Friday, February 25, 2022

स्वीट साहित्यकार....!!

 स्वीट साहित्यकार....!!

           

                      इंदौर समाचार में.....

“वे बड़े ही मीठे आदमी है !” यदि सार्वजनिक रूप से गलती से भी किसी ने ऐसा किसी को कह दिया तो बवाल खड़ा हो जाता है। भले ही कोई मीठे नेताजी अपने आप को “स्वीट आतंकवादी” घोषित कर दे ! आम जनता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुमको मीठा, तीखा, कढ़वा, चॉकलेटी, स्वीट, स्पाइसी जो बनना है बनो। बस पूर्ण रूप से नेता मत बनना ! नहीं तो अगले पांच साल तक सबसे ज्यादा आम आदमी ही ना जाने क्या-क्या बनते-बिगड़ते रहेंगे। पीछले दिनों एक “स्वीट साहित्यकार” ने अपने पूर्व राजनीतिक प्रेमी की दुखती रग को दबा दिया, फिर क्या था ! उनके प्रेमी ने अपने आप को “स्वीट आतंकवादी” तक घोषित कर दिया। “स्वीट साहित्यकार" व “स्वीट नेता” के बीच चली आपसी जबानी जंग की चासनी सोशल मीडिया पर फेल गई ! सोशल मीडिया के कितने ही भँवरे स्वीट-स्वीट करने लगे।

वैसे मुझसे कोई मीडिया वाला लंबा सा माईक लेकर पूछे कि मैं क्या हूँ ? तो, मैं तो “स्वीट साहित्यकार" कहलाना ही पसंद करूंगा। अब आप सोच रहें होगें कि भला ये “स्वीट साहित्यकार" वाली बला क्या है ! जब से मेरे जैसे साहित्यकारों को नये-नये सोशल मीडिया के मंच मिल गए हैं, तब से हमारे में कुछ स्वीटपन के लक्षण आ गए है। वैसे पहले के समय में साहित्यकार तीखे व अधिकांश साहित्यकार भड़कीले ही होते थे। पहले के साहित्यकारों से हर कोई पाठक डरता था, शायद इस डर से भी पहले पढ़ने वाले पाठक बहुत हुआ करते थे। आजकल साहित्यकार बड़ा प्रेमी व स्वीट बाबू जैसा होता जा रहा है। आज के साहित्यकार को वास्तविक पाठक मिले या फिर नहीं। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। हाँ उसे सोशल मीडिया पर लाईक, कमेंट व शेयर करने वाले आभासी पाठक मिल जाए तो समझो वह साहित्य की त्रिवेणी में नहा लिया। जैसे पहले के साहित्यकारों पर सबसे ज्यादा बसंत छा जाता था, आजकल के साहित्यकारों पर सोशल मीडिया रूपी टेसूओं के कारण प्रतिदिन ‛साहित्यिक स्वीटपन’ छाया रहता है। हिन्दी साहित्य में जैसे एक समय छायावाद छाया था, वर्तमान साहित्यिक युग में ‛स्वीटवाद’ चल रहा है। तुम मेरे स्वीट साहित्य को चखो - मैं तुम्हारे स्वीटेस्ट साहित्य को चाखूंगा।

“स्वीट साहित्यकार” का लेखन चाटने के लिए नहीं होता हैं। जैसे पहले के साहित्यकारों का लेखन पाठक पढ़-पढ़कर चाट जाते थे। वर्तमान के स्वीट साहित्यकार अपने साहित्य को चाटने के लिए नहीं लिखते। वे तो अपने प्रिय पाठकों को रचना भेंट करने, आनलाइन साईट पर बिकने व पुस्तकालयों में अपने कालजयी साहित्य को रखने के लिए लिखते हैं। ‛आज के स्वीट साहित्यकार की जेब भरी है, पर उसके साहित्य में खालीपन-सा है !’ वह अकादमिक स्वीटपन से नीचें नहीं आना चाहता है। स्वीट साहित्यकारों की इतनी भर ही इच्छा रहती हैं कि उन्हें कोई न कोई पुरस्कार ही मिल जाए। भले नगरपालिका या गांव सभा पुरस्कार के नाम पर ही छोटा मोटा प्रशस्ति पत्र ही स्वीट साहित्यकार को कोई दे दे। उसे उस छोटे-मोटे पुरस्कार को बस सोशल मीडिया पर बढ़ा-चढ़ा के बताकर लाईक-कमेंट ही तो बटोरना है।

