स्वीट साहित्यकार....!!
इंदौर समाचार में.....
“वे बड़े ही मीठे आदमी है !” यदि सार्वजनिक रूप से गलती से भी किसी ने ऐसा किसी को कह दिया तो बवाल खड़ा हो जाता है। भले ही कोई मीठे नेताजी अपने आप को “स्वीट आतंकवादी” घोषित कर दे ! आम जनता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुमको मीठा, तीखा, कढ़वा, चॉकलेटी, स्वीट, स्पाइसी जो बनना है बनो। बस पूर्ण रूप से नेता मत बनना ! नहीं तो अगले पांच साल तक सबसे ज्यादा आम आदमी ही ना जाने क्या-क्या बनते-बिगड़ते रहेंगे। पीछले दिनों एक “स्वीट साहित्यकार” ने अपने पूर्व राजनीतिक प्रेमी की दुखती रग को दबा दिया, फिर क्या था ! उनके प्रेमी ने अपने आप को “स्वीट आतंकवादी” तक घोषित कर दिया। “स्वीट साहित्यकार" व “स्वीट नेता” के बीच चली आपसी जबानी जंग की चासनी सोशल मीडिया पर फेल गई ! सोशल मीडिया के कितने ही भँवरे स्वीट-स्वीट करने लगे।
वैसे मुझसे कोई मीडिया वाला लंबा सा माईक लेकर पूछे कि मैं क्या हूँ ? तो, मैं तो “स्वीट साहित्यकार" कहलाना ही पसंद करूंगा। अब आप सोच रहें होगें कि भला ये “स्वीट साहित्यकार" वाली बला क्या है ! जब से मेरे जैसे साहित्यकारों को नये-नये सोशल मीडिया के मंच मिल गए हैं, तब से हमारे में कुछ स्वीटपन के लक्षण आ गए है। वैसे पहले के समय में साहित्यकार तीखे व अधिकांश साहित्यकार भड़कीले ही होते थे। पहले के साहित्यकारों से हर कोई पाठक डरता था, शायद इस डर से भी पहले पढ़ने वाले पाठक बहुत हुआ करते थे। आजकल साहित्यकार बड़ा प्रेमी व स्वीट बाबू जैसा होता जा रहा है। आज के साहित्यकार को वास्तविक पाठक मिले या फिर नहीं। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। हाँ उसे सोशल मीडिया पर लाईक, कमेंट व शेयर करने वाले आभासी पाठक मिल जाए तो समझो वह साहित्य की त्रिवेणी में नहा लिया। जैसे पहले के साहित्यकारों पर सबसे ज्यादा बसंत छा जाता था, आजकल के साहित्यकारों पर सोशल मीडिया रूपी टेसूओं के कारण प्रतिदिन ‛साहित्यिक स्वीटपन’ छाया रहता है। हिन्दी साहित्य में जैसे एक समय छायावाद छाया था, वर्तमान साहित्यिक युग में ‛स्वीटवाद’ चल रहा है। तुम मेरे स्वीट साहित्य को चखो - मैं तुम्हारे स्वीटेस्ट साहित्य को चाखूंगा।
“स्वीट साहित्यकार” का लेखन चाटने के लिए नहीं होता हैं। जैसे पहले के साहित्यकारों का लेखन पाठक पढ़-पढ़कर चाट जाते थे। वर्तमान के स्वीट साहित्यकार अपने साहित्य को चाटने के लिए नहीं लिखते। वे तो अपने प्रिय पाठकों को रचना भेंट करने, आनलाइन साईट पर बिकने व पुस्तकालयों में अपने कालजयी साहित्य को रखने के लिए लिखते हैं। ‛आज के स्वीट साहित्यकार की जेब भरी है, पर उसके साहित्य में खालीपन-सा है !’ वह अकादमिक स्वीटपन से नीचें नहीं आना चाहता है। स्वीट साहित्यकारों की इतनी भर ही इच्छा रहती हैं कि उन्हें कोई न कोई पुरस्कार ही मिल जाए। भले नगरपालिका या गांव सभा पुरस्कार के नाम पर ही छोटा मोटा प्रशस्ति पत्र ही स्वीट साहित्यकार को कोई दे दे। उसे उस छोटे-मोटे पुरस्कार को बस सोशल मीडिया पर बढ़ा-चढ़ा के बताकर लाईक-कमेंट ही तो बटोरना है।
मेरा मानना है कि हम स्वीट साहित्यकारों की संख्या दिनोंदिन बढ़ने ही वाली हैं। स्वीट साहित्यकार पाठकों के लिए वरदान साबित होते जा रहे हैं। ये स्वीट साहित्यकार ही है जिनके कारण पाठक को पुस्तकें खरीदना नहीं पड़ती। क्योंकि पाठकों को स्वीट साहित्यकारों की ओर से मुफ्त में पढ़ने के लिए पुस्तकें भेंट स्वरूप आ जाती हैं। पाठक को बस स्वीट साहित्यकार की मीठी-मीठी प्रशंसा व उनके द्वारा भेंट की गई पुस्तक की भी मीठी चासनी युक्त समीक्षा करनी है। पाठक को यदि यह कला आ गई तो बगैर किसी खर्च के घर बैठे-बैठे एक फोकट का पुस्तकालय मिल सकता है।
मेरा मानना है कि “स्वीट साहित्यकार" ही राष्ट्र की प्रगति में अहम भूमिका निभा रहा है। भला कोई नेता इतना स्वीट हो सकता है ! जो स्वीट साहित्यकार जितना मीठा हो सके। स्वीट साहित्यकार लोकतंत्र का पांचवां आधार स्तंभ होता जा रहा है। उसकी साहित्यिक चासनी में ही सारी सरकारी योजनाएं आकर ले रही हैं। “मैं एक स्वीट साहित्यकार के तौर पर बताना चाहता हूँ कि स्वीट साहित्यकार वहीं है जो ‛जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का मीठा-मीठा साहित्यिक विकास करता रहे।' और पाठक, संपादक व प्रकाशक से इसके बदले में किसी तरह की साहित्यिक सेवा की मांग ना करें....!!”
भूपेन्द्र भारतीय
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