Saturday, October 30, 2021

लचकराम जी का सैंपल सर्वे....!!

 लचकराम जी का सैंपल सर्वे....!!

               

          नईदुनिया के अधबीच में....

मेरी बस्ती के दूसरे छोर पर लचकराम जी रहते है। शाम को उधर घुमने गया तो मिल गये। अचानक से कहने लगे, भाई साहब “आजकल सभी ओर मिलावट का माल मिल रहा हैं।” सावधान रहें ! मैंने पूछा, क्यों आपको यह सब कैसे पता ? कहने लगे, मैं खाद्य पदार्थों की जाँच करने अपने विभाग की ओर से गया था। जितने भी सैंपल लिये सब सर्वे में फेल आ रहे हैं। मुझे समझाते हुए फिर कहने लगे कि इस बार भी त्यौहार पर अपने घर की ही चीजें खायें। बाहर बहुत ज्यादा मिलावट का काम चल रहा है।

मैंने कहा;- किधर मिलावट नहीं है ? लचकराम जी। पूरे कुएं में भाग मिली हुई है। मेरे ऐसा कहने पर वे थोड़ा चौंके और फिर कहने लगे, बात तो आप भी बुद्धिमानी वाली कर रहे हो। आजकल तो साँस लेने तक में लघुशंका होती है। क्या समय आ गया है ? जिस भी चीज का सैंपल लो, “वह अपने मानक स्तर से नीचें आ गई है !” मैंने कहा, क्यों न खाद्य पदार्थ बेचने वालों के साथ साथ हर सरकारी विभाग का सैंपल सर्वे करना चाहिए ? लचकराम जी हँसने लगे, आप भी भाई साहब - पूरी व्यवस्था में ही दोष निकाल रहे हैं ? मैंने कहा- दीपावली पर ही खाद्य पदार्थों के सैंपल सर्वे क्यों लिये जाते हैं ? बाकी सालभर क्यों नहीं ? उन्होंने कहा बात तो सही है। लेकिन सालभर सर्वे हो तो फिर खायेंगे क्या ! शिष्टाचार भी तो कोई चीज है। ऐसे से तो हमारी व्यवस्था की अर्थव्यवस्था बिगड़ जाऐगी।
लचकराम जी फिर आगे कहने लगे, हम तो सालभर भी सर्वे कर सकते हैं। लेकिन फिर ऊपर से फोन आ जाते हैं कि फलाने के यहां कुछ दिन नहीं जाना है, “वह अपना आदमी है !”
खाद्य पदार्थों के सर्वे की बात चल ही रही थी कि लचकराम जी का बालक कुछ खाने के लिए ले आया। लचकराम जी कहने लगे लिजिये भाई साहब;- ‛लख्खूचंद मिष्ठान वाले’ के यहां की मिठाई है। मैंने थोड़ा सकुचाते हुए पूछा, लचकराम जी- अभी तो आप कह रहे थे कि बाजार में मिलावट जोरों-शोरों पर है ? और अब यह लख्खूचंद मिष्ठान वाले की मिठाई ? लचकराम जी कहने लगे, अरे भाई साहब आप भी बड़े भोले है ! भला ”लख्खूचंद मिष्ठान वाले” जैसे नगर के नामी-गिरामी मिठाई दुकान वाले की मिठाई में कोई मिलावट हो सकती हैं ? वे नगर की कितने वर्षों से सेवा कर रहे हैं। हमारे नगर के बड़े समाजसेवी है। भले आदमी है।
फिर मैंने कहा, अच्छा पर कुछ देर पहले आप ही कह रहे थे ? इसलिए पूछ लिया।
लचकराम जी धीरे से कहने लगे- “भाई साहब लख्खूचंद जी हमारा विशेष ध्यान रखते है। “अपने आदमी है।” हर साल दीपावली पर उनके यहां से बहुत से स्वादिष्ट मिष्ठान के पैकेट व बहुत से उपहार आ जाते हैं।” अब आप ही बताईए भाई साहब, ऐसे भले सेठ की दुकान के खाद्य पदार्थों का सैंपल सर्वे कैसे करें ? लचकराम जी आगे कहने लगे आप भी कहाँ मिलावट-उलावट की बात लेकर बैठ गए ! आप तो मिठाई का आनंद लो। आखिर में मैं उनके यहां से आने लगा तो मुझे भी ‛लख्खूचंद की दुकान’ की मिठाई का एक पैकेट पकड़ा दिया ! मैं अपने घर आया तो सैंपल सर्वे, मिलावट की बात को सोचते हुए व मिठाई के पैकेट को अपने हाथ में लिये हुए किंकर्तव्यविमूढ़-सा बहुत देर तक घर के दरवाज़े पर खड़ा रहा....!!


