Friday, December 24, 2021

महामारी के सामने मत-वाली हँसी....!!

महामारी के सामने मत-वाली हँसी....!!


    


          दैनिक ट्रिब्यूनल पंजाब में....

चौराहों पर आदमकद विज्ञापनों में वे जब हँसते है। तो जनता जनार्दन असमंजस में पड़ जाती हैं ! शुरुआत में कोई नहीं समझ पाता कि उनकी इस मुस्कान का राज़ क्या है ? पर वे आत्मविश्वास से लबरेज़ रहते हैं।
वे ऐसे ही सब पर हँसते है। कभी मंच से, कभी मोटरकारों में से, सफेदझक कुर्ते से निकलती हँसी, तो कभी लोकतंत्र के सभागारों में बैठे बैठे मुस्कुराते है ! दो राष्ट्र अध्यक्षों की वार्ताओं में यह हँसी विश्वबंधुत्व का मार्गप्रशस्त करती हैं ! तो कभी सौ करोड़ की वसूली के बाद भी वे ऐसे ही मंद मंद मुस्काते है। लोकतंत्र पर खतरा आने के समय यह गठबंधन के रूप में मंच से अपनी कोमल मुस्कान बिखेरते है। कोरोना-ओरोना जैसी महामारी भी इस हँसी से घबराती है ! कोरोना के नये वेरिएंट इससे घबराकर क्वारेंटाईन हो जाते हैं। शायद किसी बुद्धिजीवी ने सही ही फरमाया कि इस मदमस्त हँसी के पीछे “मत-वाली हँसी” का भारी-भरकम योगदान है।

जब से ऐसे बुद्धिजीवी महाशय ने इस हँसी के बारे में बताया मुझे इस हँसी को जानने की जिज्ञासा ओर बढ़ गई कि मतवाली हँसी के लक्षण कैसे होते है ? एक दिन मतवाली हँसी हँसने वाले से ही पुछ लिया। मेरे क्षेत्र के ही है या फिर उनके अनुसार मैं उनके चुनाव क्षेत्र का ही मतदाता हूँ ! इसलिए उन्होंने बताया कि ‛चुनाव में मतदाता से मत प्राप्त करके जो उसपर व लोकतंत्र पर पाँच वर्षों तक हँसते रहे, उसे “मत-वाला” कहते है और उसकी हँसी को “मत-वाली” हँसी कहते है !’


     

                      हरिभूमि में.....

इस मतवाली हँस पर छाती चोड़ी करते हुए वे मतवाले से होकर आगे इसका ओर विस्तारपूर्वक वर्णन करने लगे ! कहते हैं हमारी इस हँसी से लोकतंत्र के तीनों स्तंभ स्वस्थ रहते है। कोई महामारी इन्हें टस से मस नहीं कर सकती हैं। आगे बकते गये ;- यह जब भी किसी मंच या चुनावी रैली से जनता में प्रसारित की जाती है तो यह ‛हमारे विकास सूचकांक को बताती हैं।’ वहीं विपक्ष के गिरते ग्राफ को इंगित करती हैं। समाचार पत्रों में लाखों रुपए देकर इस हँसी को छपाना पड़ता है। शिष्टाचार के तौर पर बाजार जिसे विज्ञापन कहता है ! जिससे हमारे देश की विश्व में “हेप्पीनेश रैंक” बढ़ती है। जनता इसे विकास का पैमाना मानती हैं। और इसी आधार पर हमें चुनावों में भारीमात्रा में मत मिलते हैं। जिससे मत-वाली हँसी में दिनोंदिन वृद्धि होती रहती है और परिणाम में नागरिकों की हँसी माननीयों के खाते में आ जाती हैं।