मेरा मानना है कि हम स्वीट साहित्यकारों की संख्या दिनोंदिन बढ़ने ही वाली हैं। स्वीट साहित्यकार पाठकों के लिए वरदान साबित होते जा रहे हैं। ये स्वीट साहित्यकार ही है जिनके कारण पाठक को पुस्तकें खरीदना नहीं पड़ती। क्योंकि पाठकों को स्वीट साहित्यकारों की ओर से मुफ्त में पढ़ने के लिए पुस्तकें भेंट स्वरूप आ जाती हैं। पाठक को बस स्वीट साहित्यकार की मीठी-मीठी प्रशंसा व उनके द्वारा भेंट की गई पुस्तक की भी मीठी चासनी युक्त समीक्षा करनी है। पाठक को यदि यह कला आ गई तो बगैर किसी खर्च के घर बैठे-बैठे एक फोकट का पुस्तकालय मिल सकता है।

मेरा मानना है कि “स्वीट साहित्यकार" ही राष्ट्र की प्रगति में अहम भूमिका निभा रहा है। भला कोई नेता इतना स्वीट हो सकता है ! जो स्वीट साहित्यकार जितना मीठा हो सके। स्वीट साहित्यकार लोकतंत्र का पांचवां आधार स्तंभ होता जा रहा है। उसकी साहित्यिक चासनी में ही सारी सरकारी योजनाएं आकर ले रही हैं। “मैं एक स्वीट साहित्यकार के तौर पर बताना चाहता हूँ कि स्वीट साहित्यकार वहीं है जो ‛जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का मीठा-मीठा साहित्यिक विकास करता रहे।' और पाठक, संपादक व प्रकाशक से इसके बदले में किसी तरह की साहित्यिक सेवा की मांग ना करें....!!”


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

Monday, February 14, 2022

वे बिक रहे हैं, उन्हें बिकना ही था....!!

 वे बिक रहे हैं, उन्हें बिकना ही था....!!

    

              दैनिक ट्रिब्यून पंजाब में.....

वे बिक गए, बिकना ही था। पूँजीवाद के दौर में क्या नहीं बिक रहा है ! आजकल यह बिकने का खेल वैश्विक बाजार की जरूरत हो गया है। बिकने की कला जिसे आ गई, वह रातोंरात जीरो से हीरो बन सकता है। बिकने के खेल में, चतुर लोग गंजे को कंघी बेच रहे हैं। बस आपका कुछ ना कुछ भाव-ताव व किसी ओर झुकाव होना चाहिए, आपको बिकने से कोई नहीं रोक सकता है। किसी की मजाल की आजकल कोई किसी को बिकने से रोक सकें। जब दसों दिशाओं में बाजार गुलजार है तो फिर कुछ ना कुछ बिकने के लिए ही बाजार सजा है! अब बाजार में कोई खेल के माध्यम से बिके या फिर बिकने का खेल खेल रहे हैं। वहीं बहुत से होनहार-बिरवान नौजवान बेरोजगारी के नाम पर जॉब फेयर या फिर कॉलेज प्लेसमेंट में भी बिक रहे हैं !

आखिरकार अपने भाव का मान रखने के लिए थोड़ा बहुत तो बिकना ही पड़ता है। और कोई नेता किसी तरह की टिकट पाने के लिए पूरा ही बिक जाए तो वह जनता की सेवा के नाम पर ही बिकता है ! वह कहाँ अपने निजी स्वार्थ के लिए बिकता है। वह तो अंतरात्मा की आवाज़ पर जनता की सेवा के लिए राजनीति की मंडी में बिकने के लिए अपने आप को पेश करता है।

