धर्मशाला-खज्जियार-डलहौज़ी(हिमाचल) यात्रा....!!
वार मैमोरियल धर्मशाला
आज 30 मई को हम चार मित्र(अजय सिंह, सचिन सिंह, भागवेन्द्र सिंह) व मैं करीब 3 बजे सोनकच्छ से एक अचानक बनी व अनिश्चित यात्रा के लिए निकले। कहा जाना है यह पक्का नहीं था। बस कहीं ठंडी जगह चलना है। खासकर के ऊपर हिमालय की ओर। सबसे पहले इकलेरा(टोंकखुर्द) माता जी के यहां हमने माधा टेका ओर आशीर्वाद लेते हुए आगे बढ़ गए। शाजापुर से होते हुए रात शिवपुरी मे रूके।
सुबह शिवपुरी से आठ बजे चलते हुए आगरा दिल्ली होते हुए, चंडीगढ़ के पास पंजाब के खन्ना में आज शाम 31 मई 2022 को हम में से एक मित्र के मित्र के घर रायपुर गाँव में रात रुके। आज दिनभर हमारी कार सरपट चलती रही। भारत में सड़कें अब पहले से बहुत अच्छी हो गई है।
वर्तमान में आज हम जिन नगरों से होते हुए आये, इस मार्ग में अच्छी सड़कों का लंबा चौड़ा जाल बन गया है। जिसमें यमुना द्रुतगामी मार्ग (एक्सप्रेस) एक अच्छा उदाहरण है। वर्तमान में भारत में चारों ओर चतुर्दिक गति से शहरीकरण अपना विस्तार ले रहा है। गाँव गौर से देखने पर भी कम ही दिखते हैं। और जो भी गाँव इस मार्ग पर मिलता है वह अपना नेसर्गिक आकार व सुंदरता खोता जा रहा है।
डलहौज़ी
1 जून की सुबह हम पंजाब के रायपुर पिंड(गाँव) में थे। पंजाब के गाँव बेहद आधुनिक है। साथ ही आत्मनिर्भर भी। वहां से चंडीगढ़ पहुंचे। इस बीच पंजाब की नहरें भी दिखती रही। बड़ी बड़ी नहरें, पानी से लबालब भरी बहती हुई।
चंडीगढ़ एक सुनियोजित नगर है। इतने सेक्टरों में विभाजित है कि नया व्यक्ति आसानी से भ्रमित हो सकता है। एकदम साफ सुथरा नगर। चंडीगढ़ में आधा दिन घुमने के बाद हम धर्मशाला हिमाचल प्रदेश की ओर बढ़ गए। हिमाचल में नहरें, बांध व पहाड़ों के सुंदर दृश्य नये पर्यटक को स्वतः ही आकर्षित करते हैं। भाखड़ा-नांगल बांध देखने पर नेहरू जी के आधुनिक मंदिरों का ख्याल आता है। साथ ही इन्हें देखने पर मैं तो मानव मस्तिष्क के कौशल व श्रम को प्रणाम करता रह गया। शाम तक धर्मशाला की ओर बढ़ते हुए पहाड़ों पर चढ़ते हुए सुंदर व मोहक सुर्यास्त का दृश्य मन को कितनी ही कल्पनाओं व सौंदर्य से भर देता है...!
