Thursday, April 11, 2024

लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....

 लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....

       



शहडोल चुनावी दौरे पर कहाँ राहुल गांधी ने थोड़ा सा महुआ का फूल चख लिखा, उसका नशा भाजपा नेताओं की जबान पर सर चढ़कर बोलने लगा और फिर दोनों दलों की ओर से इस फूल के माध्यम से आरोप प्रत्यारोप शुरू। लोकसभा के चुनाव में मध्यप्रदेश में महुआ के फूल ने इस बार अलग माहौल बना दिया है। कुछ पहलवानी बुद्धि के नेताओं की जबान फिसल भी गई और उन्होंने भारत के ग्रामीण समाज के प्रतिक महुआ के फूल को नशे व शौक तक ही सीमित कर दिया !

यदि देखा जाए तो जो पेड़ हिमालय की तराई तथा पंजाब के अतिरिक्त सारे उत्तरीय भारत तथा दक्षिण के जंगलों में प्रचुरमात्रा में पाया जाता हैं , ग्रामीण भारत में जिस पेड़ के फल , फुल,बीज, लकड़ी का आजीविका के रुप में उपयोग होता हो, उसके एक फूल का सेवन करने पर पहलवानी बुद्धि वाले नेतागण शौक या फिर नशे का प्रतीक बताये, बहुत ही दयनीय व ग्रामीण भारत का अपमान है। साथ ही उन सभी ग्रामीण, जनजातीय व आदिवासीय समुदाय के मतदाताओं का अपमान जिनके वोट बैंक के लिए इन दिनों तथाकथित नेतागण उनके घर -घर व गाँव गाँव जाकर वोट के लिए नाक रगड़ रहे हो।
                         

 

यदि 5 मिनट भी गुगल पर आप महुआ के फूल व पेड़ के उपयोग पर पढ़ेंगे तो पाऐंगे कि “ यह एक भारतीय उष्णकटिबन्धीय वृक्ष है जो उत्तर भारत के मैदानी इलाकों और जंगलों में बड़े पैमाने पर पाया जाता है। महुआ के पेड़ और प्राचीन आदिवासी समाज का बहुत गहरा नाता है, जब अनाज नहीं था तब आदिम आदिवासी समाज के लोग महुआ के फल को खाकर अपना जीवन गुजारते थे, आदिवासी समाज के पारंपरिक सांस्कृतिक लोकगीतों में महुआ के गीत गाए जाते हैं। विशेष प्राकृतिक अवसरों पर आज भी महुआ के पेड़ की पूजा की जाती है। इसकी पत्तियाँ फूलने के पहले फागुन-चैत में झड़ जाती हैं। पत्तियों के झड़ने पर इसकी डालियों के सिरों पर कलियों के गुच्छे निकलने लगते हैं जो कूर्ची के आकार के होते है। इसे महुए का कुचियाना कहते हैं। कलियाँ बढ़ती जाती है और उनके खिलने पर कोश के आकार का सफेद फूल निकलता है जो गुदारा और दोनों ओर खुला हुआ होता है और जिसके भीतर जीरे होते हैं। यही फूल खाने के काम में आता है और 'महुआ' कहलाता है।
यहां तक कि महुआ का उल्लेख संस्कृत व अन्य भाषाओं व बोलियों में होता आया है, भारतीय ग्रामीण समाज के लोकमानस में इससे संबंध गीत व लोकगीत प्रचुर मात्रा में रचे बसे हैं। 'महुआ' जिसे संस्कृत ग्रन्थों में महाद्रुम, मधुष्ठील, मधुपुष्प, मध्वग, तीक्ष्णसार आदि नाम दिया गया है। प्राचीन किवदंतियों के अनुसार इसकी उत्पत्ति का संबंध देवासुर युद्ध से जोड़ा गया है। जिसके अनुसार समुद्रमंथन के उपरांत इस बहुमूल्य वृक्ष संसार में आया। जिसे कल्पवृक्ष के नाम से भी जाना जाता है।