मंडी की बात करे तो मंडी सिर्फ़ राजनीति की ही नहीं होती। वह कई प्रकार की हो सकती हैं। अनाज-सब्जी, पालतू-पशु- जानवर आदि की मंडी अब पुरानी बात हो गई। अब बेरोजगारों व बड़े पैकेज की मंडीयों का जमाना है। वैसे पाकिस्तान के अधिकांश हिस्सों में अब भी गधों की मंडी लगती हैं। लेकिन हमारे इधर गंधों को छोड़कर आजकल अलग ही तरह की मंडीयां लगती हैं। इन मंडीयों में आजकल प्रतिभाओं की बोलियां लगती हैं ! कुछ प्रतिभाएं असली होती हैं और कुछ अपने जुगाड़ व जोड़तोड़ से स्वयं को इन मंडीयों में बिकने को स्वयं को प्रतिभाशाली बनाकर प्रस्तुत हो जाती हैं। रूपये व आदमी का जैसे जैसे मूल्य घट रहा है नई-नई प्रतिभाएं बिकने को बढ़ रही है। पुराने खनकदार सिक्के तो अब बाजार में बहुत कम ही दिखते है। जो थोड़े बहुत बचे हैं उन्हें नये सेठों ने मार्गदर्शक मंडल रूपी लॉकर में डाल रखा है। कुछ सिक्के बरसों से बिकने को बैठे हैं लेकिन उन्हें कोई खरीदार ही नहीं मिल रहा है। ये बार-बार ट्विटर बाजार में अपने बिकने की तख्तियां लेकर खड़े हो जाते हैं, पर इन्हें यह कहकर बिठा दिया जाता है कि पहले अपना भाव बढ़ाओं फिर बाजार में बिकने आना। इन बेचारों को पता ही नहीं है कि भाव कैसे बढ़ाया जाता है। शायद इन्हें अबतक डिजिटल करेंसी का पता नहीं चला है। सोशल मीडिया की भी कम जानकारी रखते हैं, नहीं तो कब के बिक जाते।

इधर जब से सोशल मीडिया की मंडी का उदय हुआ, पूंजीवाद व बाजारवाद के लिए जैसे स्वर्णिम काल आ गया हो। इस मंडी के कारण “12 साल में तो घुरे के भी दिन फिरते हैं” वाली लोकोक्ति सच हो गई है। ‛कंडे से लेकर कलम तक इस मंडी में शान से बिक रहे है।’ वहीं बार-बार सोशल मीडिया के मंचों से बिकने वाले कह रहे हैं ! ‛ये रही हमारी लिंक-हमें खरीदों। आज दिनभर हम व हमारा माल भारी छूट पर बिकने को तैयार है। आपकी सुविधा व आपके बजट को देखते हुए हमने अपना मूल्य व मूल्यांकन कम कर लिया है। अब तो हमें खरीद ही लो।’ “आश्चर्य है वे हर हाल में बिकने को तैयार है।" येन-केन-प्रकारेण बाजार में बिकने के लिए अपनी कीमत दिनोंदिन घटाते जा रहे हैं !

बिकने की उनकी मजबूरी भी है। वे बेचारे नहीं बिके तो फिर क्या करें ? आखिर कब तक विपक्ष में बैठे रहे। उन्हें हमेशा से ही लोकतंत्र के गुलज़ार बाजार में रहने की आदत रही हैं। उन्हें बड़े सेठों के हाथों में रहना ही पसंद आया है। क्या थोड़ी बहुत बचीं कुची जिंदगी भी मार्गदर्शक मंडल में बैठकर ही निकाल दें ? अब बिकने के लिए भला उन्होंने दल ही तो बदला है, कहाँ दिल बदल लिया है। ओर फिर उन्होंने अपनी जनता व देश की सेवा के लिए अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर ही बिकने के लिए अपने-आप को तैयार किया है। मेरे एक प्रौढ़ मित्र का तो यहां तक कहना है कि “जो इस बाजार में जैसे-तैसे बिक गया, सो बच गया।” इसलिए ही “वे बिक रहे हैं, क्योंकि उन्हें ‛जनता की सेवा’ के लिए जिंदा जो रहना था....!!”


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

उनका बजट - अपना जुगाड़....!!

 उनका बजट - अपना जुगाड़....!!

           

                        सुबह सवेरे अखबार में.....

