श्रीरामचरितमानस में श्रीराम-वाल्मीकि संवाद
श्रीरामचरितमानस में गोसाईं तुलसीदास जी सातों सोपान में अलग-अलग मधुर व रोचक संवादों के माध्यम से राम कथा प्रस्तुत करते हैं। बालकाण्ड में वे कहते है;-
सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥
अथार्त:- इस कथा में बुद्धि से विचारकर जो चार अत्यंत सुंदर और उत्तम संवाद (काकभुशुण्डि-गरुड़, शिव-पार्वती, याज्ञवल्क्य-भरद्वाज और तुलसीदास और संत) रचे हैं, वही इस पवित्र और सुंदर सरोवर के चार मनोहर घाट हैं।
यह पवित्र व सुंदर सरोवर रामचरितमानस ही है और इसकी प्रमुख सुंदरता श्रीराम कथा है। रामचरितमानस के दूसरे सोपान अयोध्याकांड में श्रीराम-महर्षि वाल्मीकि संवाद अद्भुत है। इस संवाद में वाल्मीकि जी मुख्यतः श्रीराम को वे सब सुंदर स्थान बताते हैं जहां रामचन्द्र जी को निवास करना चाहिए। ये निवास स्थान साधारण नहीं है न ही भौतिक जगत में व्याप्त रहने के स्थान जैसे। “ये सब स्थान मुख्यतः श्रेष्ठ मानव के मुख्य जीवन मूल्य व प्रभु भक्ति के अलग अलग रूप ही है।” श्रीराम मुनि वाल्मीकि जी की इस सुंदर बात पर मन ही मन मंद मंद मुस्कुराते है। गोसाईं तुलसीदास जी ने इस संवाद के माध्यम से मुनि वाल्मीकि के विशेष गुणों को भी यहां बताया है। वाल्मीकि जी सबकुछ जानते है। वे ही इस लोकमंगलकारी कथा को “वाल्मीकि रामायण" के माध्यम से जन जन तक सर्वप्रथम पहुंचाते हैं। गोसाईं तुलसीदास जी इस संवाद में सिर्फ श्रोता है। वे इस सुंदर भक्ति की सरिता का आनंद लेते है और जो बात तुलसीदास जी स्वयं नहीं कह पाते वह वे मुनि वाल्मीकि जी के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। श्रीरामचरितमानस में श्रीराम-वाल्मीकि संवाद बहुत ही भक्तिमय व लोककल्याणकारी है।
वनवास के समय जब श्रीराम, लक्ष्मण व सीताजी वाल्मीकि आश्रम पर आते हैं तो सर्वप्रथम मुनि को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लेते है और फिर श्रीराम मुनि वाल्मीकि से वन में रहने के लिए उचित स्थान के विषय में पूछते हैं, मुनि पहले तो रामचन्द्रजी की अपरम्पार महिमा का सुंदर वर्णन करते हैं। प्रभु की भक्ति व उनके दर्शन कर के प्रेममय होकर गदगद हो जाते है। आसन पर बिठाकर मधुर फल, कंद व मूल खिलाते हैं। फिर श्रीराम ने वनवास के विषय में मुनि के जानते हुए भी सारी बातें बताईं। फिर मुनि से वन में रहने के लिए उचित स्थान के बारे में पुछा। मुनि वाल्मीकि जी बहुत सहजता से कहते है;-
पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ॥
भावार्थ:-आपने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहूँ ? परन्तु मैं यह पूछते सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिए। तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखाऊँ।
यह सुनकर प्रभु श्रीराम मन ही मन मुस्कुराए, वे मुनि के बारे में सबकुछ जानते है और थोड़ा सकुचाए भी कि कहीं सारा रहस्य खुल न जाए। रामचन्द्रजी मुनि की मधुर वाणी सुनते रहे। पूरे संवाद में कहीं ऐसा नहीं लगता है कि दोनों में कौन बड़ा है और कौन महान है ! भक्त व भगवान की अद्भुत महिमा का रहस्य व आनंद संपूर्ण संवाद में बना रहता है।
मुनि आगे कहते है;-
“हे रामजी! सुनिए, अब मैं वे स्थान बताता हूँ, जहाँ आप, सीताजी और लक्ष्मणजी समेत निवास कीजिए। जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुंदर कथा रूपी अनेक सुंदर नदियों से निरंतर भरते रहते हैं, परन्तु कभी पूरे (तृप्त) नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं और जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शन रूपी मेघ के लिए सदा लालायित रहते हैं।”
मुनि वाल्मीकि जी भौतिक जगत से परे सर्वप्रथम भक्तों के हृदय में निवास करने के लिए प्रभु श्रीराम को कहते है। यहां भक्ति रस अपने चरम पर है। भगवान से बड़ा भक्त हो गया है। मुनि ने राम भक्तों का कल्याण किया है। वाल्मीकि जी रामचन्द्रजी का ध्यान लोककल्याण की ओर कराते हैं। आम जनमानस के भक्ति रूपी मंदिर में आप निवास करें। ओर फिर कहते है;-
“सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ॥"