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

Thursday, October 28, 2021

उनकी सपाटबयानी और हमारा व्यंग्य....!!

 उनकी सपाटबयानी और हमारा व्यंग्य....!!




जैसे ही कोई सफेद झक परिधान पहने मंच पर चढ़ता है तो ऐसे लोग सबसे पहले अपनी सपाटबयानी अंदाज़ में कहते हैं, “भाईयों-बहनों हम आपकी पीड़ा बाटने ही यहाँ आये हैं। जब तक हम राजनीति में हैं आपके संवैधानिक अधिकारों को कोई आपसे छीन नहीं सकता है।” ऐसे ही सपाटबयानी लोग हर मंच से जनता का विश्वास हर पाँच वर्ष में एक बार जीत ही लेते हैं ! वहीं हमारे जैसे व्यंग्यकार कितना ही कहें कि “लोकतंत्र की मंडी में हर मतदाता का मत ऊँचे दामों में बिक रहा है !” तो इसे कोई नागरिक नहीं मानता। उन्हें कहो कि देश में सबका विकास हो रहा है तो एक बार मान जाऐंगे। लेकिन फिर आगे कहो कि सरकार नागरिकों का दमन कर रही है तो मतदाता इस सपाटबयानी पर व्यंग्यकार से रूठ जाती है। व्यंग्यकार पर असहिष्णु होने के आरोप लगना शुरू हो जाते हैं।

सपाटबयानी करने वाले लोग भी बड़े कमाल के होते है। वे जब भी व्यवस्था की आलोचना करते हैं तो कानून में खराबी निकालते हैं और जब भी कानून की आलोचना करते हैं तो व्यवस्था में मीनमेख निकालने लगते हैं ! सपाटबयानी उनके लिए सिर्फ़ अपनी बात को अपने तरीक़े से कहने का माध्यम है। उन्हें क्या मतलब सच से। वहीं व्यंग्यकार कितना ही सत्य को सामने लाने का प्रयास करें, पाठक उन्हें हँसकर हल्का कर देता है। व्यंग्यकार स्वयं के पंचों से घायल होकर आहत होता रहता है। और अपने घावों को सोशल मीडिया के लाईक, कमेंट व शेयर बटन से सहलाता रहता है। आगे इससे भी मन नहीं मानें तो आखिर में किसी न किसी अखबार में छपकर अगला व्यंग्य लिखने लग जाता है।

आजकल तो बड़े बड़े दलों की प्रमुख वार्ताओं में उनके स्वघोषित अध्यक्ष सपाटबयानी कर रहे है कि दल के हम ही कर्ता-धर्ता है। “हमारे पारिवारिक दल में लोकतंत्र भी हम ही है और सभी तरह के चुनावों का निर्णय हमारा अंतिम निर्णय रहता है।” अब इतनी सीधी-सपाट बात को कोई लोकतंत्र में विसंगतियों का रफ्फ़ू लगाकर व्यंग्य की बांसुरी बजाकर कहना भी चाहें तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता को क्या फर्क पड़ता है ? आखिर कहां तक कोई व्यवस्था के सीमित कपड़ो को बार बार उतारे। जिससे कि जनता उसे अच्छे से ऊपर से लेकर नीचें तक देख सके। वैसे भी भारत जैसे लोकतांत्रिक देश की जनता पहले भी अपनी व्यवस्था को कितनी ही बार बगैर कपड़ों के ऊपर से लेकर नीचें तक देख चुकी हैं। लेकिन व्यवस्था के इस निर्वस्त्रीकरण में कोई खास बदलाव आया है ?