भला छोटे लोगों का कोई बजट होता है ! अपन तो बस जुगाड़-पानी के माध्यम से अपने अर्थ का ‛अर्थिंग’ जुगाड़ अर्थव्यवस्था से लेते रहते हैं। बजट बड़े लोगों का होता है। बजट की बात भी उन्हें ही समझ आती है। और वे ही बजट की बातें अंग्रेजी में करते जमते हैं। बजट का भाषण उनके लिए ही होता है। अपन तो बजट भाषण में पेश की गई कविता-शायरी से ही संतुष्ट हो जाते हैं। अपने लिए वहीं आर्थिक विकास व उन्नति है।

जिनके पास बजट का कोई आधार ही नहीं है तो उन्हें बजट की बारिकियां कैसे समझ आ सकती है ? आप लाख समाचार चैनलों में बजट भाषण सरपट चलाओं या फिर चार दिनों तक पूरा का पूरा अखबार बजट की खबरों से भर दो, हल्के-फुल्के आदमी के बसका नहीं है बजट को समझना। और ‛फिर बजट जब अंग्रेजी भाषा में पेश नहीं हो तो कैसा बजट !’ आम आदमी जीवन भर अपनी आर्थिक गाड़ी जुगाड़ के ईंधन से धकाता रहता है, उसके लिए सरकार कितना ही “आम आदमी का बजट” पेश करें। पर वह बजट कभी धरातल पर आम आदमी के हित में सिद्ध हुआ ? जहां बजट में बात सभी आमोखास की होना चाहिए, वहां बजट में सिर्फ़ खास-खास लोगों की बात होना “घाटे का बजट” जैसा ही है !

जैसे बजट की तैयारी हलवा बनाते-खाते हुए समाचार चैनलों वाले दिखाते हैं ! वहीं आम आदमी के हलवे का बजट दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। वह जैसे तैसे जुगाड़ करके ही रुखी-सूखी खिचड़ी के सहारे अपने जीवन की अर्थ-व्यवस्था चला रहा है। जिस उत्साह व जिज्ञासा से बजट को सुनते किसी बुद्धिजीवी को देखता हूँ, तो लगता है ये जरूर कोई बड़ा आदमी है । क्योंकि आम आदमी बजट भाषण को कितना ही सुने-पढ़े , उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ता है। वह आम आदमी तो कभी अपने लंगोटिया यार से जुगाड़ करके अपनी अर्थव्यवस्था चलाता है, या फिर कभी ब्याज-बट्टे के दम पर अपने जीवन की गीली पीच पर धीरे धीरे बल्लेबाजी करता रहता है।
               

‛उनका’ बजट अपन के लिए “अपना” आजतक नहीं हो पाया। उन्होंने वह बजट बनाया ही दूसरों के लिए था।फिर निवरे अर्थशास्त्री बनकर बजट को अपना कहना मानसिक दिवालिया होने जैसा है। एक-डेढ़ घंटे के बजट भाषण को कई बार मन की बात की तरह सुना, पर इन बजट भाषणों में अपन को अपने ‛अर्थ की धुनें’ आजतक सुनाई नहीं दी। दो एक बार बजट को बहीखाता समझकर देशी अंदाज़ में भी समझने की कोशिश की, पर बजट रहा वहीं का वहीं अंग्रेजी नुमा लाल सूटकेस लपटन साहब !

बजट का घर ‛लाल सूटकेस’ को हाथों में थामे बड़े हॉउस में प्रवेश करते कवि-शायरों नुमा वित्तमंत्रियों को भी सुना, पर अपन बजट को कविता व शायरी के माध्यम से भी नहीं समझ पाये। हाँ, आजतक बजट भाषणों में पेश की गई कविताएँ व शायरी मुझे पसंद जरूर आई हैं। मैं तो वित्त मंत्रालय से निवेदन करता हूँ कि अबतक सभी बजट भाषणों में पेश की गई कविता व शायरी का एक साझा संकलन निकाला जाये। इससे साहित्य व साहित्यकारों के लिए अच्छा-खासा बजट तैयार हो सकता हैं। जिससे कि उनकी आर्थिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया जा सके व साहित्य समाज ‛आत्मनिर्भर’ बन सके। इस साझा संकलन को पेश करने की जिम्मेदारी वरिष्ठ व्यंग्यकारों को दी जाना चाहिए। वहीं इस साहित्यिक बजट के माध्यम से नवोदित लेखकों की रचनाओं को प्रकाशित करने के लिए भी एक नई जुगाड़ तो हो ही जाऐगी। उनका बजट कितना ही आर्थिक विकासोन्मुखी हो, पर ‛अपने विकास का जुगाड़’ तो बजट की कविता व शेरोशायरी का साझा संकलन निकालने से ही हो सकता हैं....!!