अंग्रेजों ने इसपर कानून बनाकर प्रतिबंध लगाया। ब्रिटिश काल में भारत की अर्थव्यवस्था में भी महुआ के पेड़ों की अहम भूमिका थी। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के कुल राजस्व का एक चौथाई दवाओं और नशीले पदार्थों से आता था, जिसमें महुआ के फूल भी शामिल थे। चूंकि महुआ के फूलों से बनने वाली अवैध शराब के कारण राजस्व को नुकसान होने लगा, इसलिए अंग्रेजी हुकूमत ने इसके संग्रह पर प्रतिबंध लगाने के भरपूर प्रयास किए। सरकार शराब के अवैध उत्पादन पर अंकुश लगाने के लिए तत्पर थी, इसलिए महुआ के पेड़ उखाड़ने का प्रस्ताव रखा गया। महुआ ग्रामीणों की आय का बड़ा साधन था व अंग्रेज विदेशी शराब भारत में लाना चाहते थे इसलिए अंग्रेजों ने सन 1882 में बंबई विधान परिषद में म्होवरा बिल लाया गया जिसका भारतीय राष्ट्रवादियों ने पुरजोर विरोध किया, क्योंकि महुआ के फूल लोगों के लिए भोजन का एक स्रोत भी थे। हालांकि, अंततः वर्ष 1892 में बिल को पारित करा लिया गया था। स्वतंत्रता के बाद हमारे नेताओं ने इस ओर कोई अच्छा व उल्लेखनीय कार्य तो किया नहीं, लेकिन वर्तमान में दुर्भाग्य ही कहे महुआ पर ओछी व तुच्छ राजनीति की जा रही है।

महुए का फूल बीस-बाइस दिन तक लगातार टपकता है। महुए के फूल में मीठास का प्रायः आधा अंश होता है, इसी से पशु, पक्षी और मनुष्य सब इसे चाव से खाते हैं। इसके रस में विशेषता यह होती है कि उसमें रोटियाँ पूरी की भाँति पकाई जा सकती हैं। इसका प्रयोग हरे और सूखे दोनों रूपों में होता है। हरे महुए के फूल को कुचलकर रस निकालकर पूरियाँ पकाई जाती हैं और पीसकर उसे आटे में मिलाकर रोटियाँ बनाते हैं। जिन्हें 'महुअरी' कहते हैं। सूखे महुए को भूनकर उसमें पियार, पोस्ते के दाने आदि मिलाकर कूटते हैं। इस रूप में इसे 'लाटा' कहते हैं। इसे भिगोकर और पीसकर आटे में मिलाकर 'महुअरी' बनाई जाती है। हरे और सूखे महुए लोग भूनकर भी खाते हैं। गरीबों के लिये यह बड़ा ही उपयोगी होता है। यह गायों, भैसों को भी खिलाया जाता है जिससे वे मोटी होती हैं और उनका दूध बढ़ता है। इससे शराब भी खींची जाती है। महुए की शराब को संस्कृत में 'माध्वी' और आजकल के तथाकथित आधुनिक शहरी लोग 'ठर्रा' कहते हैं। महुए का सूखा फूल बहुत दिनों तक रहता है और बिगड़ता नहीं।" ऐसे कितने ही महत्व व उपयोग है इस पेड़ व इसके फूल, फल , बीज व लकड़ी के। वहीं उससे ज्यादा महुआ भारतीय ग्रामीण समाज की संस्कृति व अस्मिता से जुड़ा है।
ऐसे में नेताओं के द्वारा महुआ का प्रतिक रूप में उपयोग कर अपनी राजनीतिक रोटियों सेकना ग्रामीण भारत के लिए अपमान स्वरूप है। जो वनस्पति सदियों से हमारे समाज को जोड़े हुए है। समाज का पोषण कर रही है। संस्कृति से जुड़ी हुई है। उसे राजनीतिक हथियार बनाना, घिनौनी राजनीति का ही उदाहरण है। जिसपर नेताओं की हल्की व छिछलेदार टिप्पणी निदंनीय तो है ही, साथ ही यह ग्रामीण भारत का अपमान है। जिसके लिए इन्हें क्षमा मांगना चाहिए।


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....

 लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....         शहडोल चुनावी दौरे पर कहाँ राहुल गांधी ने थोड़ा सा महुआ का फूल चख लिखा, उसका नशा भाजपा नेताओं की...