Thursday, April 11, 2024

लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....

 लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....

       



शहडोल चुनावी दौरे पर कहाँ राहुल गांधी ने थोड़ा सा महुआ का फूल चख लिखा, उसका नशा भाजपा नेताओं की जबान पर सर चढ़कर बोलने लगा और फिर दोनों दलों की ओर से इस फूल के माध्यम से आरोप प्रत्यारोप शुरू। लोकसभा के चुनाव में मध्यप्रदेश में महुआ के फूल ने इस बार अलग माहौल बना दिया है। कुछ पहलवानी बुद्धि के नेताओं की जबान फिसल भी गई और उन्होंने भारत के ग्रामीण समाज के प्रतिक महुआ के फूल को नशे व शौक तक ही सीमित कर दिया !

यदि देखा जाए तो जो पेड़ हिमालय की तराई तथा पंजाब के अतिरिक्त सारे उत्तरीय भारत तथा दक्षिण के जंगलों में प्रचुरमात्रा में पाया जाता हैं , ग्रामीण भारत में जिस पेड़ के फल , फुल,बीज, लकड़ी का आजीविका के रुप में उपयोग होता हो, उसके एक फूल का सेवन करने पर पहलवानी बुद्धि वाले नेतागण शौक या फिर नशे का प्रतीक बताये, बहुत ही दयनीय व ग्रामीण भारत का अपमान है। साथ ही उन सभी ग्रामीण, जनजातीय व आदिवासीय समुदाय के मतदाताओं का अपमान जिनके वोट बैंक के लिए इन दिनों तथाकथित नेतागण उनके घर -घर व गाँव गाँव जाकर वोट के लिए नाक रगड़ रहे हो।
                         

 

यदि 5 मिनट भी गुगल पर आप महुआ के फूल व पेड़ के उपयोग पर पढ़ेंगे तो पाऐंगे कि “ यह एक भारतीय उष्णकटिबन्धीय वृक्ष है जो उत्तर भारत के मैदानी इलाकों और जंगलों में बड़े पैमाने पर पाया जाता है। महुआ के पेड़ और प्राचीन आदिवासी समाज का बहुत गहरा नाता है, जब अनाज नहीं था तब आदिम आदिवासी समाज के लोग महुआ के फल को खाकर अपना जीवन गुजारते थे, आदिवासी समाज के पारंपरिक सांस्कृतिक लोकगीतों में महुआ के गीत गाए जाते हैं। विशेष प्राकृतिक अवसरों पर आज भी महुआ के पेड़ की पूजा की जाती है। इसकी पत्तियाँ फूलने के पहले फागुन-चैत में झड़ जाती हैं। पत्तियों के झड़ने पर इसकी डालियों के सिरों पर कलियों के गुच्छे निकलने लगते हैं जो कूर्ची के आकार के होते है। इसे महुए का कुचियाना कहते हैं। कलियाँ बढ़ती जाती है और उनके खिलने पर कोश के आकार का सफेद फूल निकलता है जो गुदारा और दोनों ओर खुला हुआ होता है और जिसके भीतर जीरे होते हैं। यही फूल खाने के काम में आता है और 'महुआ' कहलाता है।
यहां तक कि महुआ का उल्लेख संस्कृत व अन्य भाषाओं व बोलियों में होता आया है, भारतीय ग्रामीण समाज के लोकमानस में इससे संबंध गीत व लोकगीत प्रचुर मात्रा में रचे बसे हैं। 'महुआ' जिसे संस्कृत ग्रन्थों में महाद्रुम, मधुष्ठील, मधुपुष्प, मध्वग, तीक्ष्णसार आदि नाम दिया गया है। प्राचीन किवदंतियों के अनुसार इसकी उत्पत्ति का संबंध देवासुर युद्ध से जोड़ा गया है। जिसके अनुसार समुद्रमंथन के उपरांत इस बहुमूल्य वृक्ष संसार में आया। जिसे कल्पवृक्ष के नाम से भी जाना जाता है।

अंग्रेजों ने इसपर कानून बनाकर प्रतिबंध लगाया। ब्रिटिश काल में भारत की अर्थव्यवस्था में भी महुआ के पेड़ों की अहम भूमिका थी। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के कुल राजस्व का एक चौथाई दवाओं और नशीले पदार्थों से आता था, जिसमें महुआ के फूल भी शामिल थे। चूंकि महुआ के फूलों से बनने वाली अवैध शराब के कारण राजस्व को नुकसान होने लगा, इसलिए अंग्रेजी हुकूमत ने इसके संग्रह पर प्रतिबंध लगाने के भरपूर प्रयास किए। सरकार शराब के अवैध उत्पादन पर अंकुश लगाने के लिए तत्पर थी, इसलिए महुआ के पेड़ उखाड़ने का प्रस्ताव रखा गया। महुआ ग्रामीणों की आय का बड़ा साधन था व अंग्रेज विदेशी शराब भारत में लाना चाहते थे इसलिए अंग्रेजों ने सन 1882 में बंबई विधान परिषद में म्होवरा बिल लाया गया जिसका भारतीय राष्ट्रवादियों ने पुरजोर विरोध किया, क्योंकि महुआ के फूल लोगों के लिए भोजन का एक स्रोत भी थे। हालांकि, अंततः वर्ष 1892 में बिल को पारित करा लिया गया था। स्वतंत्रता के बाद हमारे नेताओं ने इस ओर कोई अच्छा व उल्लेखनीय कार्य तो किया नहीं, लेकिन वर्तमान में दुर्भाग्य ही कहे महुआ पर ओछी व तुच्छ राजनीति की जा रही है।