फिर कहते है, जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह हैं, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, दम्भ और माया ही है- हे रघुराज! आप उनके हृदय में निवास कीजिए। जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) और गाली (निंदा) समान है, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण हैं। ऐसे चरित्रवान भक्तों के हृदय में निवास करें। जो दूसरे की सम्पत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं और हे रामजी! जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं, उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं।
पुनः मुनि वाल्मीकि जी कहते है कि;-
जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥
भावार्थ:-जाति, पाँति, धन, धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देने वाला घर, सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किए रहता है, हे रघुनाथजी! आप उसके हृदय में रहिए।
अंत में उस भक्त का भी वर्णन करते है जो “स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिसकी दृष्टि में समान हैं, क्योंकि वह जहाँ-तहाँ (सब जगह) केवल धनुष-बाण धारण किए आपको ही देखता है और जो कर्म से, वचन से और मन से आपका दास है, हे रामजी! आप उसके हृदय में डेरा कीजिए। जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उसके मन में निरंतर निवास कीजिए, वह आपका अपना घर है।" ऐसे सुंदर निवास स्थान में भी रहकर भक्तों का व जगत का कल्याण करें। ऐसे भक्तों का निर्मल हृदय ही प्रभु का अपना घर है।
तो भक्ति की महिमा व एक आदर्श समाज की ओर भी मुनि ध्यानाकर्षण करते हैं। श्रीराम जब इन सब स्थानों का भी ध्यान रखते है तो ये सब बातें ही लोकजीवन में श्रीराम को मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम बनाती है। अंत में वाल्मीकि जी कहते है कि निस्वार्थ भाव से जो आपकी भक्ति में रहता है और सदा आपका ही नाम लेता रहता है ऐसे सहज हृदय वाले भक्तों के हृदय में प्रभु पहले निवास कीजिए। पाठक रामचरितमानस में जब यह श्रीराम-वाल्मीकि संवाद पुरा पढ़ेंगे तो उन्हें अलग ही आनंद की अनुभूति होगी। साथ ही वाल्मीकि जी ने जो भक्तों के गुण व मानव मूल्यों के बारे में वर्णन किया है उस ओर भी पाठकों का निश्चित ही ध्यान जाएगा।
मुनि वाल्मीकि जी ने श्रीराम को यहां अवतारी पुरूष न मानते हुए सामान्य लोककल्याणकारी महापुरुष माना है। भले वे प्रभु श्रीराम के विषय में सबकुछ जानते थे। मानव कल्याण के लिए सामान्य मानव बनकर कार्य किया जाए, उसे ही वाल्मीकि जी यहां सही मान रहे हैं। यह उन्होंने “वाल्मीकि रामायण" में भी किया है। वे श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में ही चरितार्थ करते है। इसलिए उन्होंने श्रीराम को रहने के इतने स्थान बताये जो सब श्रेष्ठ मानव मूल्य ही तो है। ये सब मूल्य ही तो एक साधारण पुरूष को पुरूषोत्तम बनाते है।
इस प्रकार मुनि श्रेष्ठ वाल्मीकिजी ने श्री रामचन्द्रजी को घर दिखाए। उनके प्रेमपूर्ण वचन श्री रामजी के मन को अच्छे लगे। फिर मुनि ने कहा- हे सूर्यकुल के स्वामी! सुनिए, अब मैं इस समय के लिए सुखदायक आश्रम कहता हूँ (निवास स्थान बतलाता हूँ)। आप चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिए, वहाँ आपके लिए सब प्रकार की सुविधा है। सुहावना पर्वत है और सुंदर वन है। वह हाथी, सिंह, हिरन और पक्षियों का विहार स्थल है। वहाँ पवित्र नदी है, जिसकी पुराणों ने प्रशंसा की है और जिसको अत्रि ऋषि की पत्नी अनसुयाजी अपने तपोबल से लाई थीं। वह गंगाजी की धारा है, उसका मंदाकिनी नाम है। वह सब पाप रूपी बालकों को खा डालने के लिए डाकिनी (डायन) रूप है।
गोसाईं तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में इस संवाद के माध्यम से प्रभु भक्ति व मानव कल्याण के लिए ऐसे अद्भुत आलौकिक, करूणामयी व दिव्य चित्रकूट जैसे सुंदर स्थान बताए । वैसे तो संपूर्ण रामचरितमानस भक्ति व मानव कल्याण का दिव्य भंडार है। लेकिन आदिकवि मुनि वाल्मीकि-श्रीराम का यह मधुर संवाद श्रीरामचरितमानस की रामकथा में विशेष स्थान रखता है।
जय श्री राम
संदर्भ :-
श्रीरामचरितमानस-गोसाईं तुलसीदास (टीकाकार-हनुमानप्रसाद पोद्दार)
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