इस छटा का चित्र तो बड़े से बड़े चित्रकार भी अपनी कृति में आजतक नहीं खिच पाये ! आज यदि महान चित्रकार राजा रवि भी जीवित होते तो इस सौम्य हँसी का हुबहू चित्र नहीं बना पाते ! यह जब भी सफेदझक परिधानों से व बड़ी बड़ी लक्झरी गाड़ियों से झांकती है, तो सीधे जनता के ह्रदय पर अंकित होती हैं। जिससे मतदाता मतदान के दिन दिनभर पंक्तियों में लोकतंत्र के तीनों खंबों के सहारे खड़े रहते हैं।

इस हँसी को संरक्षित करने के लिए बड़े बड़े बंगले बनाये जाते हैं। आचार संहिता का बंदोबस्त किया जाता हैं। बड़े बड़े भत्ते, वेतन, मान व मानदेय् दीये जाते है ! तो कभी सांसदों के शिष्ठ मंडल के सदस्य के तौर पर विदेशों में जाकर भी इस हँसी के माध्यम से शिष्ठता को बिखेरा जाता है। कभी कभी तो इस “मत-वाली हँसी” को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में संरक्षण के लिए चौराहों-चबुतरों पर मूर्तियां स्थापित करके नागरिकों के अधिकारों व लोकतंत्र तक की बलि तक दी जाती हैं।


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

Thursday, December 16, 2021

कोई लहर नहीं आ रही है....!!

 कोई लहर नहीं आ रही है....!!

    

                     सुबह सवेरे समाचार पत्र में....

जी हाँ, आप निश्चिंत होकर शादी-बिहा-चुनाव रैलियां अटेन्ड कीजिये। कोई तीसरी-उसरी लहर नहीं आने वाली है। मेरे अनुभवी व जमे-ठमे मित्र लचकरामजी ने ऐसा कहा है। वो तो यहां तक कह रहे है कि जितने बड़े व भव्य आयोजन होगें, उनसे ही कोरोना-ओरोना जैसा विषाणु का अगला वेरिएंट मारा जाऐगा। ये तो जनता पिछली दो लहरों में मानसिक तनाव व अपच (बदहज़मी) के कारण अस्पताल तक पहुंची थी। और फिर बाकी सारा मामला अस्पताल वालों ने समझदारी से निपटाया। लचकरामजी तो यहां तक कह रहे हैं कि हमारी संसद के शीतकालीन सत्र को लंबा कर देना चाहिए, कोरोना जैसा वायरस अपने आप सदन में किसी बिल की तरह धड़ाम से गिर जाऐगा। और फिर कोरोना का बाकी का क्रियाक्रम सांसद महोदयगण खुद कर देगें। लचकरामजी ने किसान आंदोलन के सामने कोरोना को झुकते देखा है !

बात तीसरी लहर की चली तो लचकरामजी आगे कहने लगे, जितने ज्यादा लंबे चौड़े भव्य आयोजन वाले विवाह होगें, तीसरी लहर की संभावना उतनी ही कम होती जाऐगी। थाली कुटने वाले व खचाखच थाली भरने वाले आखिर कबतक खाली पेट बैठे ? ये लहरें कुँवारे युवक-युवतियों की तड़प व कुँवारेपन के कारण ही आ रही है। भला वैवाहिक जीवन के सामने कौन-सी लहर टिक सकी है ? और फिर जब विवाह में सात जन्मों का दाम्पत्य स्थापित हो जाता है तो कौन कोरोना इसे अलग कर सकता है ? ऐसे सात जन्मों वालें अनुबंध से कौन टक्कर ले सकता है। यमराज तक को इन संबंधों के विषय में निर्णय लेने में पचास-साठ साल लग जाते हैं।

लचकराम जी तनावमुक्त मुद्रा में आकर आगे सुझाते है कि चुनाव आयोग को भी अब तो पांच राज्यों के चुनाव की बजाए देशव्यापी चुनाव करवा देना चाहिए। फिर देखों, कोरोना वोरोना के बचें खुचे मामले भी समाप्त हो जाऐंगे। चुनावी रैलियों में नेताओं के कुकुरहाव से यह देश फिर कोरोना मुक्त हो सकता है ! राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के आपसी सौहार्द व प्रेम से भी भय खाकर कोरोना चीन की ओर पलायन कर जाऐगा। और जब हम राजनीति के माध्यम से चीन का अदृश्य माल उन्हें वापस प्रेमपूर्वक तरीकें से लौटा देगें, तो फिर से हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा लगा सकेंगे। साथ ही एक बार फिर पंचशील का झंडा लिये नाथूला दर्रा में एक-दो एक-दो की लय में कदमताल कर सकते है !