महुए का फूल बीस-बाइस दिन तक लगातार टपकता है। महुए के फूल में मीठास का प्रायः आधा अंश होता है, इसी से पशु, पक्षी और मनुष्य सब इसे चाव से खाते हैं। इसके रस में विशेषता यह होती है कि उसमें रोटियाँ पूरी की भाँति पकाई जा सकती हैं। इसका प्रयोग हरे और सूखे दोनों रूपों में होता है। हरे महुए के फूल को कुचलकर रस निकालकर पूरियाँ पकाई जाती हैं और पीसकर उसे आटे में मिलाकर रोटियाँ बनाते हैं। जिन्हें 'महुअरी' कहते हैं। सूखे महुए को भूनकर उसमें पियार, पोस्ते के दाने आदि मिलाकर कूटते हैं। इस रूप में इसे 'लाटा' कहते हैं। इसे भिगोकर और पीसकर आटे में मिलाकर 'महुअरी' बनाई जाती है। हरे और सूखे महुए लोग भूनकर भी खाते हैं। गरीबों के लिये यह बड़ा ही उपयोगी होता है। यह गायों, भैसों को भी खिलाया जाता है जिससे वे मोटी होती हैं और उनका दूध बढ़ता है। इससे शराब भी खींची जाती है। महुए की शराब को संस्कृत में 'माध्वी' और आजकल के तथाकथित आधुनिक शहरी लोग 'ठर्रा' कहते हैं। महुए का सूखा फूल बहुत दिनों तक रहता है और बिगड़ता नहीं।" ऐसे कितने ही महत्व व उपयोग है इस पेड़ व इसके फूल, फल , बीज व लकड़ी के। वहीं उससे ज्यादा महुआ भारतीय ग्रामीण समाज की संस्कृति व अस्मिता से जुड़ा है।
ऐसे में नेताओं के द्वारा महुआ का प्रतिक रूप में उपयोग कर अपनी राजनीतिक रोटियों सेकना ग्रामीण भारत के लिए अपमान स्वरूप है। जो वनस्पति सदियों से हमारे समाज को जोड़े हुए है। समाज का पोषण कर रही है। संस्कृति से जुड़ी हुई है। उसे राजनीतिक हथियार बनाना, घिनौनी राजनीति का ही उदाहरण है। जिसपर नेताओं की हल्की व छिछलेदार टिप्पणी निदंनीय तो है ही, साथ ही यह ग्रामीण भारत का अपमान है। जिसके लिए इन्हें क्षमा मांगना चाहिए।


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

Saturday, December 16, 2023

"मित्रों अब विदा...जस की तस रख दीनी चदरिया !"

 "मित्रों अब विदा...जस की तस रख दीनी चदरिया !"

       

            गूगल से साभार...

कबीरदास की पंक्ति “जस की तस रख दीनी चदरिया” का अर्थ सामान्यतः हम सब जानते हैं। जैसा मिला था, उसे वैसा ही लौटाना। यह पंक्ति मीडिया से हाथ जोड़ते हुए पीछले 18 वर्षों से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे शिवराजसिंह चौहान ने भावुक होते हुए विगत दिनों कही। अब इस पंक्ति के कई मायने निकाले जा रहे हैं। मध्यप्रदेश के आम आदमी के मामा शिवराजसिंह चौहान ने नवंबर 2005 में पहली बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। उसके बाद से आज तक नर्मदा नदी में कितना ही पानी बह चुका है और मध्यप्रदेश जो 2005 में था, वह वर्तमान में बिल्कुल अलग व विकास की ओर बढ़ता राज्य बन गया है। 


एक बेहद बीमारु राज्य को विकास के पथ पर लाने में शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्व का बहुत बड़ा योगदान है। उनके मुख्यमंत्री काल में मध्यप्रदेश ने कई ऐतिहासिक निर्णय देखे। राज्य समृद्धि के मार्ग पर अग्रसर हुआ। मध्यप्रदेश की जनता के बीच “मामा” नाम से चर्चित शिवराजसिंह चौहान ही थे जो सबसे पहले केन्द्र में मनमोहन सिंह सरकार से मध्यप्रदेश के लिए बड़े विकास कार्यों के लिए संघर्ष किया। उन्होंने केंद्र के द्वारा मध्यप्रदेश के साथ हुए भेदभाव के लिए पुरजोर आवाज उठाई और मध्यप्रदेश में विकास के लिए कई मार्ग खोले। अपने सहज व सरल स्वभाव के कारण शिवराजसिंह चौहान मध्यप्रदेश की जनता के बीच बहुत जल्द ही लोकप्रिय हो गए थे और अपने 18 वर्षों के कार्यकाल में आखिर तक लोकप्रियता के चरम पर रहे । 


आज जब मध्यप्रदेश की राजनीति में सबसे बड़ा व लोकप्रिय चहरा यदि कोई है तो निसंदेह मामाजी ही है। ऐसे में यह कह देना कि "मित्रों अब विदा...जस की तस रख दीनी चदरिया !" इस बात के कई अर्थ हो सकते हैं ! क्या वे अब राजनीति से सन्यास लेगे ? या फिर भाजपा में नई जिम्मेदारी के लिए उनका मन नहीं है या फिर वे कहना चाहते है कि मुझे जो संगठन व संघ ने जिम्मेदारी दी थी, मैंने उसका निर्वाह कर दिया ? या फिर अपने संगठन व दल से किसी तरह की असंतुष्टि जाहिर करना चाहते हो। इन सब बातों के अलावा इन पंक्तियों के ओर भी मायने हो सकते हैं। लेकिन विगत 18 वर्षों से मध्यप्रदेश की राजनीति में मामाजी का कार्याकाल विकास, संवाद, विवाद, घोटाले के आरोप, भ्रष्टाचार से संबंधित बातें, महिलाओं के लिए विशेष योजनाएं व अपनी अलग राजनीतिक शैली की लंबी लकीर खींच गया है। 

वो भले मध्यप्रदेश की सड़कों का निर्माण हो या फिर महिलाओं व बच्चों के लिए कितने ही लाभकारी योजनाएं हो। उसी के साथ जुड़ा है डंपर कांड, जो राष्ट्रीय राजनीति में काफी चर्चा में रहा। व्यापमं घोटाले को भला कौन भूल सकता है ? मध्यप्रदेश की जीवन रेखा नर्मदा नदी में रेत उत्खनन से संबंधित अनियमितता हो या फिर आम आदमी का भ्रष्टाचार के कारण परेशान होना। ये कुछ ऐसी बातें हैं जो शिवराजसिंह चौहान के पूरे कार्यकाल में निरंतर चर्चा के विषय रहे। वहीं कांग्रेस की 15 महीनों की सरकार के समय विपक्ष में रहते हुए शिवराजसिंह चौहान का मध्यप्रदेश के अंचलों में सरकार के खिलाफ माहौल बनाना। ऐसे विषय है जो उनकी राजनीतिक सक्रियता व जुझारूपन को दिखाते हैं।


शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्व में 2023 के चुनाव में मिली अपार सफलता के बाद वे भले कहे कि मित्रों अब विदा ! लेकिन इसके गहरे अर्थ व भाजपा संगठन को बड़ा संदेश तो माना जा सकता है। आज मध्यप्रदेश में मामा मोदीजी से भी लोकप्रिय बनकर उभरे हैं। भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अब इसे कैसे देखता है यह अगले कुछ माह चर्चा का विषय रहना है। सोशल मीडिया पर शिवराजसिंह चौहान ने अपने आप को जनता का “भाई व मामा" लिख दिया है। आम जनता से जुड़कर रहने की उनकी यह कला उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में अलग पहचान दिलाती है। मध्यप्रदेश का पाँचवीं बार मुख्यमंत्री नहीं बनाये जाने के बाद मामाजी राजनीतिक छवि ओर बढ़ गई है। लाड़ली लक्ष्मी व लाड़ली बहना योजनाओं से उन्होंने राष्ट्रीय राजनीति में  अपना एक अलग ही स्थान बना लिया है। इस कारण ही इस बार के विधानसभा चुनाव में मध्यप्रदेश की महिलाओं ने भाजपा को भारी मतों से जिताया। इस मास्टर स्ट्रोक की सफलता के लिए मध्यप्रदेश की जनता मामाजी को श्रेय देती हैं और इस जीत के लिए उन्हें असली नायक मानती हैं। लेकिन उसके बाद भी शिवराजसिंह चौहान का इतनी सहजता से कह देने कि मित्रों अब विदा...! उनके बड़े राजनीतिक कद को दर्शाता है। वे अटल-आडवाणी युग की राजनीति से संबंध रखते है इसलिए आगे राष्ट्रीय व मध्यप्रदेश की राजनीति में उनकी भूमिका क्या रहेगी, यह महत्वपूर्ण प्रश्न आम जनता में चर्चा का विषय बन गया है। 


अपने 18 वर्षों के कार्यकाल में शिवराजसिंह चौहान पर विपक्ष के द्वारा कई आरोप भी लगाए गए। लेकिन विपक्ष उन आरोपों को सिद्ध नहीं कर पाया। मामाजी निरंतर मध्यप्रदेश के विकास के लिए संघर्ष करते रहे व मध्यप्रदेश को आखिरकार विकास के पथ पर ले ही आये। 2005 में जो मध्यप्रदेश शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, सिंचाई, बिजली, पर्यटन , परिवहन आदि के मामलों में पिछड़ा व बीमारु राज्य था। वह 2023 में आज एक तेज गति से आगे बढ़ता राज्य बन गया है। मामाजी को जो चदरिया मिली थी उन्होंने उसे आज साफ व चमकदार करके डॉ मोहन यादव के हाथों में सोंपी है। यह सही है कि शिवराजसिंह चौहान के ऊपर कई घोटालों व भ्रष्टाचार के आरोप लगे, लेकिन उन मामलों का न्यायालय तक जाना व वहां से कोई ठोस निर्णय नहीं आना, आरोपों को खोखला साबित करता है व मामाजी की छवि को ज्यादा धूमिल नहीं कर पाये। राजनीति काजल की कोठरी के समान है लेकिन मामाजी इस कोठरी से बेदाग निकलने में बहुत कुछ सफल हुए हैं। यह आज मध्यप्रदेश की जनता के मन में उनके लिए प्रेम, लोकप्रियता व स्नेह सिद्ध कर रहा है। 


भूपेन्द्र भारतीय 


Shivraj Singh Chouhan BJP Madhya Pradesh #BJP

Saturday, September 23, 2023

पुस्तक समीक्षा - कम्प्यूटर चीन (अवैध अस्तित्व )- वर्तमान वामपंथी चीन पर रोचक पुस्तक

 कम्प्यूटर चीन (अवैध अस्तित्व )- वर्तमान वामपंथी चीन पर रोचक पुस्तक

       


आज भले चीन दुनिया में अपने अजीबोगरीब उत्पादों व वस्तुओं के कारण चर्चित रहता है। लेकिन वास्तव में इतिहास की गहराई में जाकर देखा जाए तो वर्तमान चीन एक अवैध अस्तित्व वाला देश है। इसी बात को प्रमाणित तथ्यों के साथ प्रो. कुसुमलता केडिया ने अपनी पुस्तक “कम्युनिस्ट चीन अवैध अस्तित्व" में विस्तार से बताया है। पुस्तक के परिचय के रूप में आमुख शीर्षक में ही इस पुस्तक का पूर्ण परिचय व इसकी विषय वस्तु स्पष्ट है। 22 अध्यायों के माध्यम से लेखिका ने इस पुस्तक में चीन की विस्तारवादी कूटनीति व उसकी राजनीति व शासन में चीनी वामपंथियों की घुसपैठ पर सविस्तार लिखा।

जिसे हम चीन कहते हैं उसे चीन स्वयं झुआंगहुआ कहता है। ‛वर्तमान के विशाल भौगोलिक क्षेत्रवाले चीन का निर्माण मुख्यतः सोवियत संघ तथा अन्य पश्चिमी देशों के अनुग्रह, हस्तक्षेप और प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग के कारण ही हुआ है। रोचक यह है कि यह चीन न होकर कम्युनिस्ट चीन है। पारंपरिक चीन को बाहरी शक्तियों से कभी भी ऐसी व्यापक और प्रभावकारी सहायता नहीं मिलती।' इस मुख्य बात को यहां इस पुस्तक में प्रमुखता से विभिन्न संदर्भों व लेखकों की पुस्तक के माध्यम से अलग अलग अध्यायों में स्पष्ट बताया गया।