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

Monday, February 7, 2022

यात्राएं नये संसार से मिलाती है....!!

 यात्राएं नये संसार से मिलाती है....!!


              

                          अमर उजाला में....दिल्ली 
यात्रा आपको स्वयं व संसार से मिलाती है। यात्राओं पर बहुत कुछ लिखा गया है। लेकिन हर यात्रा पहले वाली से पूरी तरह अलग ही होती है। इसलिए यात्राओं का महत्व मनुष्य के विकास में आदिकाल से रहा है। नये लोगों से मिलना, नयी जगह देखना भर यात्रा नहीं, बल्कि यह अपने आप में एक पूरा जीवन दर्शन है।

दो साल से पापी कोरोना के कारण कोई लंबी यात्रा नहीं हुई थी। आखिर में मैं, मेरे मित्र सचिन सिंह परिहार व विजयंत सिंह ठाकुर हम तीनों अपनी अपनी व्यस्तताओं को छोड़कर घुमने के लिए घुमन्तुओं की तरह निकल पड़े। पहले से कोई निश्चित नहीं था कि कहां जाना है, बस निकल गए घर से...! सबसे पहले भोपाल से होते हुए सागर व फिर छतरपुर के पास भीमकुण्ड पहुंचे। भीमकुण्ड में पानी सुंदर व पारदर्शी (जैसे मिट्टी का तेल) बहुत गहराई तक भरा हुआ है। कई कहानियां व किवदंतियां है इस कुंड की। जिसमें प्रमुख महाभारत में अज्ञातवास के समय भीम ने पानी के लिए गंगा जी को यहां प्रकट होने का निवेदन किया था और उसके बाद से आजतक यह भीमकुण्ड अस्तित्व में है। एक स्थानीय व्यक्ति ने इस कुंड के बारे में बताया कि सुनामी 2004 के समय इस कुंड के पानी का रंग बदल गया था व बहुत सी हलचलें हुई थी।
                       
    


भीमकुण्ड के बाद अगला पड़ाव खजुराहों..., बीच में एक जगह एक ताल के किनारे किसी समय बनाई एक सराई दिखी, कुछ देर फोटोबाजी की व प्राकृतिक सौंदर्य का आनंद लिया। फिर खजुराहों पहुंचे। गाईड ने सबसे पहले अपने कमाऊ व चलताऊ ज्ञान से खजुराहों के मंदिरों व मूर्तियों का अजब गजब विवरण प्रस्तुत किया। हम तो मूर्तियां ही देखते रहे। पहले से हमें कोई जानकारी इन कलाओं की आत्माओं का नहीं था। फिर भी बहुत कुछ देखने पर पता चला कि ऐसा भी हो सकता है ! इन मूर्तियों व मंदिरों पर ज्यादा कुछ कहना मेरे जैसे व्यक्ति के बस का नहीं हैं...हो सके तो एक बार जरूर जायें व देखें, बस इतना कह सकता हूँ कि हमारा इतिहास गौरवशाली व सांस्कृतिक रूप से समृद्धशाली रहा है। हम न जाने क्यों अक्सर हर मामले में पश्चिम की ओर देखते हैं ? एक पूरा दिन चाहिए खजुराहों की सुंदरता को देखने के लिए ओर शायद इससे भी ज्यादा। और मेरे जैसा व्यक्ति जब एक दिन इस सुंदरता को देख ले तो मुझे इस पर कुछ कहने व लिखने के लिए एक माह चाहिए।