2 जून की सुबह हम हिमालय के पहाड़ों की गोद में थे। 2 जून की रोटी भी हमने धर्मशाला के एक स्वादिष्ट व्यंजन बनाने वाले भोजनालय पर ही खाईं। यहां चारों ओर पहाड़ ही पहाड़ व प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर दृश्य हैं। दिन में धर्मशाला के वार मेमोरियल देखने गए। 1965 व 1971 के युद्ध में बलिदान हुए वीर जवानों की स्मृति में यहां युद्ध स्मारक व उद्यान बना है। बहुत ही अच्छे से इसका निर्माण किया गया है। उसके बाद हम भारत का सबसे ऊंचाई पर धर्मशाला में स्थित क्रिकेट स्टेडियम को देखने पहुंचे। यहां से पर्वत चोंटीयों का दृश्य बहुत ही आकर्षक व मनमोहक लग रहा था। वैसे खेल का मैदान बगैर खिलाड़ी के सुना-सुना ही लगता है। कुछ क्रिकेट प्रेमी आज यहां सिर्फ फोटो खिचाने के लिए ही आये हुए थे। उनमें से हम भी थे। आगे कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच जब यहां खेला जायेगा तो हम बड़े इतरा कर कहेंगे कि हम वहां जा चुकें हैं। वर्तमान में मोबाइल ने फोटोबाजी का नया ही चस्का व जूनून चढ़ा रखा है। इस चक्कर में हम किसी भी स्थान व पर्यटन स्थल को रूची से देखने को वंचित होते जा रहे हैं।
क्रिकेट स्टेडियम से फिर हम धर्मशाला के चाय बागान को देखने पहुंचे। ठंडी ताजा चाय पी। ऐसे बाग में मेरा ठंडी चाय पीने का यह पहला सुखद अनुभव रहा।
धर्मशाला क्रिकेट मैदान
वहां से फिर हम मैक्लॉडगंज नगर पहुंचे। यहां बौद्ध भिक्षुओं के धर्मगुरु दलाईलामा का निवास भी है। मैक्लॉडगंज, भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य के काँगड़ा ज़िले में स्थित धर्मशाला नगर का एक उपनगर है। इसमें चीन के तिब्बत पर कब्ज़े के बाद आए कई विस्थापित तिब्बतियों का निवास है, जिस कारणवश इसे कभी-कभी छोटा ल्हासा, या धर्मशाला और ल्हासा मिलाकर धासा भी पुकारा जाता है। यहाँ तिब्बत की निर्वासन सरकार का मुख्यालय भी है। यहाँ दलाई लामा भी विराजमान हैं। पर्यटकों के लिए यहां देखने को बहुत से स्थल है।
मैक्लॉडगंज में विदेशी सेलानी भी काफी मात्रा में घूमते हुए दिखे। यहां की गलियों में हम भी शाम तक घुमंतुओं की तरह इधर उधर डमते(घुमते) रहे...! मैं यह सब करते हुए सोच रहा था कि घुमंतुओं के पितामह राहुल सांकृत्यायन अपने जीवन में कितना घुमे होगें ! क्या वर्तमान में मेरा जैसा ऐसा कर सकता है। खैर राहुल जी से पहले भी इस धरती पर कितने ही घुमंतू आये और आगे भी आते ही रहेंगे। आज की रात हम मैक्लॉडगंज ही रूके। जिस होटल में रुके थे उसकी खिड़की से बर्फ के पहाड़ों का बहुत ही सुंदर नजारा दिख रहा था। रात में पहाड़ पर दूरी दूरी पर बने छोटे छोटे घरों की लाईट तारों जैसी लग रही थी। यह रात देरी तक बर्फ से पिघले पानी से झरनों के कल-कल नीर की तरह बहती व बहकती रही।
खज्जियार जोत चोंटी