पुस्तक एक बात ओर प्रमुखता से कहती है कि ‛ सन् 1954 तक चीन में उसके प्राचीन इतिहास का कोई प्रामाणिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं था। जब माओ जे दुंग ने सोवियत संघ के अनुसरण में सैन्य प्रोद्योगिकी का विस्तार करते हुए भवन निर्माण के लिए जगह-जगह खुदाइयाँ शुरू की, तब उसे पहली बार हूनान प्रांत में एक बड़ा पुरातात्विक क्षेत्र मिला, जिसके आधार पर चीनी सभ्यता की प्राचीनता की बात प्रचारित की गई।' वास्तव में इस पुस्तक के माध्यम से लेखिका ने बताया है कि वर्तमान चीन एक कब्जा किया हुआ क्षेत्र है। वर्तमान में दुनिया के अधिकांश देशों व बुद्धिजीवीयों को पता है कि चीन का करीब 23 देशों से सीमा विवाद है। वर्तमान चीन का अधिकांश भाग उसने अपने पड़ोसी देशों से जबरन कब्जा किया हुआ है। और इस सबके पीछे पश्चिमी ताकतें व वामपंथी विचारधारा सबसे प्रमुख कारण है।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वर्तमान कम्युनिस्ट चीन अपने वर्तमान अवैध अस्तित्व का आकार लेना शुरू हो गया था। वामपंथियों , पश्चिमी ताकतों, पादरियों , रूसी सत्ता व भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के सहारे कम्युनिस्ट चीन अपनी विस्तारवाद की कूटनीति पर अपने पड़ोसी देशों की सीमाओं पर अवैध कब्जा करता गया। लेखिका पुस्तक के पहले ही अध्याय के पृष्ठ 16 में लिखती है कि “नेहरू द्वारा माओ जे दुंग या माओ त्से तुंग की कम्युनिस्ट पार्टी का कब्जा तिब्बत पर करा देने के बाद से पहली बार कम्युनिस्ट चीन भारत का पड़ोसी बना है।” इससे पहले कभी चीन भारत का पड़ोसी नहीं रहा। बल्कि चीन महाभारत काल में भारत के एक जनपद का ही सिर्फ़ भाग था। वह भी सुदूर प्रशांत महासागर क्षेत्र से लगा हुआ था व क्षेत्रफल में बहुत कम था।
इसी बात को पुस्तक में ओर विस्तार से बताते हुए लेखिका ने लिखा है कि ‛वर्तमान कम्युनिस्ट चीन के 28 प्रांतों में से, जैसा कि जॉन की बताते हैं पाँच प्रांत ही मूल चीनी भूमि हैं- हेनान, हेबेई, शांक्सी, शेक्सी और शानदांग। 23 प्रांत 20वीं सदी के उत्तरार्ध में इंग्लैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका के संरक्षण में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा कब्जा किए गए क्षेत्र हैं।’

पुस्तक के अध्याय 2 में पादरी सैमुअल बील और जोसफ नीडम की चीन में भूमिका पर विस्तार से लिखा गया है और साथ ही बताया गया है कि कैसे पश्चिमी पादरियों ने मूल चीन के भोले भाले लोगों का मतांतरण किया। वहां पर इंग्लैंड की कंपनियों ने वहां के लोगों को अफीम के अवैध धंधे में उतार दिया व उन्हें अफीमची बना दिया। वर्तमान में जो भारत के मणिपुर व अन्य हिस्सों में इन्हें वामपंथियों द्वारा अफीम के माध्यम से विवाद खड़ा कर रखा है। भेद फैलाने और जासूसी करने तथा झूठ फैलाने में इंग्लैंड के अनेक पादरी अग्रणी रहे हैं। इसके लिए उन्हें सम्मानित भी किया जाता है। इन्हीं लोगों व इनकी विचारधारा वाले लोगों ने 1950 के बाद कम्युनिस्ट चीन का दुनिया के सामने बढ़ा चढ़ाकर प्रचार प्रसार किया व उसे आर्थिक रूप से विकसित देश बताने के लिए किसी भी तरह के आंकड़ों का सहारा लिया। वहीं वर्तमान चीन की हर विस्तारवादी नीति को विश्व पटल पर सही ठहराने के लिए विमर्श गढ़े गए।

पुस्तक में चीन के इतिहास पर फाहयान व शुंग युन के समय पर भी प्रकाश डाला गया है। उस समय के चीन व वर्तमान चीन में कितना अंतर है यह पुस्तक में स्पष्ट लिखा गया है। भारत का चीन से संबंध व इतिहास में चीन की क्या स्थिति थी। वह भारत के सामने कहीं नहीं ठहरता था। चीन वर्तमान में जितना बड़ा क्षेत्रफल वाला देश है वह पहले कभी नहीं रहा था, निरंतर बदलती रही हैं चीन की सीमाएँ। तुर्को, मंगोलों, मांचुओं, तिब्बतियों और जापानियों ने चीन को एक-एक कर अपने अधीन रखा। और अंत में रूस ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पहली बार चीन को एक महान कम्युनिस्ट ‛ नेशन स्टेट’ की तरह प्रचारित किया। इसका कारण यह था कि सोवियत संघ का आसपास कोई साथी नहीं था और उसे कम्युनिस्ट चीन के रूप में एक शक्तिशाली साथी दिखा। माओ त्से तुंग ने चीन की परंपरागत संस्कृति को नष्ट करने का एक महाअभियान चलाया और कई लाख चीनियों को मौत के घाट उतार दिया। अंत में चीन के भीतर ही एक कई तरह के विद्रोह हो गए और सैन्य बल से कम्युनिस्ट पार्टी उन्हें कुचलती रही । इस प्रकार वर्तमान चीन पर कम्युनिस्टों का कब्जा है, जो किसी भी अर्थ में चीन की परंपरागत संस्कृति से संबंध नहीं रखता।