खैर, दही के साथ मस्त पनीर पराठे ग्रहण करके खजुराहों की इस सुंदरता से किंकर्तव्यविमूढ़ होकर प्रयागराज की ओर बढ़ गए। गूगल मेप के ज्ञान पर ज्यादा भरोसा करके निर्माणाधीन खराब रास्ते पर फस गए। जैसे तैसे राजनीतिक देवदूतों व गूगल को कोसते हुए रात 12 बजे 31 दिसंबर 2021 को प्रयागराज (इलाहाबाद) पहुंच ही गए। इतना प्राचीन नगर व चारों ओर कचरा व गुटखाबाजों का थूंक फेला था...! मुझे इंदौर जैसे नगर में युवा होते हुए सफाई देखकर आजकल हर नगर में यही आशा रहती है कि वहां भी साफ-सफाई हो। योगीजी को मामाजी से बहुत कुछ सिखना है और अभी यूपी में बहुत कुछ करना है। 2022 के आगमन पर प्रयागराज वाले भी फटाखे फोड़ रहे थे और हम तीन मित्र अपनी मस्ती में मस्त थे। जिस होटल में रूके थे, वहां का एक कर्मचारी कुछ देर के लिए हमारा हमजाम साथी हो गया था और कह रहा था कि योगीजी फिर आ जाऐंगे। ओर कोई उनके मुकाबले में नहीं है। बंदा अपनी जाति से हटकर राय दे रहा था....!!

2022 की पहली सुबह त्रिवेणी(संगम) पर पहुंचे। मकर संक्रांति के मेले की तैयारी शुरू हो गई है। बहुत भव्य दृश्य है गंगा, जमुना व सरस्वती जी(त्रिवेणी) का। केवट निषादराज जी की मदद से संगम तट से आगे बीच संगम नाव से पहुंचकर पांच डुबकी लगाई। फोटोबाजी चल रही है...! निषादराज जी बहुत सी बातें बता रहे थे, हमने खुशी खुशी उन्हें उनका मेहनताना दिया। आखिर में केवट निषादराज फिर कहने लगे, अगली बार ओर आईऐगा भाईलोग, तब तक योगीजी माँ गंगाजी की कृपा से घाट पर ओर अच्छी सुविधाएं कर देगें। हमने अपनी अपनी बाटल में संगम से नीर भर लिया और निषादराज जी से प्रणाम कर विदा ली।

संगम से सीधे माँ भारती के लाड़ले क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद उद्यान पहुंचे। आजादी के दीवाने-रक्षक-संरक्षक के चरणों में नमन कर फोटोबाजी की। कुछ पल के लिए इस वीर की मूर्ति के सामने खड़े होने पर शरीर कापने लगा व आंखों में गलगलिया भी अई गया। वहीं कुछ युवा अपनी अपनी जाति व कौमों के हिसाब से नारे लगा रहे थे ! और फोटोबाजी कर रहे थे...! मुझसे वहां ज्यादा देर नहीं रूकाया। मन में प्रश्न आ रहे थे क्या हम इस आजादी के काबिल है ?

विगत दो वर्ष से ट्विटर से जुड़े व मिले प्रोफेसर साहब रमाकान्त राय जी से भी इलाहाबाद में मिलना हुआ। प्रोफेसर साहब के साथ भोजन किया। उन्होंने हमें बहुत सी रोचक व अच्छी बातें बताई व चर्चा की। काफी मजेदार भोजन रहा व उसके बाद प्रोफेसर साहब के स्नेह पर इलाहाबाद के प्रसिद्ध रसगुल्लों का सेवन किया। प्रोफेसर साहब बड़े मस्तमौला व हिन्दी साहित्य के विद्वान है। उनके माध्यम से भी प्रयागराज व इलाहाबाद को जाना... प्रोफेसर साहब ने अगली बार इटावा आने का वादा लेकर हमें वाराणसी के लिए विदा किया।

वाराणसी (बनारस) के ईमानदारी पूर्ण निर्माण किये चर्चित मार्ग काशी_कोरिडोर के माध्यम से गोधूलि बेला में कुछ मधुर लोकगीतों व बालीबुडीया गीतों को सुनते हुए, प्रयागराज से जल्दी ही काशी विश्वनाथ पहुंच ही गए। पर इस मनमौजी नगर में जनसंख्या वृद्धि के कारण व ट्राफिक में फसने के कारण गंगा आरती का अद्भुत नजारा नहीं देख पाये। पर जैसे तैसे अस्सी घाट पर पहुंच ही गए। यहां का भी वर्णन करना मेरे बस का नहीं है। हां फोटोबाजी सतत चल रही थी! हर घाट का अपना इतिहास रहा है। कौन नहीं आया है गंगाजी के घाट पर ? राजा हो या फिर रंक..., रात को लाईट शो के कारण दृश्य मनोरम लग रहा था। गुलाबी ठंड अलग ही मजा दे रही थी। देवि अहिल्या बाई घाट पर पहुंचकर मन फिर भावुक हो गया, हाँ अभिमान भी हुआ कि मालवा की रानी ने आज से करीब 250 वर्ष पहले काशी में मालवा से आकर सनातन धर्म व संस्कृति के लिए कितना बड़ा कार्य किया है। देवी अहिल्याबाई ने सनातन धर्म के लिए कितना कुछ किया है।