वहीं आजकल देखने में आ रहा है कि सपाटबयानी करने वाले अक्सर व्यंग्यकारों के क्षेत्र में अतिक्रमण कर रहे हैं। कभी संसद में सपाटबयानी होती है तो वहीं अक्सर टीवी चैनलों की बहसों में धमाकेदार शब्दों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सपाटा मारा जाता है। वहीं अब ये कहना कि “हम विकास की गंगा बहा देगें!” किस तरह की सपाटबयानी है ! वरिष्ठ व्यंग्यकार तो बहुत बार इस तरह की भाषाशैली से खिन्न हो जाते हैं और कहते है कि ‛ये सफेद कपड़े वाले हमारी भाषाशैली का उपयोग क्यों करते है ?’ यह तो सरासर चोरी है। ऐसे में वरिष्ठ व्यंग्यकार को बड़ी मुश्किल से कोई न कोई पुरस्कार स्वरूप प्रशस्ति पत्र देकर समझाना पड़ता है।

मेरे परिचित एक व्यंग्यकार कुछ दिनों पहले प्रधानमंत्री की एक सपाटबयानी पर दिनभर कुढ़-मुढ़ाते रहें है ! जो कि प्रधानमंत्री ने सिर्फ़ इतना ही कहा था कि “भारत फिर से विश्व गुरू बनने ही वाला है।" अब बताओं वरिष्ठ व्यंग्यकार को इसमें चिढ़ने की क्या जरूरत थी। इस कारण तो व्यंग्यकारों से सपाटबयानी वालें रूष्ट रहते हैं।
यदि कभी-कभार सपाटबयानी वालें जनता की बात रखने के लिए कोई बात व्यंग्य के ढ़ंग में कह भी दे तो हमारे वरिष्ठ व्यंग्यकार महोदय को रूष्ट नहीं होना चाहिए। वैसे भी वरिष्ठ व्यंग्यकार को व्यंग्य की कालकोठरी से बाहर निकलकर अपने मन की बात सपाटबयानी में करने को किसने रोका हैं ? अंततोगत्वा इन दिनों दोनों ओर शब्दों की ही तो गुंगी कबड्डी खेली जा रही है....!!




भूपेन्द्र भारतीय 
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Thursday, October 21, 2021

लेखक स्वतंत्र इतिहासकार है....!!

 लेखक स्वतंत्र इतिहासकार है....!!

                



अक्सर मैं जब भी अखबार या किसी पत्र-पत्रिका में किसी लेख-आलेख के आखिर में “लेखक स्वतंत्र इतिहासकार है....!!” लिखा पढ़ता हूँ तो चकित हो जाता हूँ ! आखिर कोई लेखक स्वतंत्र इतिहासकार, स्वतंत्र टिप्पणीकार, स्वतंत्र लेखक, स्वतंत्र पत्रकार आदि कैसे होते हैं ? वह सिर्फ़ लेखक क्यों नहीं होता और फिर बाकि लेखक या पत्रकार क्या किसी के अधीन या दबाव में होकर लिखते हैं ? यदि वह निष्पक्ष है तो उसके लिए ऐसा क्यों लिखना पड़ता है !
कुछ टिप्पणीकार स्वतंत्र है तो फिर दास टिप्पणीकार कैसे होते होगें ? भला स्वतंत्र इतिहासकारों का जन्म या फिर कहें उनका आविष्कार किसने किया होगा ? शायद इसलिए ही अक्सर इतिहास के तथ्यों पर बड़े-बड़े झगड़े होते रहे हैं। इन दिनों फिर एक बार इतिहास के एक नायक पर झगड़ा चल रहा है। दोनों ओर के वक्ता अपना-अपना इतिहास लेकर टीवी बहसों में जमकर एक दूसरे के इतिहास को बढ़ा-चढ़ाकर बता रहे हैं। बच्चे पूछ रहे है यह इतिहास तो हमें कभी पढ़ाया ही नहीं गया। यह किस किताब में लिखा था ? और हमारे पाठ्यक्रम में क्यों नहीं था ? वर्तमान में इसपर बहस करके क्या हासिल होगा ?