आखिर क्या कारण थे कि बाहरी शक्तियों ने वर्तमान चीन का आकार गढ़ने में सहयोग किया ? मैं यहां समीक्षा में इसका खुलासा कर दूंगा तो पाठक की पुस्तक के प्रति जिज्ञासा कम हो सकती है। यहां इस पुस्तक में विस्तार से बताया गया है जिससे पाठक वर्तमान चीन की बनावट को आसानी से समझ जाऐंगे व यह भी समझेंगे की पश्चिमी देशों व रूस को इससे कितना लाभ हुआ व भारत को पीछले सात दशकों में कितना बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। जिसके पीछे जवाहरलाल नेहरू की अतिविश्वास भरी व अव्यवहारिक विदेश नीति जिम्मेदार रही है। ऐसा लेखिका ने अपनी इस पुस्तक में कितनी ही जगह प्रमाण सहित स्पष्ट किया है।

कुल मिलाकर इस पुस्तक के बारे में एक आम पाठक की तरह ही मेरी यह राय है कि यह पुस्तक व इसकी लेखिका अपने विषय के साथ पूर्ण न्याय करती है। कहीं कहीं कुछ तथ्यों व घटनाओं का दोहराव हुआ है लेकिन वह भी अध्याय को स्पष्ट करने के लिए। साथ ही यदि पुस्तक के अंत में संदर्भ सूची होती तो पुस्तक ओर ज्यादा प्रमाणिक होती तथा आगे पाठक इस विषय पर विस्तार से पढ़ना व जानना चाहता तो उसे सुविधा रहती। फिर भी पुस्तक कम्युनिस्ट( वामपंथी) विचारधारा, इंग्लैंड व अमेरिका के पादरियों की करतूतों, पश्चिमी देशों की दुनिया में दादागिरी, अपने व्यापार व हितों के लिए अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस जैसे देशों की नीतियों व मानवता पर क्रुरताओ का यह एक अच्छा दस्तावेज है।
ईसाइयत के प्रचार प्रसार के लिए पादरी किस हद तक जा सकते हैं, पाठक जब यह किताब पढ़ेगा तो उसे इस विषय पर विस्तार से जानने-समझने को मिलेगा। किसने चीन को भारत का पड़ोसी बनाया, तिब्बत पर चीन का कब्जा, नेहरू की गलत विदेश नीति, भारतीय सीमा पर चीन का कूटनीतिक कुचक्र , कैसे वर्तमान चीन में मुसलमानों को दबाकर रखा गया है और बाकी दुनिया के मुसलमान इसपर क्यों चुप्पी साधे हुए हैं, कम्युनिस्ट छाया में भारत-चीन संबंध आदि विषयों पर यहां इस पुस्तक में विस्तार से पढ़ने के लिए है।

लेखिका अंत में कहती है कि भारत की लड़ाई मूल(वास्तविक) चीन से नहीं है, हमारी लड़ाई तो कम्युनिस्ट चीन से है। जो कि एक अवैध अस्तित्व व कम्युनिस्टों के हित साधने का राजनीतिक अखाड़ा है। जिस तरह से 1991 में सोवियत क्षेत्र से कम्युनिस्ट साम्राज्यवाद समाप्त हो गया, उसी तरह से कम्युनिस्ट चीन से भी तिब्बतियों, मंगोलों, मांचुओं, तुर्को और हानो की मुक्ति आवश्यक है। वहीं इसमें भारत की क्या भूमिका है इस पर भी प्रकाश डाला गया है। वर्तमान में जो कम्युनिस्ट चीन है वह अपना वास्तविक इतिहास तक भी नहीं जानता है वह अब भी दंत कथाओं के आधार पर ही इतिहास लिखता , बताता व गढ़ता रहा है। उसका एक दिन सोवियत रूस की तरह विघटन होना ही है। क्योंकि जिस देश की पृष्ठभूमि ही अवैध अस्तित्व पर टिकी वह लंबे समय तक एक संपूर्ण राष्ट्र नहीं रह सकता है।

अंत में लेखिका की ही बात से मैं अपनी इस पुस्तक समीक्षा को विराम देना चाहुंगा, “वस्तुतः चीन कोई ‛नेशन स्टेट’ नहीं है, अपितु आपस में युद्धरत अनेक राष्ट्रीयताओं का समुच्चय है और वहाँ भीतरी झगड़े भयंकर रूप से चल रहे हैं और पूरा क्षेत्र कम्युनिस्ट पार्टी का उपनिवेश बना हुआ है। माओ त्से तुंग ने 9 करोड़ से अधिक चीनियों की हत्या कर एक आतंककारी शासन स्थापित किया, परंतु चीन भीतर से धधक रहा है और द्रवणशील स्थिति में है, क्योंकि इतिहास में कभी भी वह नेशन स्टेट रहा ही नहीं है।”



पुस्तक : कम्युनिस्ट चीन अवैध अस्तित्व
लेखक: कुसुमलता केडिया
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
मूल्य : 300


समीक्षक
भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

Friday, July 14, 2023

बेसन घोल दिया है, जल्दी आ जाओ....!!

 बेसन घोल दिया है, जल्दी आ जाओ....!!





