Sunday, March 19, 2023

केंचुली उतारने की पीड़ा....!!

 केंचुली उतारने की पीड़ा....!!

           



जब भी चुनाव होते हैं उन्हें केंचुली उतारने की पीड़ा से गुजरना पड़ता है। इस पीड़ा को सहना आसान नहीं है। चुनाव लड़ने से पहले इस पीड़ा में पड़ना और चुनाव बाद हर पाँच साल में इस पीड़ा से दो-चार होना भी पड़ता है। चुनाव में हार के बाद भी केंचुली उतारना और जीत के बाद भी केंचुली उतारना..! वे इस पीड़ा पर उवाचते हैं, “साधों क्या यहीं जीवन है ?”

किसी को कोई भी पुरस्कार मिल गया तो उन्हें फिर अपनी साहित्यिक केंचुली उतारने की पीड़ा से गुजरना पड़ता है। यह पीड़ा दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। आजकल तो उन्होंने मुझे भी इस पीड़ा में पटक दिया है। अभी कुछ दिनों पहले ही विदेश में जाकर उन्होंने अपनी केंचुली उतारने की पीड़ा का ढिंढोरा पीटा। ओर ना सिर्फ पीटा, पर पीढ़ामय राग में पीटने की ध्वनि विदेशी अखबारों में छपी भी।
वैसे साँपनाथ-नागनाथ जैसी उनकी दोस्ती के किस्से बहुत चर्चित रहते है। लेकिन यह केंचुली उतारने की पीड़ा के समय उनकी यह सदाबहार दोस्ती किसी काम नहीं आती है। वे लोकतंत्र के किसी भी रण में उतरते तो साथ-साथ , लेकिन कुछ ही समय बाद उनका लोकतांत्रिक गठजोड़ कमजोर पड़ने लगता है। दोनों एक दूसरे पर आरोपों की झड़ी लगा देते हैं। दोनों एक दूसरे को लोकतंत्र का हत्यारा तक का दोषी घोषित कर देते है। आखिर में वही केंचुली उतारने की पीड़ा उन्हें विदेश यात्रा के लिए मजबूर कर देती है और फिर वे विदेशी जमीन से लोकतंत्र के लिए फुफकारते है।

केंचुली उतारने की यह पीड़ा दिनोंदिन हर संस्था व संगठन में बढ़ती जा रही है। किसी संस्था ने किसी को कोई पुरस्कार दे दिया तो उस संस्था के बाकी सदस्य इस पीड़ा से ग्रसित हो जाते हैं। यहां तक कि कुछ लोग तो पड़ोसी के यहां डबल-बेड आ जाये तो इस पीड़ा से पीड़ित हो जाते हैं। यह पीड़ा हमारे देश के शिक्षा संस्थानों में कुछ ज्यादा ही फैली है। जैसे ही किसी विश्वविद्यालय में प्रवेश करो, तो हर विभाग में केंचुली ही केंचुली देखने को मिल जाती है। जितना बड़ा शिक्षा का मंदिर , उतने बड़े साँपनाथ-नागनाथ विचरण करते हुए देखे जा सकते हैं।

कुछ दिनों पहले मैं गलती से एक कलेक्टोरेट कार्यालय में चला गया। जैसे ही एक बाबूजी की टेबल के सामने पहुंचा, ‛वे केंचुली उतारने की पीड़ा से गुजर रहे थे।’ उनका कहना था, “अभी थोड़ी देर बाहर जाईये, मैं अभी तो कलेक्टर साहब के बंगले से आ रहा हूँ ! पहले मैडम का काम तो निपटा लू..!” बेचारे बाबूजी, उस दिन इस पीड़ा से बहुत ज्यादा परेशान दिखे। आखिर में लंबी प्रतिक्षा के बाद उन्होंने मेरी बात तो सुनी, लेकिन शाम को जब मैं घर पहुंचा तो मुझे भी अपनी श्रीमति के सामने केंचुली उतारने की पीड़ा से दो-चार होना पड़ा।

जैसे-जैसे हमारा गणतंत्र बड़ा हो रहा है और बड़प्पन की ओर जा रहा है। यह पीड़ा उसके अधिकांश चंदन के खंभों पर बढ़ती जा रही है। कोई इस पीड़ा से अपने ही घर में पीड़ित हैं तो कुछ लोग संसद के हर सत्र में केंचुली उतारते हुए देखें जा सकते हैं। वहीं कुछ स्वघोषित राजनीतिक राजाधिराज जब तक विदेशी धरती पर जाकर अपनी केंचुली नहीं उतारते, उन्हें इस पीड़ा में आनंद ही नहीं आता...!!


भूपेन्द्र भारतीय 
205, प्रगति नगर,सोनकच्छ,
जिला देवास, मध्यप्रदेश(455118)
मोब. 9926476410
मेल- bhupendrabhartiya1988@gmail.com 

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