पिछली रात सपनों के सागर की लहरों में चक्कर लगाती रही, पर 3 जून की सुबह मैक्लॉडगंज में ही हुई। यहां मौसम सामान्य था। जैसा हमारे मालवा में नवंबर दिसंबर में रहता है। यहां से तेल-पाटी(तैयार होकर) करके हम खज्जियार-डलहौजी के लिए निकले। खज्जियार भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य के चम्बा ज़िले में स्थित एक बड़ा गाँव है। यह पर्वतों से घिरा एक रमणीय पर्वतीय मर्ग या मैदान है जिसमें एक सुंदर झील स्थित है। प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण इसे भारत का "छोटा स्विटजरलैंड" ("मिनी स्विटजरलैंड") भी कहा जाता है। धर्मशाला से ये दोनों सुंदर स्थल ज्यादा दूर नहीं है, लेकिन ये पर्वतीय क्षेत्र समुद्र से करीब 2300 मीटर की ऊंचाई पर है। दिनभर गोल गोल घूमते हुए हमारी कार चलती ही रही। यहां कार सार्थी बड़ा ही कुशल व धैर्यवान होना चाहिए। इस उतार चढ़ाव मार्ग में बेहद सुंदर ऊंचे-ऊंचे पर्वतों के दृश्य मन को मोह रहे थे। इस मार्ग में हमें कई शिक्षक दिखे जो ऊंची चोटी पर स्थित गाँवों के विद्यालय में पढ़ाकर शाम होते अपने घर की ओर जाने के लिए इस मार्ग पर खड़े थे। वहीं छोटे छोटे बच्चें पाठशाला से अपने घर की ओर जा रहे थे। कोई किसी पाठशाला से नीचें उतर रहा था, तो कोई अपने नीचे गाँव में स्थित पाठशाला से छुट्टी होने पर उसके घर जो ऊंचाई पर स्थित था, पहाड़ चढ़ते हुए बड़ी ही मस्ति व निडरता से जा रहे थें। यह सब देखकर मुझे लगा कि ये पर्वत व ऊंची चोंटीयां पर्यटकों से तो कई खतरनाक खेल खेलती है, लेकिन प्रतिदिन इन पर्वतों व चोंटीयों से ये नन्हे नन्हे बच्चें खेलते हैं। लगा पर्वत इनके लिए खेल का मैदान है। साथ ही उनके मित्र भी। यहां मेरे जैसे लेखक के लिए इन दृश्यों को जीवंत करना मुश्किल हो रहा है, यहां भाषा व शब्द की क्षमता कम पड़ जाती हैं। पाठक को यदि इन दृश्यों का जीवंत आनंद लेना है तो उसे हिमाचल के इन सुंदर पहाड़ों, गाँवों व छोटे छोटे नगरों की यात्रा ही करना पड़ेगी।
आगे शाम होते होते हम मिनी स्वीजरलैंड पहुंचे। उसके पहले इन्हीं पहाड़ों की एक चोंटी पर एक सुंदर “मनीजोत कैफे” पर कॉफी पीने रुके। इस कैफे के मालिक सुधीर शर्मा भारतीय सेना में अपनी सेवा दे चुके हैं। इस कैफे में कुछ पुस्तकें भी पढ़ने को रखी गई है। यह देखकर मुझे अच्छा लगा। एक लेखक को पुस्तकें दिख जाए और वह भी इतनी ऊंचाई पर तो उसकी यात्रा सफल है। इस कैफे से बहुत सुंदर प्राकृतिक नजारें दिखते हैं। शाम खज्जियार में बड़ा सुंदर वातावरण था। हरी हरी घांस का बड़ा सा मैदान। मैदान में हम चारों मित्र बैठकर प्रकृति का आनंद ले रहे थे। वहीं एक फेरी वाला हमारे पास आ गया और कहने लगा शिलाजीत ले लिजिये साहब...! हमने जैसे तैसे उसे समझाया कि बंधु अभी इसकी जरूरत नहीं है। मैदानी इलाकों में जाओं वहां शायद किसी को जरूरत हो। पहाड़ों पर युवा तरूणाई ही आती और रहती हैं, यहां क्यों अपनी बहुमूल्य ऊर्जा व समय खर्च कर रहे हो।
मिनी स्वीजरलैंड से रात को जल्दी ही डलहौज़ी पहुंचे। आज रात डलहौजी की सुंदरता व गुलाबी ठंड के नाम रही।
4 जून की सुबह डलहौज़ी की खूबसूरत वादियों में हुई। सुबह डलहौज़ी की सड़कों पर घुमने निकला तो वायु सेना का बेहद रोचक व आकर्षक विद्यालय दिखा। यह मार्ग व इसके आसपास का क्षेत्र वायुसेना के नियंत्रण में है। सेना के शौर्यपूर्ण इतिहास के साक्षी रहे हथियार व टेंक सड़क के किनारे रखें थे। यह जगह युवाओं के जाने के लिए बहुत ही अच्छी है। किशोरों को यहां जरूर ले जाना चाहिए।