क्या स्वतंत्र इतिहासकार हमेशा सच्चा इतिहास लिखता है ? वो कौनसी शक्ति है जो एक लेखक को स्वतंत्र बनाती है ? बहुत से लेखक तो कहते रहे है कि इतिहास कभी पूर्ण नहीं होता और फिर जो लेखक स्वतंत्र नहीं रहे या है, क्या उन्होंने सब कुछ झूठा इतिहास ही लिखा है ? कुछ बुद्धिजीवी तो ऐसे इतिहासकारों को दरबारी लेखक भी कहते है ! मेरे जैसे लेखक के लिए यह हमेशा से बहुत कठिन प्रश्न रहा है कि ये सब तरह के लेखकों का जो वर्गीकरण किया जाता है, वह किस आधार व मापदंडों के आधार पर होता है ? वह कौनसा लेखन है जो एक लेखक को स्वतंत्र लेखक बनाता है और अन्य लेखक को कुछ ओर ! क्या स्वतंत्र इतिहासकार ही असली इतिहास सर्वज्ञ है ? इनके प्रेरणा स्त्रोत कौन होते है ?

स्वतंत्र इतिहासकार ने जो लिख दिया, क्या वहीं सही इतिहास है ? एक इतिहासकार दूसरे इतिहासकार के स्त्रोत का सहारा लेकर इतिहास लिख रहा है। सच किसने देखा या फिर किसने कितना सच सुना, यह कौन-सा लेखक बताऐगा ? या फिर कोई आकाशवाणी होती है जो ऐसे ही लेखकों को सुनाती है ! शायद इसलिए ही बहुत बार इतिहास की काल कोठरी से बड़े बड़े जिन्न निकाले जाते हैं और ये वर्तमान में खलबली मचा देते हैं। फिर खाली बैठे स्वतंत्र इतिहासकार जैसे कुछ लेखक इन जिन्नों पर अपनी स्वयंभू स्वतंत्र कलम धड़ाके से चलाने लगते है। संपादक जी के लिए कठिनाई हो जाती होगी कि कौन स्वतंत्र इतिहासकार है और कौन परतंत्र ! इतिहास के बड़े बड़े नायकों खलनायकों को कब कौन क्या बना दे ! टीवी बहसों व अकादमिक जगत में यह आश्चर्य का विषय रहता है। कुछ स्वतंत्र इतिहासकारों व लेखकों की दुकानें तो इससे ही चल रही है। इतिहास के ये नायक-खलनायकों की आत्मा भी जब यह सब देखती होगीं तो सोचती होगी, “हमनें यह सब कब किया था ?”

वर्तमान में क्या हो रहा है उसकी बात बाद में करेंगे, पहले इतिहास की करेंगे ! इसलिए की समस्याओं से ध्यान भटकाना है ? पार्टी एजेंडा चलते रहना चाहिए। सत्ता सुंदरी कहीं हाथ से न निकल जायें या फिर इतिहास के भूतों के सहारे वर्तमान को डराना है ! आप स्वतंत्र इतिहासकार हो तो आपके पास लाईसेंस आ गया कि कैसे भी इतिहास से खेलते रहों। जो सत्य इतिहास में होना चाहिए था उसे दबा दो। उसे जनमानस के सामने नहीं लाना है। इसलिए कि हम विचारधारा के खूटे से बंधे है। निजी विचारों के माध्यम से हम सत्य को गड़ने का हरदम प्रयास करते है ! लोकतंत्र में अभिव्यक्ति के नाम पर स्वतंत्र इतिहासकार सिर्फ़ अपने ही मन का इतिहास प्रस्तुत करते रहते हैं। जिससे उनकी दुकानें चलती रहें। सत्य उनके लिए प्रयोग है जो उनकी ही प्रयोगशाला में होता रहता है और नये-नये तथ्यों के जन्म होते रहते हैं। जिससे कि उनके मालिक खुश रहें।

ऐसे ही स्वतंत्र इतिहासकारों का इन दिनों हर ओर बोलबाला है। ये किसी भी जाति को श्रेष्ठ बना दे, तो श्रेष्ठ को निम्न व दयनीय ! ये संसद चला भी सकते हैं और बंद भी। इतिहास के नाम पर ये सरकारें बदल सकते है। किसी के भी धर्म-पंथ-समुदाय पर टीका-टिप्पणी करके अधर्म करते रहते हैं। कौन स्वतंत्र रहा और कौन परतंत्र इनके इतिहास में सब सच-सच ही लिखा होता है ! इतिहास के तथ्यों से खेलना, इनका प्रमुख खेल रहा है। यदि ओलंपिक खेलों में इसकी प्रतियोगिता हो तो चार-पांच सोने के पदक इनके ही नाम हो। स्वतंत्र इतिहासकार ही वर्तमान में सबसे बड़े बुद्धिजीवी है और इन्हें ही तीनों काल का ज्ञान है। शायद इसलिए ही इनके नाम के साथ लिखा होता है कि “लेखक स्वतंत्र इतिहासकार है....!!”



