेकिन मनुष्य की आंतरिक यात्रा अनंत व अनादि है। ध्यान, योग व स्वाध्याय की यात्राओं के लिए भौतिक यात्राएं भी जरूरी है। इसलिए समय समय पर जीवन की आपाधापी से समय निकालकर दोनों यात्राएं करते रहें...!



भूपेन्द्र भारतीय 
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Sunday, June 12, 2022

काशी के घाटों पर क्रांतिकारियों का संवाद:- क्रांतिदूत भाग-०२ (काशी)


काशी के घाटों पर क्रांतिकारियों का संवाद:- क्रांतिदूत भाग-०२ (काशी)


        





क्रांतिदूत शृंखला के भाग-२ में काशी के गुमनाम क्रांतिकारियों का संवादमय वर्णन है। चंद्रशेखर आज़ाद अपनी संस्कृत शिक्षा के लिए काशी में काशी विद्यापीठ आते है। यही उनका कई महान क्रांतिवीरों से परिचय होता है। इनमें बिस्मिल, अशफ़ाक, सान्याल साहब, लाहिड़ीजी आदि ने आजाद को क्रांति का पाठ पढ़ाया व बताया कि कौन कौन माँ भारती के सपूत क्रांति के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम में अपना सर्वस्व न्योछावर कर चुके हैं तथा यह संग्राम कैसे चल रहा है। इस क्रांति की लौ को आगे बढ़ाने के लिए क्या क्या करना पड़ा। संगठन कैसे बनता है। अंग्रेजों को उनकी ही भाषा में कैसे जवाब दिया जा रहा था। यह सब बातें इस भाग में बड़े ही रोचक ढंग से संवादमय तरीकें से ये क्रांतिवीर चंद्रशेखर आजाद के सामने रखते हैं।

इस भाग में अधिकांश बातें काशी के घाटों पर क्रांतिकारी मिलकर बड़ी ही चतुराई से अपने लक्ष्य को समझते व उसपर चर्चा करते है। इन चर्चाओं में आजाद साहब अपने ज्वलंत व महत्वपूर्ण प्रश्नों से पाठकों को भी इन कथाओं से जोड़कर रखते है। 1910 से 1920 के आसपास काशी में कितने ही गुमनाम क्रांतिकारी अपने क्रांति अभियान पर अलग अलग समय पर मिलते है और क्रांति के माध्यम से कैसे अंग्रेजों को भारत से भगाना है, यह सब घटना क्रमवार में भी इस भाग में सरल भाषा व पाठ्यक्रम पुस्तक की तरह लिखा गया है।

यहां यह ध्यान देना जरूरी है कि उस समय क्रातिकारियों ने अपने इस मार्ग के लिए बड़ी मुश्किल से आम जनमानस को क्रांति मार्ग के लिए कोड़े खाकर व कितनी ही यातनाएं सहकर तैयार किया था। वैसे यहां यह बताना भी जरूरी है कि शुरुआत में अधिकांश क्रांतिवीरों ने अहिंसा का ही मार्ग भारत को आजाद कराने के लिए अपनाया था। लेकिन अंग्रेज भारतीयों को कुछ भी नहीं समझ रहें थे। इसलिए अंग्रेज बहरों को उनकी ही भाषा में जवाब दिया गया। इस भाग में ही घोष बाबू के अनुशीलन सिद्धांत पर गंभीर चर्चा की गई है। लेखक ने बड़े ही रोचक ढंग से बताया है कि घोष बाबू के अनुशीलन व बंकिम चंद्र जी के आनंद मठ से क्रांति की सशस्त्र क्रांति की शुरुआत हुई।

इस भाग में राष्ट्र प्रेम की चिंगारी को आगे बढ़ाने में बंगाल क्रांति के विशेष महत्व पर प्रकाश डाला गया है। ना सिर्फ़ बम व बंदूक से क्रांति की लौ प्रज्वलित हुई पर कलम के माध्यम से भी जबरदस्त क्रांति की जा रही है। पत्रकारिता के माध्यम से क्रांति अपने चरम पर थी। उस समय के पत्रकारों ने अंग्रेजों की निंद उड़ा रखी थी। राष्ट्रवाद, मातृभूमि व राष्ट्रप्रेम पर लिखने के लिए दोहरे आजीवन कारावास तक की सजा कलम क्रांतिवीरों को भी दी जा रही थी। उस समय क्रांति की महत्ता पर जो बोला गया उसे पृष्ठ 74 पर लिखी गई इस पंक्ति से आसानी से समझा जा सकता है, “असली क्रांतिकारी ऐसे ही अपनी गति प्राप्त करेंगे आजाद। ध्यान रखना हम क्रांतिकारी हैं, नेता नहीं...!"