नास्ता डलहौज़ी में ही किया ओर सबसे आश्चर्य का विषय यह रहा कि मालवा का स्वादिष्ट व्यंजन पोहा डलहौज़ी तक पहुंच गया है। पर उसमें सेंव नहीं थे, वह हमने अपने खारमंजन के खजाने में से निकालकर पोहे में मिलाई। इस पहाड़ी नगर में कुछ देर घुमने के बाद हम बसोली के बांध को देखने पहुंचे। वहां से हम रणजीत सागर बांध जो कि रावी नदी पर बना हुआ है। उसे देखते हुए वहां से हम कश्मीर के लिए निकले। लेकिन फिर समय की कमी, नेटवर्क की समस्या, घर वालों से परिमिशन भी नहीं होने के कारण व कश्मीर में हो रही घटनाओं के कारण उधर जाने का कार्यक्रम स्थगित कर दिया। आगे यू टर्न लेते हुए व बहुत कुछ निराशा के साथ हम शाम तक अमृतसर के स्वर्ण मंदिर देखने पहुंचे। इस मार्ग में हमने फिर रंजीत सागर बांध भी देखा। जो कि रावी नदी पर बना है। इस यात्रा में पंजाब की पांचों नदियों को भी हम समय समय पर आधुनिक सेतुओं को पार करते हुए देखते रहे। इस यात्रा में नदियों का बड़ा सा जाल देखा। भारत में कितनी नदियां है लेकिन वर्तमान में हम 20 रुपये से ऊपर की बॉटल का पानी पी रहे हैं ! यह कैसा विकास हुआ है, इन सब वास्तविकताओं से सामना करते हुए दुख भी होता है और क्रोध भी आता है। हमने प्राकृतिक संसाधनों के साथ सबसे ज्यादा अन्याय किया है।
आज शाम को स्वर्ण मंदिर पर पहुंचकर वहां मथ्था टेका ओर मंदिर के भव्य प्रांगण में घुमते रहे। इस भव्य मंदिर में बड़ा ही अच्छा लगता है। रात अमृतसर के नजदीक ही रूके।
5 जून की सुबह हम सीधे अमृतसर से शाम तक दिल्ली पहुंचे। रात दिल्ली में ही रूके। रात को दिल्ली में भ्रमण करते रहे। कनॉट प्लेस पर मित्रों के साथ तफरी करते रहे।
अगले दिन घर के लिए दिल्ली से निकले। शाम को आगरा में ताजमहल के दीदार करने पहुंचे। गाईड महोदय ने अपने चमत्कारी इतिहास बोध से ताजमहल के इतिहास व निर्माण से संबंधित ज्ञान के माध्यम से हमे कई बार आश्चर्य में डाला। गाईड महोदय द्वारा बताये ताजमहल के कई तथ्यों व इतिहास पर ज्यादा ध्यान ना देते हुए व गाइड महोदय को सह-धनमय धन्यवाद देते हुए हम भी फोटोबाजी करके वहां से बाहर निकल लिये। लेकिन मन बार-बार उस रचनात्मक व उन महान श्रमिकों, कारीगरों व कलाकारों को नमन करता रहा जिन्होंने इस महान रचना को रचने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया।।
अगले दिन रात को उसी मार्ग से होते हुए हम सकुशल घर आ गए। बाहर की यात्रा आंतरिक यात्रा को नये-नये मार्ग दिखाती है। अनंत की यात्रा के लिए कभी कभी बाहर की यात्रा भी जरूरी है। इस संसार की भौतिक यात्रा स्थायी नहीं है लेकिन मनुष्य की आंतरिक यात्रा अनंत व अनादि है। ध्यान, योग व स्वाध्याय की यात्राओं के लिए भौतिक यात्राएं भी जरूरी है। इसलिए समय समय पर जीवन की आपाधापी से समय निकालकर दोनों यात्राएं करते रहें...!
भूपेन्द्र भारतीय
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