फोन पर श्रीमती जी का संदेश आया कि “बेसन घोल दिया है, जल्दी घर आ जाओ....!!" मैं थोड़ा चौंका, सोचा कि अभी तो मौसम भी ऐसा नहीं है। कहीं दूर दूर तक बादल भी नहीं है। मैंने इधर से प्रश्न किया, कोई विशेष कारण ? बोली;- शाम को मौसम विभाग ने मुसलाधार बारिश बताई है। मैं हँस दिया। तुम भी कहाँ उनके चक्कर में आ गई। उनकी भविष्यवाणी आजतक सही निकली ? “हमारे यहाँ मौसम विभाग व रोजगार कार्यालय की बातें सही कब हुई हैं ?”
जबरन बेसन व उसके साथ मिलाये गए सब्जी-मसालों की बर्बादी हो जाऐगी। कहाँ तो हम मध्यवर्गीय और ऊपर से इन मौसम विभाग वालों पर विश्वास करना। गरीबी में आटा गिला होने जैसा ही है।
बेसन घोलने की सूचना पर मैं चिंतित इसलिए भी हो गया कि इस मँहगाई के जमाने में बेसन घोलना इतना भी आसान नहीं है ! बेसन के साथ महँगी मिर्ची, जीरा, आजवाइन, बड़े मियां प्याजजी आदि की जरूरत होती है। इन्हें एक साथ खरीदना आसान है ? इनके चक्कर में अच्छे अच्छों की जेब ढीली हो जाती है और बहुमत वाली सरकारें तक चली गई है। और ऊपर से मुझे यह डर सताने लगा कि कहीं बचे कुछे दो टमाटर में से किसी एक टमाटर को तो नहीं घोल दिया...!
मन में विचार आया कि ‛भला इन दिनों मौसम देखकर कौन इतना खर्चा करता है।’ मध्यवर्गीय लोगों को ऐसा आर्थिक अपराध नहीं करना चाहिए। लेकिन उन्हें यह बात समझाने का अपराध मैं कैसे करूँ।
लगा यह समय तो बेमौसम बरसात व बाजार का ही है। मौसम विभाग वाले आखिर कब सही हुए हैं ? जो उनकी बात में आकर इतना बड़ा रिस्क ले ! और फिर मध्यवर्गीय रिस्क ले सकता है !
हम इन दिनों देख रहे हैं कि सरकार तो सरकार, विपक्ष तक की हिम्मत नहीं हो रही है कि कुछ भी घोला जाए या फिर घपला किया जाए। ना खाऊंगा और ना खाने दूंगा वाले समय में आखिर कौन राजनीतिक बेसन घोलने की हिम्मत करें। ऐसे में श्रीमती जी है कि छुटपुट बादलों व मौसम विभाग वालों के चक्कर में आकर बेसन ही घोल दिया। बताओ भला आसपास वाले बेसन की खुशबू सूंघ लेगें, तो बांका-तिरछा मुँह नहीं बनाऐंगे ? ऊपर से यह माह इनकमटैक्स रिटर्न फाइल करने का है जो अलग।
बेसन घोलना भी है तो पहाड़ों पर जाओ, वहाँ बादल टूटकर बरस रहें हैं , वहां आधुनिक पर्यटकों ने गजब का बेसन घोल रखा है। इन्हें कौन बताएं कि बेसन घोलने का आयोजन भला मैदानी क्षेत्रों में हो, ऊपर यह कैसा आयोजन। सावन के ये भजिए कितने महँगे पड़ सकते हैं ! आखिर भाग्यवान को कौन समझाये !
खैर बेसन घोल दिया है तो निकलना पड़ा। खाने-पीने के शौकीन कभी खिलाने वाले की बात को टाल सकते हैं। श्रीमती जी का आदेश जो था। ऊपर से बादल भी घने होने लगे। थोड़ा मुझे भी लगा कि बारिश हो सकती है। जल्दी ही पहुंचा जाए। कहीं ट्राफिक के चक्कर में मौसम का मजा ना बिगड़ जाए। थोड़ी बहुत बारिश में ही हमारे शहरों की सड़कें नाराज हो जाती है। सड़क के गड्ढे व नगरपालिका का निर्माण कहीं बारिश से नाराज नहीं हो जाए, तब तक घर पहुंचना ही ठीक है। कहीं घर पहुंचने में देरी हो गई और मौसम विभाग वालों की भविष्यवाणी आज सही हो गई, तो फिर भजिए तो गए भाड़ में, “घर में घुसते ही आकाश व रसोईघर से गरज के साथ बादल ओर ज्यादा बरसने लगेंगे....!!


भूपेन्द्र भारतीय 
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Sunday, April 9, 2023

उन्हें अक्सर शब्द कम पड़ जाते हैं...!!

 उन्हें अक्सर शब्द कम पड़ जाते हैं...!!




लचकलाल जी जब भी बोलना शुरू करते है उन्हें अक्सर शब्द कम पड़ जाते हैं। नगर में ऐसा कोई आयोजन नहीं रहता है जिसमें लचकलालजी नहीं पहुंच पाते हो। नगर व नगर के 56 किलोमीटर के आसपास तक कहीं भी कोई भी आयोजन हो रहा हो, लचकलाल जी को उसकी खुशबू आ ही जाती है। उनके पंखें(फेन), उन्हें कहीं ना कहीं से फोन कर ही देते हैं। “दादा फलां की काकी मर गई है, वहीं अपने छोटू के जियाजी के पिताजी का रविवार को नुक्ता(पगड़ी) है ! अपने को चलना है, वो अपना खास है और ‛दादा पगड़ी के कार्यक्रम का संचालन आप ही को करना है।’ अब बात कार्यक्रम के संचालन की आ गई है तो जाना ही पड़ता है। लेकिन लचकलाल जब-जब बोलना शुरू करते है उन्हें शब्दों की सीमा घेर लेती है। वे वक्ता के तौर पर जब तक रंग में आते हैं तब तक शब्द की सीमा उनके पीछे पड़ जाती है।यही शब्दों की सीमा अधिकांश समय संचालन के रंग में भंग डालती है !

आयोजन-कार्यक्रम कोई भी हो, लचकलालजी हर विषय पर बोल सकते है। उनके पास जीवन की हर घटना के लिए एक रेडीमेड कहानी रहती है। भले वह कार्यक्रम उठावने का हो, श्रद्धांजलि सभा हो, होली मिलन समारोह हो या फिर नेताजी के भूमि पूजन का। नगर के अधिकांश आयोजनों की चर्चाओं में यह बात सामान्य रहती है कि “इस बार फिर लचकलालजी को पर्ची पहुंचाई गई और कहा गया कि अपनी बात को संक्षिप्त करिए। ऐसे में वे अक्सर शब्दों की मर्यादा के हवाले से अपनी बात वहीं समाप्त कर देते हैं।”

किसी कार्यक्रम में शब्द कम पड़ जाना, लचकलालजी के लिए वैसा ही है जैसे “क्रिकेट में खिलाड़ी का 99 पर आउट हो जाना और प्रेमी-प्रेमिका के आंख मिलाते ही प्रेमिका के पिताजी का घर के दरवाजे पर आ जाना !”
किसी आयोजन में यदि माईक नहीं है तो उनके पास शब्द अपने आप कम पड़ जाते हैं और लचकलालजी स्वतः संज्ञान लेते हुए कार्यक्रम की गरिमा को समझ जाते है। बहुत से आयोजनों में देखा गया है कि जनता कम होने पर भी उन्हें शब्दों की सीमा फिर याद आ जाती हैं। और वहीं किसी आयोजन में भारी-भरकम भीड़ को देखते ही उनका शब्द भण्डार बढ़ने लगता है।