लचकरामजी पीछले सप्ताह एक दाल-बाटी पार्टी में भी बता रहे थे कि उन्हें बारातें व चुनावी रैलियां बहुत पसंद है। वे कैसी भी जुगाडू बारात में “माले मुफ्त दिले बेरहम" वाली कहावत को पूरी तन्मयता से चरितार्थ करने के शौकीन रहे हैं। ऐसे में बारात में बज रहे डीजे से कौन सा कोरोना वेरिएंट नहीं मर सकता है ? एक बार कोरोना वेरिएंट की गली से बारात निकालों तो सही ! देखें फिर नागिन डांस करने वाले बारातियों के सामने कौनसी तीसरी लहर आती हैं । “ये बाराती अपने आप में किसी लहर से कम रहते हैं ?” वहीं चुनावी रैलीयों का अलग जीव-विज्ञान रहता है। चुनावी रैलियों के जितने वेरिएंट रहते हैं उतने कोरोना के शायद ही हो सकते है। जितने नेताओं व उनके कर्मठ कार्यकर्ताओं के वेरिएंट उससे चौसठ गुना ज्यादा रैलियों के रंग। अब भला इतने रंगारंग आयोजनों में कोरोना का नया वेरिएंट टिक पाऐगा ?


भूपेन्द्र भारतीय 
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Monday, December 13, 2021

हम नहीं मानने वाले....!!

 हम नहीं मानने वाले....!!

   

                    प्रजातंत्र समाचार पत्र में....

जैसा कि हमारे संविधान में लिखा गया है, “हम भारत के लोग....!” ये शुरूआती शब्द जनता को आत्मविश्वास से पूर्णतः भर देते हैं। हमारे संविधान ने अपने नागरिकों की कई तरह के अधिकारों से झोली भरी हुई है। वो बात अलग है कि इसी संविधान में नागरिकों के लिए कर्तव्यों की भी बात की गई है। लेकिन कर्त्तव्य-कर्म की बातें तो भगवान कृष्ण के समय से चली आ रही है। कर्त्तव्य-कर्म के चक्कर में आदमी पड़े तो जीवन के मजे कब ले ? आम आदमी हर एक दिशानिर्देश मानने लगे तो फिर जीवन के आनंद का क्या ? वह क्यों मानें शासन के नियम ? क्या सरकार हम भारत के लोगों की सुनती है ? क्या हम कभी वीआईपी भारतीयों जैसे नहीं रह सकते ? अब हम किसी तरह के बंधन को नहीं मानने वाले हैं। हर बात में हमें कीर्तिमान बनाना अच्छा लगता है। वो फिर जनसंख्या का हो या फिर कोरोना के माध्यम से जनसंख्या नियंत्रण !

हम सड़क पर यातायात नियमों को नहीं मानने के लिए ही चलते हैं। आखिर हम यात्रा के लिए सड़क टैक्स देते हैं या फिर नियम मानने के लिए ! “कैसी भी लहर आये हम नहीं मानने वाले हैं।” हमने लहरों से टकरा कर कितने ही समंदर पार कर दिये हैं। ऐसा हमको बॉलीवुड वाले गाना गाकर बताते रहते हैं। हम भर कोरोना लहर में भी भारी-भरकम विवाह करने से नहीं मानने वाले हैं। हम उसी गली में बारात निकालना पसंद करते हैं जिसमें विवाद की संभावना अधिक रहती है। फूंका-मौसा की इच्छा पर ऐसा करना पड़ता है। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे तो दुनिया आगे कैसे बढ़ेगी ? सामाजिक समरसता का क्या होगा ! जनसंख्या वृद्धि का फिर क्या होगा ! हम अपना समृद्धि सूचकांक कैसे दिखायेंगे। फिर ऐसी निरंतर आने-जाने वाली लहरों का कारवां कैसे चलेगा।