खुदीराम बोस व वीर चाकी का शौर्यपूर्ण बलिदान पाठकों को अंदर तक झकझोर देता है। वहीं कलम की ताकत व हौंसला तो देखें कि “स्वराज्य पत्र ” को निरंतर संपादित व प्रकाशित करने के लिए कितने ही कलम क्रांतिवीर बलिदान हो जाते हैं। इस भाग की विशेषता यह भी है कि इसमें इतने गुमनाम क्रांतिवीरों पर चर्चा की गई है कि मेरे जैसे पाठक के लिए यह सब बड़े ही आश्चर्य व ऊहापोह का विषय रहा। यहां हम इतने गुमनाम क्रांतिकारियों का नाम पढ़ते हैं और वहीं कुछ तथाकथित इतिहासकार अब भी यह कहते है कि अंग्रेज तो भारत छोड़कर अपने मन से गए थे ! इस तरह कुछ परम् बुद्धिजीवी हमेशा यह राग अलापते रहते है कि आजादी तो हमें अहिंसा के द्वारा मिली...! जब हम क्रांतिदूत के भाग-02 काशी को पढ़ते हैं तो स्वतंत्रता संग्राम की वास्तविक सच्चाई पता चलती है और साथ ही कई महान गुमनाम क्रांतिवीरों का स्वाधीनता के लिए संकल्प व समर्पण पढ़ते हुए आंखों में आंसू तक आ जाते हैं। वर्तमान युवा पीढ़ी के लिए यह शृंखला इसलिए महत्वपूर्ण है कि वह आसानी से स्वतंत्रता संग्राम का वास्तविक व सरल इतिहास इस शृंखला में पढ़ सकता है। इस भाग को पढ़ने के लिए यह जरूरी नहीं है कि पहला भाग पढ़ना ही पढ़े। वहीं यह भाग भी आसानी से दो तीन घंटे में एक बैठक में ही पढ़ा जा सकता है साथ ही इस पुस्तक की कीमत भी कम ही है। लेखक का इस शृंखला को लिखने का भी यह उद्देश्य ही इस भाग को पढ़ने से ओर स्पष्ट हो रहा है। नया भारत इस शृंखला को जरूर पढ़े।




पुस्तक : क्रांतिदूत (भाग-2) काशी
लेखक: डॉ. मनीष श्रीवास्तव
प्रकाशक : सर्व भाषा ट्रस्ट
मूल्य : 150


समीक्षक
भूपेन्द्र भारतीय 
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अंग्रेजी में भी इस लिंक पर जाकर यह समीक्षा पढ़ी जा सकती है। 

https://geotvnews.com/the-saga-of-kashis-revolutionaries-freedom-from-non-violence-answers-geo-tv-news/

Saturday, June 4, 2022

‛अच्छा आदमी’ बनने की यात्रा में ....!!

 ‛अच्छा आदमी’ बनने की यात्रा में ....!!

    

           अमर उजाला में...

अच्छा आदमी क्या होता है मुझे अपने जीवन में कुछ दिनों पहले ही पता चला। किसी आदमी को जनता भला व अच्छा आदमी क्यों कहती हैं, यह जानना व समझना मेरे लिए किसी रहस्य के खुलासे से कम नहीं रहा ! मैं अक्सर आम आदमी से सुनता था कि वो फ़लाँ आदमी बहुत अच्छा है। लेकिन उस फ़लाँ आदमी की अच्छाई के मापदंड मुझे अब जाकर ज्ञात हुए। इन मापदंडों का पालन करके मैं भी कुछ कुछ अच्छा आदमी बन पाया। वैसे मुझे अच्छा आदमी बनने में परेशानियाँ तो बहुत आई, पर अच्छा आदमी बनना कोई छोटी बात नहीं है। उससे मुझे कई लाभ हुए। आभासी दुनिया के लोग मुझे अच्छे से पहचानने लग गए। मुझे कई तरह के आयोजनों, कार्यक्रमों, विवाह-मृत्यु भोज, उद्घाटन समारोह, भूमिपूजन आदि के आमंत्रण के लिए पत्र-पत्रिकाएं आने लगी। मैं अच्छा आदमी बनकर इनमें जाने लगा। अब मैं भला आदमी कहलाने लगा हूँ।