भूपेन्द्र भारतीय 
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Monday, October 18, 2021

श्रीरामचरितमानस में श्रीराम-वाल्मीकि संवाद

 श्रीरामचरितमानस में श्रीराम-वाल्मीकि संवाद


         



श्रीरामचरितमानस में गोसाईं तुलसीदास जी सातों सोपान में अलग-अलग मधुर व रोचक संवादों के माध्यम से राम कथा प्रस्तुत करते हैं। बालकाण्ड में वे कहते है;-

सुठि सुंदर संबाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥

अथार्त:- इस कथा में बुद्धि से विचारकर जो चार अत्यंत सुंदर और उत्तम संवाद (काकभुशुण्डि-गरुड़, शिव-पार्वती, याज्ञवल्क्य-भरद्वाज और तुलसीदास और संत) रचे हैं, वही इस पवित्र और सुंदर सरोवर के चार मनोहर घाट हैं।

यह पवित्र व सुंदर सरोवर रामचरितमानस ही है और इसकी प्रमुख सुंदरता श्रीराम कथा है। रामचरितमानस के दूसरे सोपान अयोध्याकांड में श्रीराम-महर्षि वाल्मीकि संवाद अद्भुत है। इस संवाद में वाल्मीकि जी मुख्यतः श्रीराम को वे सब सुंदर स्थान बताते हैं जहां रामचन्द्र जी को निवास करना चाहिए। ये निवास स्थान साधारण नहीं है न ही भौतिक जगत में व्याप्त रहने के स्थान जैसे। “ये सब स्थान मुख्यतः श्रेष्ठ मानव के मुख्य जीवन मूल्य व प्रभु भक्ति के अलग अलग रूप ही है।” श्रीराम मुनि वाल्मीकि जी की इस सुंदर बात पर मन ही मन मंद मंद मुस्कुराते है। गोसाईं तुलसीदास जी ने इस संवाद के माध्यम से मुनि वाल्मीकि के विशेष गुणों को भी यहां बताया है। वाल्मीकि जी सबकुछ जानते है। वे ही इस लोकमंगलकारी कथा को “वाल्मीकि रामायण" के माध्यम से जन जन तक सर्वप्रथम पहुंचाते हैं। गोसाईं तुलसीदास जी इस संवाद में सिर्फ श्रोता है। वे इस सुंदर भक्ति की सरिता का आनंद लेते है और जो बात तुलसीदास जी स्वयं नहीं कह पाते वह वे मुनि वाल्मीकि जी के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। श्रीरामचरितमानस में श्रीराम-वाल्मीकि संवाद बहुत ही भक्तिमय व लोककल्याणकारी है।

वनवास के समय जब श्रीराम, लक्ष्मण व सीताजी वाल्मीकि आश्रम पर आते हैं तो सर्वप्रथम मुनि को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लेते है और फिर श्रीराम मुनि वाल्मीकि से वन में रहने के लिए उचित स्थान के विषय में पूछते हैं, मुनि पहले तो रामचन्द्रजी की अपरम्पार महिमा का सुंदर वर्णन करते हैं। प्रभु की भक्ति व उनके दर्शन कर के प्रेममय होकर गदगद हो जाते है। आसन पर बिठाकर मधुर फल, कंद व मूल खिलाते हैं। फिर श्रीराम ने वनवास के विषय में मुनि के जानते हुए भी सारी बातें बताईं। फिर मुनि से वन में रहने के लिए उचित स्थान के बारे में पुछा। मुनि वाल्मीकि जी बहुत सहजता से कहते है;-

पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ॥

भावार्थ:-आपने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहूँ ? परन्तु मैं यह पूछते सकुचाता हूँ कि जहाँ आप न हों, वह स्थान बता दीजिए। तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखाऊँ।