देर रात तक बनारस की गलियों में डमते(घुमते) रहे। बनारस, बनारस से वाराणसी होता जा रहा है। यहां मोदीजी ने बहुत सारा काम कराया है। निर्माण सतत चल रहा है। बनारस की ठंड भी धीमे धीमे मजा देने वाली थी...! इस प्राचीनतम नगर में घुमते हुए लगा कि यह कब काशी से बनारस व बनारस से वाराणसी हो जाता है, पता ही नहीं चलता है...! पर वाराणसी वासीयों को भी अपने इस पल-पल परिवर्तित होते धाम व तीर्थ की स्वच्छता के लिए भी जागरूक होना पड़ेगा...। तब कहीं जाकर यह नगर अपने गौरव को यथावत रख पाऐगा।

काशी में सुबह बाबा काशी विश्वनाथ भगवान के दर्शन किये। जब दर्शन कर रहा था मैंने देखा, “एक महिला के दर्शन करते हुए आंसू नहीं रूक रहे थे !” उनखे देखी के माहरी आंख में गलगलीया अई गया। बाबा बाबा हे.., बोला था बूला लूगाँ। बाबा ने बूला लिया। ओर बाबा ने बोला भी जा बेटा थारा साथे तो धर्मराज है। सब अच्छा होगा। धर्म ,आस्था व भक्ति का संगम काशी विश्वनाथ मंदिर के प्रांगण में चहु ओर था। प्रांगण में फोटोबाजी प्रतिबंधित है। अवैध निर्माण व कब्जे का जाल बिछा था, वर्तमान में उसे साफ किया जा रहा है।
बनारस की गलियों में सुबह भी फोटोबाजी चल रही थी...! बनारस की चटपटी पपीता खाकर वहां से आगे बढ़े। वाराणसी से रामलला के दर्शन के लिए अयोध्या जाना था, पर फिर वही जीवन की व्यस्तताओं व भागादौड़ी के कारण बात नहीं बन पाई...! घर की ओर आने का फरमान आ गया। शायद रामलला जी की अभी बुलाने की इच्छा नहीं है। दिशाधारी जयश्रीराम बोलकर आगे बढ़ गए।

एक बात तो रह ही गई, आखिर बनारस आये और यहां का पान न खायें ऐसा कैसे हो सकता है...! बनारस का पान तो खाना ही था, आधा घंटा इंतजार करने के बाद पान बना और फिर सीधे माता मैहर शारदा जी के दर्शन के लिए होंडा अमेज कार को परिपक्व कार चालक मित्र सचिन परिहार ने आगे बढ़ा दिया। गंतव्य के दौरान साधा भोजन करके बनारसी पान का आनंद लेकर व मिर्जापुर में चाय पीकर( चाय वाले से कालीन भय्या की भी बात की, बोला, बालीवुड वाले कुछ भी बना देते हैं ! फोकट में भय्या को बदनाम कर रहे हैं...!) बनारस का पान इतना अच्छा लगा कि ओर पान बना लाने थे। आगे दौड़ा भागी करते हुए शाम को, माँ शारदा मैहर माता जी के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। रात कटनी में एक अच्छी होटल मिल गई तो वहीं रूके और 2022 के पहले सोमवार की सुबह मित्र व माड्साब संजू सर ने दमोह, भोपाल होते हुए कार को सोनकच्छ नगर के लिए दबा दिया....!!

यह यात्रा वृतांत, सिर्फ़ यात्रा वृत्तांत से थोड़ा आगे बढ़कर तीन घुमन्तुओं का आंखों देखा है। क्या कभी यात्राएं समाप्त होती हैं...?


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....

 लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....         शहडोल चुनावी दौरे पर कहाँ राहुल गांधी ने थोड़ा सा महुआ का फूल चख लिखा, उसका नशा भाजपा नेताओं की...