अच्छे आदमी बनने की इस प्रक्रिया में मुझे पहले से बने अच्छे आदमियों से बहुत कुछ सीखना पड़ा। ये वरिष्ठ अच्छे आदमी हर आयोजन की पहली पंक्ति में मुझे खड़े मिले। सफेद झक रंग के कपड़े इनकी पहली पहचान रहती है। इनसे पहचान बढ़ाने के लिए मैं भी इनसे नमस्कार चमत्कार बढ़ाकर आगे की पंक्तियों में खड़े होने लग गया। शुरुआत में थोड़ी धक्का मुक्की करनी पड़ी पर फिर जगह अपने आप मिलने लग गई। अच्छा आदमी जो बन रहा था ! इसी कड़ी में एक बड़ी विदेशी कंपनी का मोबाइल व एक छोटी स्वदेशी कंपनी का मोबाइल अपने हाथों में रखने लग गया। हर आमंत्रण-निमंत्रण में जाने पर उसके फोटो लेता और अगले ही पल दनादन अपने सोशल मीडिया मंच पर अपलोड कर देता। ओर साथ में पंक्तियाँ लिखता कि “आज अच्छे आदमियों के साथ फलां साहब के यहां पहुंचकर आयोजन में गरिमामय उपस्थिति दर्ज की !”

सिर्फ़ इतने से ही मैं अच्छा आदमी नहीं बन पाया हूँ। इसके लिए मुझे बहुत त्याग व तपस्या करनी पड़ी है। अच्छा आदमी बनने के लिए मुझे अपने कार्यालय के भ्रष्टाचार समूह का सदस्य भी बनना पड़ा। उनके हर अच्छे बुरे कर्मों का भागीदार भी बना। अपने वरिष्ठ अधिकारी को खुश रखने के लिए उनके कहे हर काम को बगैर नानुकुर के किया। भ्रष्टाचार के धन को धीरे धीरे छूने से मैं अच्छा आदमी बन पाया। बड़े अधिकारी अब मुझे उनकी रात वाली पार्टियों में बगैर किसी डर के हँसते हँसते बुलाते हैं। पहले मेरे जैसे नकारा व बेकार आदमी के लिए इन पार्टियों में कोई स्थान नहीं था। पहले वे मुझ बुरे आदमी से दूरी बनाकर रहते थे। अब अच्छा आदमी बनने के कारण मेरे साथ सेल्फी लेते हैं।
             
              


अच्छा आदमी बनने की राह में मेरा सबसे ज्यादा प्रोत्साहन हमारे कार्यालय के बड़े बाबूजी ने बढ़ाया है। उन्होंने इससे पहले कितनों को ही अच्छा आदमी बना दिया है। किसी काम को कितनी ईमानदारी व कितनी बेईमानी से करना है, यह कला मुझे बड़े बाबूजी के मार्गदर्शन में ही सीखने को मिली। अब मैं हर सरकारी काम को बड़ी कुशलता से करने लग गया हूँ और हर उस आम आदमी की नजर में अच्छा आदमी बन गया, जो सरकारी व्यवस्था से पीड़ित हैं। पहले अधिकारी मुझसे चिढ़ते थे। शिकायती कहकर मेरा काम अटका देते थे। जब से अच्छे आदमी बनने के अटल मार्ग पर अग्रसर हुआ हूँ, सरकारी कार्यालय में मेरी फाईलें फर्राटे से दौड़ती है।

अच्छा आदमी बनना मेरे लिए मेरे आम जीवन के साथ ही घरेलू मामले में भी बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ। जब से मैं अपने घर वालों की हर बात मानने लगा हूँ। जैसे घर की सब्जी लाने से लेकर गेहूं पिसाने, गैस सिलेंडर भरवाने, कचरा गाड़ी में सुबह जल्दी उठकर कचरा फेंकना आदि छोटे छोटे काम करके मैं अपने घर का अच्छा आदमी बन पाया। आप भी ऐसे घरेलू काम करके अपने घर में अच्छा आदमी बन सकते हो। अब मेरे परिवार के भी मुझे अपने घर का सबसे अच्छा आदमी कहने लगे हैं। जब से मैंने अपने घर के बच्चे से बुजुर्ग किसी भी सदस्य की कोई भी बात का बुरा मानना बंद कर दिया है, घर के सभी सदस्य मुझसे बड़ा खुश रहते हैं। अच्छा आदमी बनने की इस यात्रा में मेरे ही घर में मेरा कद बढ़ता जा रहा है। वहीं इस “नवोदित अच्छे आदमी” का अब अपने घर के बाहर भी वारे-न्यारे हो रहें हैं....!!



भूपेन्द्र भारतीय 
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