यह सुनकर प्रभु श्रीराम मन ही मन मुस्कुराए, वे मुनि के बारे में सबकुछ जानते है और थोड़ा सकुचाए भी कि कहीं सारा रहस्य खुल न जाए। रामचन्द्रजी मुनि की मधुर वाणी सुनते रहे। पूरे संवाद में कहीं ऐसा नहीं लगता है कि दोनों में कौन बड़ा है और कौन महान है ! भक्त व भगवान की अद्भुत महिमा का रहस्य व आनंद संपूर्ण संवाद में बना रहता है।
मुनि आगे कहते है;-

“हे रामजी! सुनिए, अब मैं वे स्थान बताता हूँ, जहाँ आप, सीताजी और लक्ष्मणजी समेत निवास कीजिए। जिनके कान समुद्र की भाँति आपकी सुंदर कथा रूपी अनेक सुंदर नदियों से निरंतर भरते रहते हैं, परन्तु कभी पूरे (तृप्त) नहीं होते, उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं और जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शन रूपी मेघ के लिए सदा लालायित रहते हैं।”

मुनि वाल्मीकि जी भौतिक जगत से परे सर्वप्रथम भक्तों के हृदय में निवास करने के लिए प्रभु श्रीराम को कहते है। यहां भक्ति रस अपने चरम पर है। भगवान से बड़ा भक्त हो गया है। मुनि ने राम भक्तों का कल्याण किया है। वाल्मीकि जी रामचन्द्रजी का ध्यान लोककल्याण की ओर कराते हैं। आम जनमानस के भक्ति रूपी मंदिर में आप निवास करें। ओर फिर कहते है;-
  “सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ॥"

फिर कहते है, जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह हैं, न लोभ है, न क्षोभ है, न राग है, न द्वेष है और न कपट, दम्भ और माया ही है- हे रघुराज! आप उनके हृदय में निवास कीजिए। जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दुःख और सुख तथा प्रशंसा (बड़ाई) और गाली (निंदा) समान है, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते-सोते आपकी ही शरण हैं। ऐसे चरित्रवान भक्तों के हृदय में निवास करें। जो दूसरे की सम्पत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूप से दुःखी होते हैं और हे रामजी! जिन्हें आप प्राणों के समान प्यारे हैं, उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं।

पुनः मुनि वाल्मीकि जी कहते है कि;-

जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई॥
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई॥
भावार्थ:-जाति, पाँति, धन, धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देने वाला घर, सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किए रहता है, हे रघुनाथजी! आप उसके हृदय में रहिए।

अंत में उस भक्त का भी वर्णन करते है जो “स्वर्ग, नरक और मोक्ष जिसकी दृष्टि में समान हैं, क्योंकि वह जहाँ-तहाँ (सब जगह) केवल धनुष-बाण धारण किए आपको ही देखता है और जो कर्म से, वचन से और मन से आपका दास है, हे रामजी! आप उसके हृदय में डेरा कीजिए। जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिसका आपसे स्वाभाविक प्रेम है, आप उसके मन में निरंतर निवास कीजिए, वह आपका अपना घर है।" ऐसे सुंदर निवास स्थान में भी रहकर भक्तों का व जगत का कल्याण करें। ऐसे भक्तों का निर्मल हृदय ही प्रभु का अपना घर है।

तो भक्ति की महिमा व एक आदर्श समाज की ओर भी मुनि ध्यानाकर्षण करते हैं। श्रीराम जब इन सब स्थानों का भी ध्यान रखते है तो ये सब बातें ही लोकजीवन में श्रीराम को मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम बनाती है। अंत में वाल्मीकि जी कहते है कि निस्वार्थ भाव से जो आपकी भक्ति में रहता है और सदा आपका ही नाम लेता रहता है ऐसे सहज हृदय वाले भक्तों के हृदय में प्रभु पहले निवास कीजिए। पाठक रामचरितमानस में जब यह श्रीराम-वाल्मीकि संवाद पुरा पढ़ेंगे तो उन्हें अलग ही आनंद की अनुभूति होगी। साथ ही वाल्मीकि जी ने जो भक्तों के गुण व मानव मूल्यों के बारे में वर्णन किया है उस ओर भी पाठकों का निश्चित ही ध्यान जाएगा।