सरकारी कार्यालयों में हम कठिन प्रतियोगिता परीक्षाएं पास कर घुसते है, फिर हम घूस लेने-देने में विश्वास क्यों न करें। हम नियमों में रहना नहीं जानते। ना ही हम उधार लेने से मानते है और न ही उधार चुकाने में विश्वास करते हैं। हमारे ऐसा करने से बैंको का बैलेंस बना रहता है ! फिर भले ही हमें ऋण चुकाने के चक्कर में अपना देश छोड़कर विदेश में बसने का भारी कष्ट सहना पड़े। हम राष्ट्र के ऋणी होने से मानने वाले नहीं है।

हम तो किसी को कुछ नहीं मानते है। वो फिर अपना घर हो या फिर पड़ोसी का। हम जहां भी जाते है, उस जगह पर अपना अधिकार जमा लेते है। हमें कुर्सियों से बहुत प्रेम है। हम सिर्फ़ बैठकों में शामिल होने को मानने वाले हैं। हम अतिक्रमण व विस्तारवाद का सिद्धांत मानने वाले लोग हैं। हम अपनी गली से संसद तक में हँगामा करने से नहीं मानने वाले माननीय है ! हम विदेश में भी जाकर अपने देश की निंदा करके निंदारस लेने से नहीं मानते। हम सरकार में हो या फिर विपक्ष में, हम जोड़-तोड़ किये बगैर नहीं मानने वाले ! आखिर हम माने तो क्यों माने ? क्या हमने ही सबकुछ मानने का ठेका लिया है।

हम किसी को कुछ मानते है तो सिर्फ़ अपने आप को सम्माननीय मानते है। “हमारे बयानों का कोई कैसा भी अर्थ निकाले, हम प्रतिदिन टीवी व सोशल मीडिया पर बयान देने से नहीं मानने वाले हैं।” हम न मिलावट करने से मानने वाले हैं और न ही मामला रफा-दफा करने से ! हम टेबल के नीचें से व परदे के पीछे से ही लेने-देने के लिए मानते हैं। “हम नाक की सीध में चलने वाले लोग हैं”, बाकी कैसे भी दायें-बायें वाले मामलों में हम मानने वाले नहीं है....!!


भूपेन्द्र भारतीय 
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Thursday, December 2, 2021

मलखंभ व हमारी शिक्षा व्यवस्था....!!

 मलखंभ व हमारी शिक्षा व्यवस्था....!!





“मलखंभ खेल को हमारे देश में कुछ राज्यों ने अपना राजकीय खेल बना रखा है। इस अद्भुत तथ्य का जब जब भी ध्यान आता है, मेरा शैक्षणिक अनुभव मुझसे मलखंभ करने लगता हैं ! मेरा तो बचपन से यही अनुभव रहा है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था में मलखंभ का खेल पहले से ही शामिल है ! शिक्षक प्रतिदिन शासन की शिक्षा नीतियों से मलखंभ करता रहता है। ऐसे में छात्रों को पढ़ाने के लिए कम ही अवसर मिलते हैं और मलखंभ के करतब जैसे कार्य हमारे राष्ट्र निर्माता शिक्षकों को प्रति कार्यदिवस करना होते हैं ! माड्साब कभी नेतागिरी-बाबुगिरी करके मलखंभ करते है, तो कभी जनगणना करके, कभी मलेरिया की दवा पिलाकर, कभी चुनाव, टीकाकरण, कभी फलाना ढिकाना सर्वे करके शिक्षण कार्य की खानापूर्ति करते हैं। प्रतिदिन कौन-सा पाठ पढ़ाना है उसके बजाय, इस बात के लिए मलखंभ ज्यादा होता है कि विद्यालय निरक्षण पर आए मंत्रीजी की खातिरदारी कैसे-कैसे करतबों से करना हैं !