लचकलालजी जब भी किसी आयोजन में मुख्य अतिथि की भूमिका में रहते है तो वहां शब्दों का भंडार लेकर पहुंचते है लेकिन वहां आयोजकों व कार्यकर्ताओं की खींचातानी के कारण फिर उनकी वाणी शब्दों की कमी अनुभव करती है। बहुत बार जनता की भावनाएं आड़े आ जाती है। भीड़ में से कुछ व्यस्त लोग अपने मोबाइल को कान पर लगाते हुए उठने लगते हैं। जनता आपस में संसद जैसी कार्यवाही का संचालन करने लगती हैं। वह कार्यकर्ता जिस पर आखिर में टेंट व कुर्सी समेटने की जिम्मेदारी होती है वह जनता की भावनाओं का ध्यान रखते हुए, “वह कार्यकर्ता आयोजन स्थल के पास ही श्रोता बनकर बैठे किसी कुत्ते को पत्थर मार देता है जिससे जनता का ध्यानाकर्षण हो जाता है !” इन स्थितियों में लचकलालजी को एक बार फिर शब्दों की अपनी सीमा व समय की मर्यादा का पालन करते हुए, अपना स्थान ग्रहण करना पड़ता है। लचकलालजी को इस बात की पीड़ा निरंतर सताती रहती है कि वह ‛अपनी अभिव्यक्ति का पूर्ण आनंद नहीं ले पाते है।’

शब्दों की इन्हीं कमीयों को देखते हुए। लचकलाल जी ने इन दिनों अपना एक स्थायी मंच यूट्यूब चैनल बना लिया है। आजकल वे अपने यूट्यूब चैनल पर महीने में एक दो बार शब्दों की कमी को पूरा करते है। अब अपने चैनल पर उन्हें किसी तरह के शब्दों की सीमा व समय की मर्यादा के वीटो पावर से सामना नहीं करना पड़ता । वे अपने मन की सारी बात कह लेते है और फिर उस ऐतिहासिक वार्ता को 25-30 वाट्सएप समूहों में लिंक के माध्यम से अपने शब्दों की तूफानी रवानगी डाल देते है....!!


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदे

Tuesday, March 28, 2023

समलैंगिकता ः पश्चिमी संस्कृति की विकृत मानसिकता

 समलैंगिकता ः पश्चिमी संस्कृति की विकृत मानसिकता

      



समलैंगिक विवाह जैसी संस्था पूर्णतः पश्चिमी संस्कृति की उपज है। यह अमानवीय व अप्राकृतिक यौन संबंध पश्चिम की विकृत मानसिकता का लक्षण है। भारतीय समाज की संस्कृति गौरवशाली रही है। इसमें किसी भी तरह के अनुचित व अप्राकृतिक भोग को कभी भी प्रमुखता से स्थान नहीं दिया है। विधायिका को इस तरह के कृत्यों पर नियंत्रण के लिए कठोर विधि का निर्माण करना चाहिए। 
भारत में वामपंथियों के द्वारा इस तरह के कार्य एक सुनियोजित ढंग से किये जाते रहे हैं और इसके पीछे उनकी मंशा रहती हैं कि किसी भी तरह से भारतीय संस्कृति को बदनाम करना व भारतीय संयुक्त परिवार संस्था को तोड़ना। 
भारतीय न्यायशास्त्र में विवाह को एक पवित्र संस्कार व बंधन बताया गया है ना की किसी तरह की संविदा या फिर शारीरिक भोग की एक साधारण संस्था ! यहां तक कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र - राजनीति पर एक ग्रंथ - में भी समलैंगिकता का उल्लेख है। लेकिन पुस्तक में ये साफ लिखा है कि समलैंगिकता में लिप्त लोगों को दंडित करना राजा का कर्तव्य है, क्योंकि समलैंगिक लोग समाज की बुराई हैं। आखिर क्या कारण है कि वर्तमान में कुछ तथाकथित आधुनिक वर्ग पश्चिम को देखकर इस बुराई को अपना रहे हैं ?

यहां तक कि कई धार्मिक व वैज्ञानिक जानकारों ने भी कहा है कि " समलैंगिकता शास्त्रों के अनुसार एक अपराध है और अप्राकृतिक है। लोग खुद को एक समाज से अलग नहीं मान सकते ... एक समाज में , एक परिवार एक पुरुष और एक महिला से बनता है, न कि एक महिला और एक महिला से, या एक पुरुष और एक पुरुष से। यदि ये समलैंगिक जोड़े बच्चों को गोद लेते हैं, तो बच्चा एक विकृत परिवार के साथ बड़ा होगा। समाज बिखर जाएगा। अगर हम पश्चिम के उन देशों को देखें जिन्होंने समान-लिंग विवाह की अनुमति दी है, तो आप पाएंगे कि वे किस मानसिक तनाव से पीड़ित हैं। और किस तरह से वहाँ का समाज दिनोंदिन मानसिक विकृतियों से जूझ रहा है।”
विगत दिनों में उत्तर प्रदेश सरकार ने हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट के समक्ष एक मामले में समलैंगिक विवाह को मान्यता देने का विरोध करते हुए कहा, "इस तरह के विवाह भारतीय संस्कृति और भारतीय धर्म के खिलाफ हैं और भारतीय कानूनों के अनुसार अमान्य होंगे, जिन्हें एक पुरुष और एक महिला की अवधारणा को ध्यान में रखकर बनाया गया है।"