मुनि वाल्मीकि जी ने श्रीराम को यहां अवतारी पुरूष न मानते हुए सामान्य लोककल्याणकारी महापुरुष माना है। भले वे प्रभु श्रीराम के विषय में सबकुछ जानते थे। मानव कल्याण के लिए सामान्य मानव बनकर कार्य किया जाए, उसे ही वाल्मीकि जी यहां सही मान रहे हैं। यह उन्होंने “वाल्मीकि रामायण" में भी किया है। वे श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में ही चरितार्थ करते है। इसलिए उन्होंने श्रीराम को रहने के इतने स्थान बताये जो सब श्रेष्ठ मानव मूल्य ही तो है। ये सब मूल्य ही तो एक साधारण पुरूष को पुरूषोत्तम बनाते है।

इस प्रकार मुनि श्रेष्ठ वाल्मीकिजी ने श्री रामचन्द्रजी को घर दिखाए। उनके प्रेमपूर्ण वचन श्री रामजी के मन को अच्छे लगे। फिर मुनि ने कहा- हे सूर्यकुल के स्वामी! सुनिए, अब मैं इस समय के लिए सुखदायक आश्रम कहता हूँ (निवास स्थान बतलाता हूँ)। आप चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिए, वहाँ आपके लिए सब प्रकार की सुविधा है। सुहावना पर्वत है और सुंदर वन है। वह हाथी, सिंह, हिरन और पक्षियों का विहार स्थल है। वहाँ पवित्र नदी है, जिसकी पुराणों ने प्रशंसा की है और जिसको अत्रि ऋषि की पत्नी अनसुयाजी अपने तपोबल से लाई थीं। वह गंगाजी की धारा है, उसका मंदाकिनी नाम है। वह सब पाप रूपी बालकों को खा डालने के लिए डाकिनी (डायन) रूप है।

गोसाईं तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में इस संवाद के माध्यम से प्रभु भक्ति व मानव कल्याण के लिए ऐसे अद्भुत आलौकिक, करूणामयी व दिव्य चित्रकूट जैसे सुंदर स्थान बताए । वैसे तो संपूर्ण रामचरितमानस भक्ति व मानव कल्याण का दिव्य भंडार है। लेकिन आदिकवि मुनि वाल्मीकि-श्रीराम का यह मधुर संवाद श्रीरामचरितमानस की रामकथा में विशेष स्थान रखता है।
जय श्री राम

संदर्भ :-
श्रीरामचरितमानस-गोसाईं तुलसीदास (टीकाकार-हनुमानप्रसाद पोद्दार)


©भूपेन्द्र भारतीय 
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Monday, October 4, 2021

मंच की लहर को ‛मिस’ कर रहा था....!!

 मंच की लहर को ‛मिस’ कर रहा था....!!


नईदुनिया के अधबीच में...



कोरोना विषाणु की दो लहरों ने एकदम घरघुस्सू बना दिया है। इस क्वॉरेंटाइन समय में मैंने सबसे ज्यादा मंचीय लहर को “मिस” किया। कोरोना से पहले कैसे कैसे मंचीय आयोजन होते थे और इन आयोजनों में कितने अद्भुत मंच सजते थे। अंतरराष्ट्रीय मंच से लेकर गली मोहल्लों के मंचों का अपना ही रंग रहता था। इन मंचों से आती भाती-भाती की लहरों से आजतक कौन बचा है ! वैसे कोरोना काल में आनलाईन मंचों से भी बहुत सारी उलटी-सुलटी लहरें निकली, लेकिन इन लहरों का काल अल्पकाल का ही रहा। अब जब कि कोरोना से तीसरी लहर की उम्मीद कम ही है तो विभिन्न ऑफलाईन मंचों से अद्भुत लहरें आना शुरू हो गई है। मेरे जैसा मंच प्रेमी तो इन लहरों की कब से बाट देख रहा था !