मलखंभ भले हमारे देश के कुछ राज्यों का राजकीय खेल घोषित हो। पर राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा तंत्र में मलखंभ आजादी के बाद से आजतक अघोषित रूप से जारी है। शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए हर कैलेंडर वर्ष में बड़े बड़े बजट बनते है लेकिन भ्रष्टाचार के मलखंभ के आगे “शिक्षा नाम का खंभा” धड़ाम से धराशायी हो जाता हैं ! शिक्षा के नाम पर स्कूल भवन हमने बड़े बड़े बनाएं, पर इन भवनों में राजनीति के खिलाड़ी मलखंभ करते रहते हैं ! कभी कभी तो ऐसा लगता है कि विश्वविद्यालय शिक्षा के लिए बने हैं या राजनीतिक मलखंभ करने के लिए ? शिक्षकों के स्थानंतरण का खेल इतने हुनर से होता है कि अच्छे से अच्छा मलखंभ का खिलाड़ी मलखंब पर इस सरकारी करतब के बारे में सोचकर ऊलटा लटक जाए।

शिक्षा क्षेत्र में जितने प्रयोग हमारे देश की सरकारों ने किए, यदि उतने में से आधे भी मलखंभ का खिलाड़ी कर ले तो पहले प्रयास में ही ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीत ले। कभी कभी तो शिक्षा व्यवस्था से इतना डर लगता है कि उसके आगे मलखंभ का खेल बहुत आसान लगता है ! विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले अधिकांश छात्र सबसे ज्यादा टीका-टिप्पणी यदि किसी पर करते हैं तो वह स्वयं के शिक्षा विभाग ही पर। “जिस देश में शिक्षा मंत्री बनने के लिए कोई शैक्षणिक योग्यता अनिवार्य नहीं है लेकिन उसी शिक्षा विभाग के कार्यालय का चपड़ासी दसवीं पास होना चाहिए !” ऐसी स्थिति में शिक्षा संस्थानों से छात्रों को ज्ञान मिलना मुश्किल है, हाँ वे मलखंभ खेल के दर्शक आसानी से बन सकते हैं !

खैर, इस मलखंभी शिक्षा व्यवस्था में भी कुछ शिक्षा का काम भी हुआ है लेकिन ऐसी शिक्षा मिली कि कितनों की ही बुद्धि मलखंभ खिलाड़ियों के शरीर जैसी मोटी व चिकनी हो गई। वे सरकारी सेवा में भी इस मोटी बुद्धि के दम पर ही जाते हैं और जिंदगी भर इस मोटी बुद्धि के सहारे सरकारी कुर्सियों पर बैठे बैठे मलखंभ करते रहते हैं और मोटी-मोटी रकम बनाते हैं। जिसके कारण आज तक देश की कितनी ही पीढ़ियों की मिट्टी पलित हो गई है। हमारी शिक्षा व्यवस्था में शिक्षण के अलावा सारे काम होते रहें और दिनोंदिन अन्य कार्यों की सूंची मलखंभ की ऊचाई इतनी बढ़ती जा रही हैं ! लेकिन आज भी हमारी शिक्षा व्यवस्था में मलखंब का खेल प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय की शिक्षण संस्थानों तक खेला जा रहा है। अब एक बार फिर नई शिक्षा नीति आ गई है। देखते है, इस बार नई शिक्षा नीति में नये-नये करतब देखने को मिलते है या फिर शिक्षा के मंदिरों में वहीं पहले वाला मलखंभ का खेल पुनः नये नियमों से खेला जाता रहेगा....!!



भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
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लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....

 लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....         शहडोल चुनावी दौरे पर कहाँ राहुल गांधी ने थोड़ा सा महुआ का फूल चख लिखा, उसका नशा भाजपा नेताओं की...