कई मनोचिकित्सकों ने स्पष्ट कहा है कि “समलैंगिकता स्पष्ट मनोवैज्ञानिक विकार है जिसका इलाज डॉक्टरों द्वारा किया जाना चाहिए।” वहीं महान दार्शनिक ओशो ने कहा था, “ समलैंगिकता एक यौन विकृति है, जो पश्चिमी समाज की देन है !”
कुछ वर्ष पहले जब भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिकता को कानूनी दृष्टि से उचित ठहराया तो समाज में भारी विरोध हुआ और कितने ही लोगों ने इस तरह के निर्णय को भारतीय संस्कृति व नैतिक मूल्यों के खिलाफ बताया था। भारत सरकार भी सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिकता के विषय पर अपने जवाब में कह चुकी है कि “समलैंगिकों का जोड़े के रूप में साथ रहना और शारीरिक संबंध बनाने की, भारत की पारिवारिक इकाई की अवधारणा से तुलना नहीं हो सकती।”
एक बार फिर इस विषय पर सर्वोच्च न्यायालय व न्यायिक संस्थाओं में बहस शुरू हो गई है, जो कि भारतीय समाज व विवाह जैसी पवित्र संस्था के लिए जरुरी है कि इस बहस के माध्यम से यह पश्चिमी मानसिक विकृति समाप्त हो तथा इस तरह के कृत्य के लिए कठोर दंड का प्रावधान बने। आखिर हमारा समाज प्रकृति के विरुद्ध कैसे जा सकता है। न्यायशास्त्र में प्राकृतिक न्याय व नैतिक मूल्यों का सबसे ज्यादा महत्व है।


भूपेन्द्र भारतीय ( अधिवक्ता व लेखक )
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 


Sunday, March 19, 2023

केंचुली उतारने की पीड़ा....!!

 केंचुली उतारने की पीड़ा....!!

           



जब भी चुनाव होते हैं उन्हें केंचुली उतारने की पीड़ा से गुजरना पड़ता है। इस पीड़ा को सहना आसान नहीं है। चुनाव लड़ने से पहले इस पीड़ा में पड़ना और चुनाव बाद हर पाँच साल में इस पीड़ा से दो-चार होना भी पड़ता है। चुनाव में हार के बाद भी केंचुली उतारना और जीत के बाद भी केंचुली उतारना..! वे इस पीड़ा पर उवाचते हैं, “साधों क्या यहीं जीवन है ?”

किसी को कोई भी पुरस्कार मिल गया तो उन्हें फिर अपनी साहित्यिक केंचुली उतारने की पीड़ा से गुजरना पड़ता है। यह पीड़ा दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। आजकल तो उन्होंने मुझे भी इस पीड़ा में पटक दिया है। अभी कुछ दिनों पहले ही विदेश में जाकर उन्होंने अपनी केंचुली उतारने की पीड़ा का ढिंढोरा पीटा। ओर ना सिर्फ पीटा, पर पीढ़ामय राग में पीटने की ध्वनि विदेशी अखबारों में छपी भी।
वैसे साँपनाथ-नागनाथ जैसी उनकी दोस्ती के किस्से बहुत चर्चित रहते है। लेकिन यह केंचुली उतारने की पीड़ा के समय उनकी यह सदाबहार दोस्ती किसी काम नहीं आती है। वे लोकतंत्र के किसी भी रण में उतरते तो साथ-साथ , लेकिन कुछ ही समय बाद उनका लोकतांत्रिक गठजोड़ कमजोर पड़ने लगता है। दोनों एक दूसरे पर आरोपों की झड़ी लगा देते हैं। दोनों एक दूसरे को लोकतंत्र का हत्यारा तक का दोषी घोषित कर देते है। आखिर में वही केंचुली उतारने की पीड़ा उन्हें विदेश यात्रा के लिए मजबूर कर देती है और फिर वे विदेशी जमीन से लोकतंत्र के लिए फुफकारते है।

केंचुली उतारने की यह पीड़ा दिनोंदिन हर संस्था व संगठन में बढ़ती जा रही है। किसी संस्था ने किसी को कोई पुरस्कार दे दिया तो उस संस्था के बाकी सदस्य इस पीड़ा से ग्रसित हो जाते हैं। यहां तक कि कुछ लोग तो पड़ोसी के यहां डबल-बेड आ जाये तो इस पीड़ा से पीड़ित हो जाते हैं। यह पीड़ा हमारे देश के शिक्षा संस्थानों में कुछ ज्यादा ही फैली है। जैसे ही किसी विश्वविद्यालय में प्रवेश करो, तो हर विभाग में केंचुली ही केंचुली देखने को मिल जाती है। जितना बड़ा शिक्षा का मंदिर , उतने बड़े साँपनाथ-नागनाथ विचरण करते हुए देखे जा सकते हैं।

कुछ दिनों पहले मैं गलती से एक कलेक्टोरेट कार्यालय में चला गया। जैसे ही एक बाबूजी की टेबल के सामने पहुंचा, ‛वे केंचुली उतारने की पीड़ा से गुजर रहे थे।’ उनका कहना था, “अभी थोड़ी देर बाहर जाईये, मैं अभी तो कलेक्टर साहब के बंगले से आ रहा हूँ ! पहले मैडम का काम तो निपटा लू..!” बेचारे बाबूजी, उस दिन इस पीड़ा से बहुत ज्यादा परेशान दिखे। आखिर में लंबी प्रतिक्षा के बाद उन्होंने मेरी बात तो सुनी, लेकिन शाम को जब मैं घर पहुंचा तो मुझे भी अपनी श्रीमति के सामने केंचुली उतारने की पीड़ा से दो-चार होना पड़ा।

जैसे-जैसे हमारा गणतंत्र बड़ा हो रहा है और बड़प्पन की ओर जा रहा है। यह पीड़ा उसके अधिकांश चंदन के खंभों पर बढ़ती जा रही है। कोई इस पीड़ा से अपने ही घर में पीड़ित हैं तो कुछ लोग संसद के हर सत्र में केंचुली उतारते हुए देखें जा सकते हैं। वहीं कुछ स्वघोषित राजनीतिक राजाधिराज जब तक विदेशी धरती पर जाकर अपनी केंचुली नहीं उतारते, उन्हें इस पीड़ा में आनंद ही नहीं आता...!!


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....

 लोकसभा चुनाव में महुआ राजनीति....         शहडोल चुनावी दौरे पर कहाँ राहुल गांधी ने थोड़ा सा महुआ का फूल चख लिखा, उसका नशा भाजपा नेताओं की...