  


मंचों में मुझे राजनीतिक मंच सबसे अधिक प्रिय लगते रहे हैं। “राजनीतिक मंचों पर गजब का रंगमंच जमता है !” सफेदझग परिधानों में विराजमान माननीय नेता जी इस मंच की शान होते है ! कैसी आक्रामक व तूफानी लहरें इस मंच से चलती हैं ! एक से बढ़कर एक वक्ता अपनी ओजस्वी वाणी से राजनीतिक मंचों की शोभा बढ़ाते हैं। देश-दुनिया तो क्या ही, अखिल ब्रह्मांड तक इन लहरों से गजगजा सकता है। हर सभा में मंच की ओर से आ रही लहर मानों ऐसी हो जैसे आकाशवाणी हो रही है। कभी विकास की लहर चलती है तो कभी उम्मीदों का तूफान चलने लगता है। आरोप-प्रत्यारोप के ऐसे-ऐसे शब्द भेदी बाण चलते है, जिससे अंत में बेचारी जनता ही लहुलुहान होती हैं। भरोसे की लहर का तो कहना है क्या ! ऐसी लहर जनता की आंखों में आखिरकार अतिविश्वास की धूल ही झोकती हैं।

मंच से दूसरी सबसे तगड़ी लहर कवि सम्मेलनों में चलती हैं। इस लहर से साहित्य की आत्मा कांप जाती है। वहीं कुछ साहित्यकार कहते हैं इस मंचीय लहर से साहित्य का उत्थान होता है ! ऐसे मंचों से भाषा अपनी लुंगी उठाकर सबसे पहले दौड़ लगाती है। बड़े बड़े दरबारी कवियों का मंच से बांहें फैलाकर काव्य करना, मंचीय कविता का प्रथम श्रृंगार रस होता है। “भले ही कविता में रस हो न हो !” पर इस लहर से पीड़ित जनता का सबसे अधिक मनोरंजन होता है। रस विहीन कवि सम्मेलनों में जनता के लिए “लाफ्टर” की लहर भरपूर होती है। आजकल इस मंच पर ठेका पद्धति आने से इस लहर ने हर गली-मौहल्ले में रस बरसा रखा है।

तीसरी मेरी पसंदीदा लहर “अकादमिक लहर” है। मुख्यतः शहरी क्षेत्रों में ही यह लहर चलती है। यह बड़ी ही लचीली व कोमल-कमनीय होती है ! अकादमिक मंच की लहर पहली नजर में बड़ी ही शालीन व सुहानी लगती है ! पर यह लहर कुछ देर बाद असर करती है। कभी कभी तो अकादमिक मंचों की लहरें दस-बीस वर्ष बाद अपना असली चरित्र दिखाती हैं। इस मंच की लहरों से या तो पीढ़ियां तर जाती हैं या फिर पीढ़ियां की पीढियां इस लहर में उड़ जाती हैं। इस मंच पर विराजमान होने वाले अधिकाशतः बौद्धिक प्राणी ही होते है और जो बौद्धिक एक बार इस मंच पर जम जाता है वह इससे बड़ी मुश्किल से उतरता है। इस मंच की लहरें अधिकतर समय चार दिवारी में ही चलती हैं, इसलिए आम जनता को कम ही महसूस होती हैं। लेकिन इस लहर के थपेड़े खाकर अकादमी से बाहर निकला मानव बड़ा लहरबाज़ होता है !

खैर, ऊपर बताई गई तीन प्रमुख मंचीय लहरों के अलावा भी अन्य मंचों की लहरों अपनी ही निराला रंग होता है। इनके अलावा भी जाने कितनी ही तरह की लहरें अलग अलग मंचों से चलती रहती है। सारी लहरों का यहां वर्णन करना पाठक के मन में रसायनिक लौचा कर सकता हैं। मंचीय दुनिया में कभी अपने ही घर से कोई लहर निकलती है, तो कभी मंच पर विराजमान होते समय मंचासीन के स्वयं के अंदर से भी कुछ लहरें चलती रहती हैं। जमाना भरा पड़ा है इन मंचों की लहरों के थपेड़ों से ! वैसे कुछ लहरें अच्छी भी होती हैं। कुछ खट्टी-मीठी, कुछ ठंडी-गर्म भी ! हमने तो वास्तविक रूप में इन दो साल में दो ही लहरों का ही सामना किया है और भगवान बचाएं किसी “तीसरी-चौथी लहर” से ! पर मन बहलाने के लिए मंचीय लहरें चलती रहना चाहिए।


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410 

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